एक संन्यासी का मर्मस्पर्शी संस्मरण यहाँ उद्धृत करने योग्य है - 'एक बार मैंने विरजानन्दजी से पूछा था, "महाराज, आपका स्वास्थ्य इस समय इतना ख़राब है। आपको प्रायः ही तेज बुख़ार रहता है, तो भी आप सुबह नौ बजे से दो-ढाई बजे तक दीक्षा के लिए बैठते हैं। आपके लिए इतना श्रम करना उचित नहीं है। महापुरुष महाराज तो अपने अन्तिम दिनों में बिस्तर पर बैठे-बैठे ही एक साथ अनेक लोगों को दीक्षा दे देते थे। आप भी वैसा ही क्यों नहीं करते?" मेरी यह बात सुनकर उन्होंने हँसते हुए उत्तर दिया, "ठाकुर इस शरीर के द्वारा जितने लोगों पर जितनी भी कृपा करवाना चाहेंगे, उतना तो मुझे करना ही होगा, भाई। तो फिर मैं हड़बड़ी क्यों करूँ?"י
संघाध्यक्ष के रूप में उन्होंने कई बार भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक की यात्रा करते हुए श्रीरामकृष्ण-विवेकाननन्द के सन्देश को घर-घर तक पहुँचाया। जब भी, जहाँ भी उनका पदार्पण हुआ हर नर-नारी तथा बालक-वृद्ध आकर उन्हें घेर लेते और अपने-अपने भाव के अनुसार शान्ति तथा सांत्वना पाकर घर लौटते।
'यदि तू अपनी मुक्ति के लिए चेष्टा करेगा, तो निश्चित रूप से नरक में जाएगा; और यदि दूसरों की मुक्ति के लिए कार्य करेगा, तो तत्काल मुक्त हो जाएगा' - लगता है कि श्रीगुरु का यह आदेश विरजानन्दजी के हृदय में सर्वदा स्पन्दित होता रहता था, इसीलिए उनके जीवन में 'परोपकार-व्रत' इतने उज्ज्वल रूप से मूर्तिमान हो उठा था। इतिहास साक्षी है कि उनके नेतृत्व मे रामकृष्ण संघ का काफ़ी विस्तार हुआ।
-- कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26