'परन्तु मैं जानता ही क्या हूँ, जो बोलूंगा?'
गम्भीर स्वर में उत्तर मिला, 'ठीक है, खड़े होकर यही कहना कि मैं कुछ नहीं जानता। "मैं कुछ नहीं जानता" - यह कहना भी तो एक बहुत बड़ी शिक्षा है। "मैं सब कुछ जानता हूँ" - यह भाव अज्ञान है।'
तब भी तरुण शिष्य के मन में गुरु का निर्देश मानने के लिए दृढ़ता नही आ रही थी।
आचार्य ने आगे कहा, 'देख, यदि तू अपनी मुक्ति के लिए चेष्टा करेगा, तो निश्चित रूप से नरक में जाएगा, और यदि दूसरों की मुक्ति के लिए कार्य करेगा, तो तत्काल मुक्त हो जाएगा।'
अब शिष्य के सारे संशय दूर हो गए। उसने 'आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च' अपनी मुक्ति तथा विश्व के कल्याणार्थ अपना जीवन बलिदान कर देने का संकल्प कर लिया।
श्रीगुरु के मुख से उच्चरित यह सन्देश शिष्य के परवर्ती जीवन में साकार हो गया। इसीलिए लोकगुरु स्वामी विवेकानन्द के संन्यासी शिष्य स्वामी विरजानन्द का वैराग्य-दीप्त जीवन, त्याग और सेवा के इतिहास में एक अविस्मरणीय प्रेरणा-दीप और तपस्या एवं कर्म के समन्वय का एक अपूर्व आदर्श हो उठा था।
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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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