कल्याणानन्दजी ने तीस एकड़ भूमि खरीदी। हरिद्वार में उन्हें उचित भूमि नहीं मिल सकी क्योंकि यह शहर पहले ही उनके भवनों से खचाखच भर चुका था और वहाँ कोई खुली जगह न थी। परन्तु हरिद्वार और कनखल के बीच गङ्गा-नहर के किनारे पेड़ों और झाड़ियों से भरी कुछ खुली जगह मिल गयी। उन्होंने उस भूखण्ड को खरीद कर झोपड़ियाँ बनानी शुरू कर दीं। लोग हैरान होने लगे कि क्या होने जा रहा है। कल्याण महाराज ने उन्हें बताया कि वे चिकित्सालय शुरू करना चाहते हैं ताकि लोगों को इलाज की सहायता मिल सके। कुछ स्थानीय लोगों ने उनकी सहायता की और उन्होंने अच्छी झोपड़ियाँ बनाई : एक बड़ी झोपड़ी रोगियों के लिये तथा एक छोटी झोपड़ी अपने लिये।
इसी समय स्वामी निरञ्जनानन्द महाराज हरिद्वार पधारे। वे एक छोटे कुटीर में निवास कर रहे थे और उन्हें ज्ञात हुआ कि कल्याण महाराज निकट ही हैं। निरञ्जनानन्द महाराज अत्यन्त शक्तिशाली थे। वे लकड़ी के भारी शहतीरों को अपने हाथों से उठाकर तब तक सुविधाजनक स्थिति में उठाये रखते जब तक उन्हें जोड़ा न जाता। इस प्रकार निरञ्जनानन्द महाराज ने महत्त्वपूर्ण कार्य करके कल्याण महाराज की सहायता की।
उस समय निरञ्जनानन्दजी शान्त जीवन बिताते हुए अपना अधिकतर समय अपने कुटीर में ध्यान में ही बिताया करते परन्तु जब-तब वे कल्याण महाराज की सहायता के लिये आया करते थे। तथा जब भी वे आते तो ऐसे कार्य स्वयं ही करते थे, किसी की प्रार्थना पर नहीं।
स्वामी निश्चयानन्दजी सन् १९०४ में कनखल पधारे। स्वामीजी की महासमाधि के पश्चात् वे परिव्राजक का जीवन बिता रहे थे तथा उनका कनखल में आना अप्रत्याशित था। उन्होंने देखा कि कल्याण महाराज को स्वयं अकेले ही सबकुछ करना पड़ता है। (निश्चयानन्दजी के आने के कुछ मास पूर्व स्वामी निरञ्जनानन्दजी का हैजे के कारण देहान्त हो चुका था।) अतः निश्चयानन्दजी ने कल्याणानन्दजी के साथ रहने का निर्णय लिया। वे भी कामकाज में अतिदृढनिश्चयी तथा जीवटवाले बलवान व्यक्ति थे तथा वे हर तरह से कल्याणानन्दजी के बहुत अच्छे सहायक बने। वे भिक्षा माँगकर स्वयं तथा कल्याणानन्द महाराज के लिए भोजन लाते थे। इसके लिये कभी कभी तो उन्हें हृषिकेश तक जाना पड़ता था |
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26