Sunday, 1 December 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 16

प्रारम्भिक दिन

कल्याणानन्दजी ने तीस एकड़ भूमि खरीदी। हरिद्वार में उन्हें उचित भूमि नहीं मिल सकी क्योंकि यह शहर पहले ही उनके भवनों से खचाखच भर चुका था और वहाँ कोई खुली जगह न थी। परन्तु हरिद्वार और कनखल के बीच गङ्गा-नहर के किनारे पेड़ों और झाड़ियों से भरी कुछ खुली जगह मिल गयी। उन्होंने उस भूखण्ड को खरीद कर झोपड़ियाँ बनानी शुरू कर दीं। लोग हैरान होने लगे कि क्या होने जा रहा है। कल्याण महाराज ने उन्हें बताया कि वे चिकित्सालय शुरू करना चाहते हैं ताकि लोगों को इलाज की सहायता मिल सके। कुछ स्थानीय लोगों ने उनकी सहायता की और उन्होंने अच्छी झोपड़ियाँ बनाई : एक बड़ी झोपड़ी रोगियों के लिये तथा एक छोटी झोपड़ी अपने लिये।

इसी समय स्वामी निरञ्जनानन्द महाराज हरिद्वार पधारे। वे एक छोटे कुटीर में निवास कर रहे थे और उन्हें ज्ञात हुआ कि कल्याण महाराज निकट ही हैं। निरञ्जनानन्द महाराज अत्यन्त शक्तिशाली थे। वे लकड़ी के भारी शहतीरों को अपने हाथों से उठाकर तब तक सुविधाजनक स्थिति में उठाये रखते जब तक उन्हें जोड़ा न जाता। इस प्रकार निरञ्जनानन्द महाराज ने महत्त्वपूर्ण कार्य करके कल्याण महाराज की सहायता की।

उस समय निरञ्जनानन्दजी शान्त जीवन बिताते हुए अपना अधिकतर समय अपने कुटीर में ध्यान में ही बिताया करते परन्तु जब-तब वे कल्याण महाराज की सहायता के लिये आया करते थे। तथा जब भी वे आते तो ऐसे कार्य स्वयं ही करते थे, किसी की प्रार्थना पर नहीं।

स्वामी निश्चयानन्दजी सन् १९०४ में कनखल पधारे। स्वामीजी की महासमाधि के पश्चात् वे परिव्राजक का जीवन बिता रहे थे तथा उनका कनखल में आना अप्रत्याशित था। उन्होंने देखा कि कल्याण महाराज को स्वयं अकेले ही सबकुछ करना पड़ता है। (निश्चयानन्दजी के आने के कुछ मास पूर्व स्वामी निरञ्जनानन्दजी का हैजे के कारण देहान्त हो चुका था।) अतः निश्चयानन्दजी ने कल्याणानन्दजी के साथ रहने का निर्णय लिया। वे भी कामकाज में अतिदृढ‌निश्चयी तथा जीवटवाले बलवान व्यक्ति थे तथा वे हर तरह से कल्याणानन्दजी के बहुत अच्छे सहायक बने। वे भिक्षा माँगकर स्वयं तथा कल्याणानन्द महाराज के लिए भोजन लाते थे। इसके लिये कभी कभी तो उन्हें हृषिकेश तक जाना पड़ता था |

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

Saturday, 30 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 15

कार्यभार-नियोजन

सन् १९०० में जब स्वामीजी ने कल्याण महाराज को संन्यास में दीक्षित किया तो उन्होंने पूछा, 'अच्छा, कल्याण, मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में देने के लिये तुम्हारे पास क्या है?' कल्याण महाराज ने कदम आगे बढाते हुए पास आकर कहा, 'यह लीजिये, मैं स्वयं को ही आपके प्रति समर्पित करता हूँ। मैं आपका दास हूँ, मुझे कोई भी आज्ञा दीजिये, मैं आदेश का पालन करूँगा।' स्वामीजी ने कहा, 'यही तो मुझे चाहिये। हरिद्वार जाओ। मैं तुम्हें कुछ धन दूँगा। कुछ जमीन खरीदो, झाड़ियाँ-जंगल साफ करके कुछ झोपड़ियाँ बनाओ। हरिद्वार जानेवाले अनेक तीर्थयात्री कष्ट पाते हुए मर जाते है क्योंकि उन्हें कोई औषधि-पथ्यादि की सहायता नहीं मिलती। और कोई उनके बारे में चिन्ता भी नहीं करता। जब मै वहाँ था तो मुझे एक डाक्टर के लिये सौ मील मेरठ जाना पड़ा। मेरठ में अस्पताल तो है परन्तु अनेकों वहाँ नहीं जा सकते। अतः इस प्रकार का कुछ निर्माण हरिद्वार में करो। यदि तुम सड़कों के किनारे लोगों को रोग से कष्ट पाते देखो तो उन्हें झोपड़ियों में लाकर उनका इलाज करना। बंगाल को मन से निकाल दो! यहाँ फिर मत आना! जाओ!' अतः कल्याण महाराज गये। स्वामी स्वरूपानन्दजी, जो उस समय मायावती में थे, तथा स्वामी विज्ञानानन्दजी को यह घटना ज्ञात हुई। स्वामी स्वरूपानन्दजी ने कुछ धन का संग्रह कर उन्हें भेजा तथा उनसे भेंट करने भी गये।

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

Tuesday, 26 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 14

मुग्धकारी एवं संसर्गज प्रशान्तता

कल्याण महाराज अविचल शान्ति में रहने वाले महापुरुष थे; वे कभी क्रोधित न होते थे तथा न ही उन्हें कोई अशान्त कर सकता था। एक बार टाइफॉइड का एक रोगी उन्मादग्रस्त था। उसने महाराज के पास आकर उन पर प्रहार किया। महाराज गिर पड़े और उनका चश्मा टूट गया। हम सब दौड़ते हुए आये और उस व्यक्ति को रोक रहे थे। महाराज ने कहा, 'कुछ मत करो, उसे बैठने दो।' वे धीरे से उठे, रोगी के पास बैठे, और अपना हाथ उस पर रखते हुए कहने लगे, 'क्या तुम अब ठीक हो?' फिर उन्होंने उसकी जाँच के लिये डाक्टरों को बुलाया। महाराज तो
एकदम शान्त और मौन थे। हम बहुत उतावले हो चुके थे परन्तु उन्होंने किसी भी प्रकार की मन की उद्विग्नता कभी प्रकट नहीं की। अपनी शान्तिपूर्ण अवस्था द्वारा उन्होंने रोगी को भी शान्त किया और धीरे धीरे अस्पताल की ओर चलने में उसकी सहायता की।

'बङ्गाल को भूल जाओ!'

निश्चय ही यह हमें उनसे सीखना होगा कि सेवा किसे कहते हैं। और उन्होंने यह सेवा-धर्म सैतीस वर्षों तक निभाया। वे कभी भी कलकत्ता वापस नहीं गये - उन्होंने वहीं रहते सेवा की। ब्रह्मानन्द महाराज ने उन्हें आने को कहा, स्वामी शिवानन्दजी ने उन्हें आने को कहा, और १९३६ में श्रीरामकृष्ण की जन्मशताब्दि के अवसर पर स्वामी अखण्डानन्द महाराज ने उन्हें आने को कहा। जब श्रीरामकृष्ण का नया मन्दिर बना तो स्वामी विज्ञानानन्दजी ने उन्हें बुलाने के लिये एक लम्बा पत्र लिखा। वे सदा ही 'न|' कहते रहे, परन्तु १९३७ में उन्होंने मुझे जाने के लिये कहा। मैंने उन्हें बताया, 'यदि आप नहीं जायेंगे तो मैं नहीं जाऊँगा। मैं यहीं रहूँगा।' मैं उन्हीं के साथ रहा। अनेक लोगों ने उनसे आने की प्रार्थना की परन्तु वे कभी नहीं गये। स्वामीजी ने उन्हें सन् १९०० में कहा था, 'बंगाल को भूल जाओ!' उन्होंने इसे याद रखा और कभी मुड़कर न गये। वे अतिनियमनिष्ठ तथा अनुशासनपरायण थे। आदर्श में वैसा धैर्यसन्तुलन वास्तव में ही कठिन हैं। अस्पताल का कार्य बहुत ही कठिन है। वे जानते थे कि इस कठिन कर्तव्य को निभाने का यही एक रास्ता है।

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