आलमबाज़ार मठ में अनुष्ठित ऐतिहासिक संन्यास-यज्ञ की स्मृति और स्वामीजी की उस दिन की अपूर्व ज्योतिर्मय मूर्ति स्वामी विरजानन्द के मानस-पटल पर सदा के लिए अंकित हो गई थी। विरजानन्दजी के ही शब्दों में - 'उनका स्वतः प्रदीप्त मुखमण्डल होमाग्नि की उज्ज्वल प्रभा से अपूर्व रूप से प्रदीप्त हो उठा। ऐसा लग रहा था मानो साक्षात् अग्नि-देवता ही नर-विग्रह धारण करके विराजमान हों। हम लोगों को संन्यास-दीक्षा देने के बाद स्वामीजी के आनन्द की सीमा न रही। गृहस्थ को पुत्र होने पर भी शायद इतना आनन्द नहीं होता होगा।'
स्वामीजी ने उस दिन चारों नवीन संन्यासियों को हृदय से आशीर्वाद देते हुए कहा था, 'तुम लोग मानव-जीवन का सर्वश्रेष्ठ व्रत ग्रहण करने को प्रस्तुत हो; धन्य है तुम्हारा जन्म, धन्य है तुम्हारा वंश और धन्य है तुम्हारी माता! कुलं पवित्रं जननी कृतार्था।' उस दिन विरजानन्द आदि की ओर इंगित करते हुए त्यागमूर्ति स्वामीजी ने कहा था, 'ये लोग ब्रह्मचर्य से दीप्त होकर ज्वलन्त अग्नि की भाँति निवास करेंगे।'
विरजानन्द के जीवन का एक नया अध्याय आरम्भ हुआ। अब स्वामीजी के चरणों में बैठकर उनकी ज्ञान-भक्ति-योग तथा कर्म के समन्वित आदर्श की शिक्षा तथा साधना शुरू हुई। इन्हीं दिनों उन्हें स्वामीजी की व्यक्तिगत सेवा करने का दुर्लभ सौभाग्य भी प्राप्त हुआ था। श्रीगुरु से 'आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च' का मंत्र पाने के कुछ समय बाद उन्हीं के आदेश पर अकाल- पीड़ितों की सेवा करने हेतु विरजानन्दजी को देवघर (वैद्यनाथ) भेजा गया। उनके संचालन में देवघर का सेवाकार्य बड़ी कुशलतापूर्वक सम्पन्न हुआ।
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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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