१९१३ ई. में उनका मन मायावती आश्रम के अध्यक्ष पद से निवृत्ति लेकर एक बार फिर साधना में डूब जाने को व्याकुल हो उठा। इसी उद्देश्य से मदर सेवियर की सहायता से उन्होंने निर्जन वन्य अंचल में एक छोटे-से आश्रम की स्थापना की। वह उनके साधक-जीवन की असंख्य स्मृतियों से जुड़ा हुआ है। स्थानीय लोग उस अंचल को 'श्याँला' कहते थे। इस निर्जन पर्वतीय वनभूमि का क्षेत्र मन को सहज ही अन्तर्मुखी कर डालता है। पर्वत की ढलान पर एक के बाद एक तीन सरोवर स्थित हैं। इसके एक ओर अति उच्च तुषार-आवृत्त हिमालय है, तो दूसरी ओर ५००० फीट नीचे हरी-भरी घाटी है। श्याँला को 'श्यामला' में रूपान्तरित करके और उसके साथ श्यामल प्रतिच्छाया युक्त 'ताल' शब्द को जोड़कर विरजानन्द ने इस नवीन वनांचल को नया नाम दिया था - श्यामलाताल।
१९१४ ई. के अन्त से लेकर करीब १२ वर्ष उन्होंने इसी मठ में तपस्या करते हुए बिताए थे। धीरे-धीरे इस आश्रम से जुड़े हुए एक रामकृष्ण सेवाश्रम का भी निर्माण हो गया। श्यामलाताल में ही रहकर कठोर साधना के साथ-साथ उन्होंने स्वामीजी की जीवनी के तीसरे तथा चौथे खण्ड के सम्पादन तथा प्रकाशन का कार्य भी सम्पन्न किया। १९१९ ई. में करीब पाँच महीने उन्होंने दक्षिण भारत के तीर्थों के दर्शन किए तथा श्रीलंका का परिभ्रमण किया था।
विरजानन्द के मन की सहज प्रवृत्ति तपस्या की ओर थी और जब वे मठ तथा मिशन के अध्यक्ष पद पर आसीन हुए, तब भी इसमें कोई व्यतिक्रम नहीं दीख पड़ा। उनके व्यक्तिगत जीवन की यह तप के प्रति निष्ठा दूसरों के जीवन को भी तपस्या की ओर प्रेरित करती। उनके समीप आनेवाले और भी अनेक लोग उनके इस त्याग-तपस्यामय आदर्श से प्रभावित हुए थे। उदाहरण के लिए संघ के एक वरिष्ठ संन्यासी की यह स्मृति प्रस्तुत है, 'विश्वरंजन महाराज ने कहा था- वे जब वाराणसी में तपस्या कर रहे थे, तब वे दोनों समय मन्दिर से प्रसाद लेकर उदरपूर्ति किया करते थे। उसी समय पूजनीय कालीकृष्ण महाराज तीर्थयात्रा करते हुए वहाँ पहुँचे और विश्वरंजन महाराज को वहाँ तपस्या करते देख बहुत आनन्दित हुए। परन्तु पूजनीय महाराज ने उनसे एक बात कही, "देखो विश्वरंजन, बिना कोई सेवा किए मन्दिर से प्रतिदिन प्रसाद ग्रहण करने से दाता के पापों का अंश लेना पड़ता है।" उसी दिन से महाराज के निर्देशानुसार विश्वरंजन महाराज प्रतिदिन ठाकुर की सेवा के लिए फूल तोड़कर माला बना दिया करते थे।'
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१९१४ ई. के अन्त से लेकर करीब १२ वर्ष उन्होंने इसी मठ में तपस्या करते हुए बिताए थे। धीरे-धीरे इस आश्रम से जुड़े हुए एक रामकृष्ण सेवाश्रम का भी निर्माण हो गया। श्यामलाताल में ही रहकर कठोर साधना के साथ-साथ उन्होंने स्वामीजी की जीवनी के तीसरे तथा चौथे खण्ड के सम्पादन तथा प्रकाशन का कार्य भी सम्पन्न किया। १९१९ ई. में करीब पाँच महीने उन्होंने दक्षिण भारत के तीर्थों के दर्शन किए तथा श्रीलंका का परिभ्रमण किया था।
विरजानन्द के मन की सहज प्रवृत्ति तपस्या की ओर थी और जब वे मठ तथा मिशन के अध्यक्ष पद पर आसीन हुए, तब भी इसमें कोई व्यतिक्रम नहीं दीख पड़ा। उनके व्यक्तिगत जीवन की यह तप के प्रति निष्ठा दूसरों के जीवन को भी तपस्या की ओर प्रेरित करती। उनके समीप आनेवाले और भी अनेक लोग उनके इस त्याग-तपस्यामय आदर्श से प्रभावित हुए थे। उदाहरण के लिए संघ के एक वरिष्ठ संन्यासी की यह स्मृति प्रस्तुत है, 'विश्वरंजन महाराज ने कहा था- वे जब वाराणसी में तपस्या कर रहे थे, तब वे दोनों समय मन्दिर से प्रसाद लेकर उदरपूर्ति किया करते थे। उसी समय पूजनीय कालीकृष्ण महाराज तीर्थयात्रा करते हुए वहाँ पहुँचे और विश्वरंजन महाराज को वहाँ तपस्या करते देख बहुत आनन्दित हुए। परन्तु पूजनीय महाराज ने उनसे एक बात कही, "देखो विश्वरंजन, बिना कोई सेवा किए मन्दिर से प्रतिदिन प्रसाद ग्रहण करने से दाता के पापों का अंश लेना पड़ता है।" उसी दिन से महाराज के निर्देशानुसार विश्वरंजन महाराज प्रतिदिन ठाकुर की सेवा के लिए फूल तोड़कर माला बना दिया करते थे।'
कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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