स्वामी अखण्डानन्द ने स्वामीजी की जीवनी का प्रथम खण्ड पढ़ने के बाद विरजानन्द के नाम एक भावपूर्ण पत्र लिखा था। महुला से १ फ़रवरी १९१३ को लिखित उस पत्र के कुछ अंश इस प्रकार हैं-
प्रिय विरजानन्द,
जीवनी का पहला खण्ड मैंने आद्योपान्त पढ़ा और जब तक मैं उसे पढ़ता रहा, तब तक रोमांचित शरीर के साथ मानो ठाकुर तथा स्वामीजी को साक्षात् देखता रहा। वही दक्षिणेश्वर, वही काशीपुर के उद्यान आदि की बातें पढ़ते-पढ़ते सब कुछ हूबहू आँखों के सामने आकर खड़ा हो जाता है। धन्य है मदर सेवियर! और धन्य है स्वामीजी के 'प्राच्य तथा पाश्चात्य शिष्यगण', जिनके अधिक प्रयास के फलस्वरूप आज हम जनता के समक्ष ऐसी सर्वांग सुन्दर 'जीवनी' प्रस्तुत कर सके। तुम सभी के निष्ठापूर्ण प्रयास के फलस्वरूप और मदर (सेवियर) की असीम भक्ति के कारण, स्वयं स्वामीजी ने ही अपनी जीवनी में स्वयं को ढाल दिया है! तुम लोगों की समवेत चेष्टा तथा अचल भक्ति के फलस्वरूप श्री स्वामीजी को मानो सर्वदा ही तुम लोगों के इस ग्रन्थ में प्रविष्ट होकर निवास करना पड़ेगा।
एक बात और - पहला खण्ड पढ़ने के बाद दूसरे खण्ड के लिए और चार महीने का विलम्ब प्रायः असह्य ही प्रतीत होगा। दूसरा खण्ड पाने तक मैं दिन गिनते रहूँगा। मदर को मेरी ओर से कहना कि अद्वैत आश्रम से जो श्री स्वामीजी की जीवनी निकली है, उसकी कोई तुलना नहीं है। एक इसी कार्य के लिए 'अद्वैत आश्रम' का गौरव अक्षुण्ण तथा चिर उज्ज्वल रहेगा ! दूसरा खण्ड प्रकाशित होते ही मुझे भेजना मत भूलना। उसके कब तक निकलने की सम्भावना है, यह भी लिखकर सूचित करना।
स्वामीजी की ग्रन्थावली के एक खण्ड का पाठ करने के बाद अभेदानन्दजी ने विरजानन्द को एक पत्र लिखा, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रसंग में उल्लेखनीय है - 'स्वामीजी के Memorial edition के अनुवादित अंश बड़े सुन्दर हैं। The East and the West (प्राच्य और पाश्चात्य) को जितना देखा है - beyond criticism (त्रुटिहीन) है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम उनके अमूल्य रत्नों को जगत् में वितरित करके जगत् को समृद्ध बना रहे हो। यह एक बड़ा उत्तम कार्य है और व्याख्यान आदि देने की अपेक्षा काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। यह तुम्हारे लिए एक ऐसे संन्यासी के लिए सुरक्षित रखा हुआ था, जिसमे अनन्त धैर्य, शान्ति और साथ ही अटल उत्साह है।'
स्वामी शुद्धानन्द ने भी इस जीवनी को पढ़ने के बाद विरजानन्द को बधाई देते हुए लिखा, 'जैसा अथक परिश्रम करके तुम जो इस बृहदाकार जीवनी को प्रकाशित कर रहे हो, मुझे नहीं लगता कि कोई और वैसा कर पाता।'
स्वामीजी की भावधारा के प्रचार के फलस्वरूप आज देश-विदेश में जो इतनी चेतना दीख पड़ती है, उसके पीछे निहित मौन अथक प्रयास के इतिहास को शायद अब भी बहुत-से लोग नहीं जानते।
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प्रिय विरजानन्द,
जीवनी का पहला खण्ड मैंने आद्योपान्त पढ़ा और जब तक मैं उसे पढ़ता रहा, तब तक रोमांचित शरीर के साथ मानो ठाकुर तथा स्वामीजी को साक्षात् देखता रहा। वही दक्षिणेश्वर, वही काशीपुर के उद्यान आदि की बातें पढ़ते-पढ़ते सब कुछ हूबहू आँखों के सामने आकर खड़ा हो जाता है। धन्य है मदर सेवियर! और धन्य है स्वामीजी के 'प्राच्य तथा पाश्चात्य शिष्यगण', जिनके अधिक प्रयास के फलस्वरूप आज हम जनता के समक्ष ऐसी सर्वांग सुन्दर 'जीवनी' प्रस्तुत कर सके। तुम सभी के निष्ठापूर्ण प्रयास के फलस्वरूप और मदर (सेवियर) की असीम भक्ति के कारण, स्वयं स्वामीजी ने ही अपनी जीवनी में स्वयं को ढाल दिया है! तुम लोगों की समवेत चेष्टा तथा अचल भक्ति के फलस्वरूप श्री स्वामीजी को मानो सर्वदा ही तुम लोगों के इस ग्रन्थ में प्रविष्ट होकर निवास करना पड़ेगा।
एक बात और - पहला खण्ड पढ़ने के बाद दूसरे खण्ड के लिए और चार महीने का विलम्ब प्रायः असह्य ही प्रतीत होगा। दूसरा खण्ड पाने तक मैं दिन गिनते रहूँगा। मदर को मेरी ओर से कहना कि अद्वैत आश्रम से जो श्री स्वामीजी की जीवनी निकली है, उसकी कोई तुलना नहीं है। एक इसी कार्य के लिए 'अद्वैत आश्रम' का गौरव अक्षुण्ण तथा चिर उज्ज्वल रहेगा ! दूसरा खण्ड प्रकाशित होते ही मुझे भेजना मत भूलना। उसके कब तक निकलने की सम्भावना है, यह भी लिखकर सूचित करना।
स्वामीजी की ग्रन्थावली के एक खण्ड का पाठ करने के बाद अभेदानन्दजी ने विरजानन्द को एक पत्र लिखा, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रसंग में उल्लेखनीय है - 'स्वामीजी के Memorial edition के अनुवादित अंश बड़े सुन्दर हैं। The East and the West (प्राच्य और पाश्चात्य) को जितना देखा है - beyond criticism (त्रुटिहीन) है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम उनके अमूल्य रत्नों को जगत् में वितरित करके जगत् को समृद्ध बना रहे हो। यह एक बड़ा उत्तम कार्य है और व्याख्यान आदि देने की अपेक्षा काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। यह तुम्हारे लिए एक ऐसे संन्यासी के लिए सुरक्षित रखा हुआ था, जिसमे अनन्त धैर्य, शान्ति और साथ ही अटल उत्साह है।'
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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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