Tuesday 15 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 3

वराहनगर मठ में बिताए गए एक दिन ने कालीकृष्ण के जीवन में इतनी हलचल मचा दी कि इसकी स्मृति उनके जीवन के अन्तिम दिन तक स्पष्ट रूप से जाग्रत रही।  देहत्याग के मात्र कुछ दिनों पूर्व भी उन्होंने इसी प्रकार कहा था, 'हम लोगों को वहाँ जाकर लगा कि मानो एक नई दुनिया में आ गए हैं – सब कुछ अद्भुत प्रतीत हुआ।... उन लोगों का जीवन देखकर और बातें सुनकर हमारे मन पर एक अमिट छाप पड़ गई – एक नया प्रकाश, एक नया जगत् मिला।'

कालीकृष्ण के लिए अब पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना कठिन हो गया। उन्हें संसार का कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और उनके हृदय में निरन्तर बेचैनी रहती थी। गहरी रात तक जागकर पढ़ाई-लिखाई के बजाय ध्यान-भजन करते रहते। कालीकृष्ण के जीवन में सहसा आए इस परिवर्तन को देखकर उनके माता-पिता बड़े चिन्तित हो उठे।

पिता त्रैलोक्यनाथ अपना धैर्य खो बैठे और एक दिन उन्होंने कालीकृष्ण को बुलाकर पूछा, 'मुझे बता कि तू चाहता क्या है?' कालीकृष्ण बड़े संकोची स्वभाव के थे, तथापि इस समय वे जरा भी नहीं हिचकिचाए। उन्होंने नम्र परन्तु दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, 'पढ़ाई-लिखाई में मेरी अब ज़रा भी रुचि नहीं रह गई है। अब मैं अपना अधिकांश समय ईश्वर-प्राप्ति के लिए साधना में बिताता हूँ।' पिता इस पर ज़रा भी विचलित नहीं हुए, परन्तु बोले, 'सांसारिक जीवन तथा ईश्वरप्राप्ति - दोनों एक साथ नहीं हो सकते। यदि तुम संसार में उन्नति करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना होगा; और यदि तुम ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें जी-जान लगाकर साधना करनी होगी। तुम्हें किस मार्ग पर चलना है, यह निश्चित कर लो।

अच्छी तरह सोच-समझकर निर्णय लेने के लिए मैं तुम्हें तीन दिनों का समय देता हूँ।' तीन दिनों के बाद कालीकृष्ण ने पिता को सूचित किया, 'मैंने निश्चय किया है कि मैं भगवत्प्राप्ति के लिए ही प्रयास करूँगा। मुझे लगता है कि वराहनगर मठ में जाकर परमहंसदेव के संन्यासी-शिष्यों के साथ रहने से इस मार्ग में मुझे बड़ी सहायता मिलेगी।' पुत्र के इस अद्भुत संकल्प की बात सुनकर पिता ने भी कहा, 'बड़ी अच्छी बात है। परन्तु धर्म जीवन बिताने के लिए अपनी माता की अनुमति लेना आवश्यक है। मुझे तो इस विषय में जरा भी आपत्ति नहीं है। मेरे चार पुत्रों में से एक यदि धर्म जीवन बिताए, तो यह मेरे लिए बड़े ही आनन्द की बात है।'

वराहनगर मठ में त्याग व अनासक्ति की साक्षात् प्रतिमूर्ति श्रीरामकृष्ण के शिष्यों के सान्निध्य में कालीकृष्ण का त्यागमय जीवन विकसित होने लगा। धीरे-धीरे मठ के साधारण कार्यों से लेकर ठाकुर-सेवा तक के सभी कार्यों में कालीकृष्ण स्वामी रामकृष्णानन्द के दाहिने हाथ बन गए। वे बड़ी निष्ठा के साथ साधना भी करने लगे। कभी स्वामी निरंजनानन्द के साथ, तो कभी अकेले ही वे दक्षिणेश्वर चले जाते और पंचवटी में या श्रीरामकृष्ण के कमरे में बैठकर ध्यान आदि में समय बिताते। जिस भाव के साथ वे संन्यासियों की सेवा करते, वह सदैव रामकृष्ण संघ के सदस्यों के लिए एक उदाहरण बना रहेगा। उनकी सेवा-निष्ठा पर अत्यन्त मुग्ध होकर एक दिन स्वामी सारदानन्द ने कहा था, 'यह बालक कौन है, जो माँ के समान सेवा करता है?'

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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 3

वराहनगर मठ में बिताए गए एक दिन ने कालीकृष्ण के जीवन में इतनी हलचल मचा दी कि इसकी स्मृति उनके जीवन के अन्तिम दिन तक स्पष्ट रूप से जाग्रत रही।  देहत्याग के मात्र कुछ दिनों पूर्व भी उन्होंने इसी प्रकार कहा था, 'हम लोगों को वहाँ जाकर लगा कि मानो एक नई दुनिया में आ गए हैं – सब कुछ अद्भुत प्रतीत हुआ।... उन लोगों का जीवन देखकर और बातें सुनकर हमारे मन पर एक अमिट छाप पड़ गई – एक नया प्रकाश, एक नया जगत् मिला।'

कालीकृष्ण के लिए अब पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना कठिन हो गया। उन्हें संसार का कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और उनके हृदय में निरन्तर बेचैनी रहती थी। गहरी रात तक जागकर पढ़ाई-लिखाई के बजाय ध्यान-भजन करते रहते। कालीकृष्ण के जीवन में सहसा आए इस परिवर्तन को देखकर उनके माता-पिता बड़े चिन्तित हो उठे।

पिता त्रैलोक्यनाथ अपना धैर्य खो बैठे और एक दिन उन्होंने कालीकृष्ण को बुलाकर पूछा, 'मुझे बता कि तू चाहता क्या है?' कालीकृष्ण बड़े संकोची स्वभाव के थे, तथापि इस समय वे जरा भी नहीं हिचकिचाए। उन्होंने नम्र परन्तु दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, 'पढ़ाई-लिखाई में मेरी अब ज़रा भी रुचि नहीं रह गई है। अब मैं अपना अधिकांश समय ईश्वर-प्राप्ति के लिए साधना में बिताता हूँ।' पिता इस पर ज़रा भी विचलित नहीं हुए, परन्तु बोले, 'सांसारिक जीवन तथा ईश्वरप्राप्ति - दोनों एक साथ नहीं हो सकते। यदि तुम संसार में उन्नति करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना होगा; और यदि तुम ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें जी-जान लगाकर साधना करनी होगी। तुम्हें किस मार्ग पर चलना है, यह निश्चित कर लो।

अच्छी तरह सोच-समझकर निर्णय लेने के लिए मैं तुम्हें तीन दिनों का समय देता हूँ।' तीन दिनों के बाद कालीकृष्ण ने पिता को सूचित किया, 'मैंने निश्चय किया है कि मैं भगवत्प्राप्ति के लिए ही प्रयास करूँगा। मुझे लगता है कि वराहनगर मठ में जाकर परमहंसदेव के संन्यासी-शिष्यों के साथ रहने से इस मार्ग में मुझे बड़ी सहायता मिलेगी।' पुत्र के इस अद्भुत संकल्प की बात सुनकर पिता ने भी कहा, 'बड़ी अच्छी बात है। परन्तु धर्म जीवन बिताने के लिए अपनी माता की अनुमति लेना आवश्यक है। मुझे तो इस विषय में जरा भी आपत्ति नहीं है। मेरे चार पुत्रों में से एक यदि धर्म जीवन बिताए, तो यह मेरे लिए बड़े ही आनन्द की बात है।'

वराहनगर मठ में त्याग व अनासक्ति की साक्षात् प्रतिमूर्ति श्रीरामकृष्ण के शिष्यों के सान्निध्य में कालीकृष्ण का त्यागमय जीवन विकसित होने लगा। धीरे-धीरे मठ के साधारण कार्यों से लेकर ठाकुर-सेवा तक के सभी कार्यों में कालीकृष्ण स्वामी रामकृष्णानन्द के दाहिने हाथ बन गए। वे बड़ी निष्ठा के साथ साधना भी करने लगे। कभी स्वामी निरंजनानन्द के साथ, तो कभी अकेले ही वे दक्षिणेश्वर चले जाते और पंचवटी में या श्रीरामकृष्ण के कमरे में बैठकर ध्यान आदि में समय बिताते। जिस भाव के साथ वे संन्यासियों की सेवा करते, वह सदैव रामकृष्ण संघ के सदस्यों के लिए एक उदाहरण बना रहेगा। उनकी सेवा-निष्ठा पर अत्यन्त मुग्ध होकर एक दिन स्वामी सारदानन्द ने कहा था, 'यह बालक कौन है, जो माँ के समान सेवा करता है?'

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Monday 14 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 2

संन्यासी होने के पूर्व स्वामी विरजानन्द का नाम कालीकृष्ण बोस था।

कालीकृष्ण की माता निषादकाली देवी परम भक्तिमती तथा धर्म-परायणा थी। उनकी कुछ चारित्रिक विशेषताओं ने उनके पुत्र के जीवन को गहराई से प्रभावित किया था। परवर्ती काल में पुत्र के मुख से सुना गया था, 'माँ से मेरा सर्वदा ही बड़ा लगाव था।' निषादकाली देवी का एक विशेष गुण यह था कि घर के सारे कार्य करते हुए भी उनमें अद्भुत अनासक्ति का भाव था।

इसीलिए पुत्र ने बड़े हो जाने के बाद जब उनके समक्ष संसार-त्याग की इच्छा व्यक्त की, तो उन्होंने उसे बहुत प्रोत्साहित किया। वैराग्य-पथ के यात्री पुत्र को उन्होंने पीछे खींचने की चेष्टा नहीं की। बल्कि वे बोलीं, 'मैं क्यों तुम्हारे धर्मपथ में बाधक होऊँगी, बेटा? मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं।' इस मायामय संसार में ऐसी माताएँ भला कितनी मिलेंगी? पति के देहावसान के बाद निषादकाली देवी भी गृहस्थी से पूर्ण रूप से अलग होकर वृन्दावन-धाम चली गईं और वहीं अपने जीवन के अन्तिम दिन साधन- भजन करते हुए बिताए।

कालीकृष्ण एक बड़े ही परिश्रमी छात्र थे, परन्तु उनकी शिक्षा केवल विद्यालय की चहारदीवारी तक ही सीमित न थी, उसकी परिधि में चारों ओर विस्तार होता जा रहा था। वे अति अल्पायु में ही अनेक प्रकार के हाथ के काम, शिल्पकला, रसोई, उद्यानिकी आदि में निपुण हो गए थे। परवर्ती काल में प्रसंग उठने पर वे कभी-कभी कहते 'मैं सर्वदा ही बड़ा व्यावहारिक था जब जिस कार्य को पकड़ता, उसे करके ही छोड़ता।'

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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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