Thursday 17 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 5

स्वामी तुरीयानन्द (हरि महाराज) बड़े स्नेहपूर्वक विरजानन्द को शास्त्र आदि पढ़ाया करते थे। आलमबाज़ार मठ-भवन में ऊपर चढ़ने की सीड़ी के नीचे एक कोने में बैठकर वे एकाकी शास्त्र-पाठ करते हरि महाराज सीड़ी से उतरते-चढ़ते समय उनके पास आकर बैठते और पाठ समझा देते। इन दिनों हरि महाराज के साथ उनका इतना घनिष्ठ सम्बन्ध जुड़ गया था कि उनके परवतीं जीवन पर भी इसका बहुत प्रभाव पड़ा। 

मन में इस काल की स्मृति जागने पर वे हरि महाराज के बारे में कहते, 'आलमबाज़ार मठ में आकर हरि महाराज बड़े अन्तर्मुखी भाव में रहते थे। परिव्राजक जीवन समाप्त करके वे मठ में आनेवाले थे, इसी प्रसंग में शशि महाराज ने मुझसे कहा, "देखना, वे कैसे सिद्ध महापुरुष है"। पहले में हरि महाराज से बहुत संकोच करता था, परन्तु उन्होंने अपने स्नेह से मुझे ऐसा बाँध लिया कि अब मैं उनके साथ घनिष्ठ रूप से मिलता और अपने अवकाश का सारा समय उनके साथ बातें करने में बिता देता।'

उन दिनों मठ में नियमित रूप से चर्चा, व्याख्यान, लेखों के पाठ आदि के माध्यम से शास्त्र-व्याख्या हुआ करती थी। स्वामीजी के निर्देशानुसार प्रति रविवार बारी-बारी से प्रत्येक व्यक्ति को एक-एक विषय पर समवेत साधु-मण्डली के समक्ष व्याख्यान देना अथवा प्रबन्ध-पाठ करना पड़ता था। विरजानन्द का व्याख्यान हरि महाराज को विशेष प्रिय था; उनकी पठन-शैली की वे खूब प्रशंसा किया करते थे। एक बार बलराम मन्दिर में आयोजित ऐसी ही एक गोष्ठी में बिना किसी तैयारी के विरजानन्द द्वारा दिए गए एक सुन्दर, संक्षिप्त भाषण को सुनकर स्वामीजी भी बड़े आनन्दित हुए थे।

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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

Wednesday 16 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 4

आलमबाज़ार मठ में अनुष्ठित ऐतिहासिक संन्यास-यज्ञ की स्मृति और स्वामीजी की उस दिन की अपूर्व ज्योतिर्मय मूर्ति स्वामी विरजानन्द के मानस-पटल पर सदा के लिए अंकित हो गई थी। विरजानन्दजी के ही शब्दों में - 'उनका स्वतः प्रदीप्त मुखमण्डल होमाग्नि की उज्ज्वल प्रभा से अपूर्व रूप से प्रदीप्त हो उठा। ऐसा लग रहा था मानो साक्षात् अग्नि-देवता ही नर-विग्रह धारण करके विराजमान हों। हम लोगों को संन्यास-दीक्षा देने के बाद स्वामीजी के आनन्द की सीमा न रही। गृहस्थ को पुत्र होने पर भी शायद इतना आनन्द नहीं होता होगा।'

स्वामीजी ने उस दिन चारों नवीन संन्यासियों को हृदय से आशीर्वाद देते हुए कहा था, 'तुम लोग मानव-जीवन का सर्वश्रेष्ठ व्रत ग्रहण करने को प्रस्तुत हो; धन्य है तुम्हारा जन्म, धन्य है तुम्हारा वंश और धन्य है तुम्हारी माता! कुलं पवित्रं जननी कृतार्था।' उस दिन विरजानन्द आदि की ओर इंगित करते हुए त्यागमूर्ति स्वामीजी ने कहा था, 'ये लोग ब्रह्मचर्य से दीप्त होकर ज्वलन्त अग्नि की भाँति निवास करेंगे।'

विरजानन्द के जीवन का एक नया अध्याय आरम्भ हुआ। अब स्वामीजी के चरणों में बैठकर उनकी ज्ञान-भक्ति-योग तथा कर्म के समन्वित आदर्श की शिक्षा तथा साधना शुरू हुई। इन्हीं दिनों उन्हें स्वामीजी की व्यक्तिगत सेवा करने का दुर्लभ सौभाग्य भी प्राप्त हुआ था। श्रीगुरु से 'आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च' का मंत्र पाने के कुछ समय बाद उन्हीं के आदेश पर अकाल- पीड़ितों की सेवा करने हेतु विरजानन्दजी को देवघर (वैद्यनाथ) भेजा गया। उनके संचालन में देवघर का सेवाकार्य बड़ी कुशलतापूर्वक सम्पन्न हुआ।

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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

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Tuesday 15 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 3

वराहनगर मठ में बिताए गए एक दिन ने कालीकृष्ण के जीवन में इतनी हलचल मचा दी कि इसकी स्मृति उनके जीवन के अन्तिम दिन तक स्पष्ट रूप से जाग्रत रही।  देहत्याग के मात्र कुछ दिनों पूर्व भी उन्होंने इसी प्रकार कहा था, 'हम लोगों को वहाँ जाकर लगा कि मानो एक नई दुनिया में आ गए हैं – सब कुछ अद्भुत प्रतीत हुआ।... उन लोगों का जीवन देखकर और बातें सुनकर हमारे मन पर एक अमिट छाप पड़ गई – एक नया प्रकाश, एक नया जगत् मिला।'

कालीकृष्ण के लिए अब पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना कठिन हो गया। उन्हें संसार का कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और उनके हृदय में निरन्तर बेचैनी रहती थी। गहरी रात तक जागकर पढ़ाई-लिखाई के बजाय ध्यान-भजन करते रहते। कालीकृष्ण के जीवन में सहसा आए इस परिवर्तन को देखकर उनके माता-पिता बड़े चिन्तित हो उठे।

पिता त्रैलोक्यनाथ अपना धैर्य खो बैठे और एक दिन उन्होंने कालीकृष्ण को बुलाकर पूछा, 'मुझे बता कि तू चाहता क्या है?' कालीकृष्ण बड़े संकोची स्वभाव के थे, तथापि इस समय वे जरा भी नहीं हिचकिचाए। उन्होंने नम्र परन्तु दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, 'पढ़ाई-लिखाई में मेरी अब ज़रा भी रुचि नहीं रह गई है। अब मैं अपना अधिकांश समय ईश्वर-प्राप्ति के लिए साधना में बिताता हूँ।' पिता इस पर ज़रा भी विचलित नहीं हुए, परन्तु बोले, 'सांसारिक जीवन तथा ईश्वरप्राप्ति - दोनों एक साथ नहीं हो सकते। यदि तुम संसार में उन्नति करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना होगा; और यदि तुम ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें जी-जान लगाकर साधना करनी होगी। तुम्हें किस मार्ग पर चलना है, यह निश्चित कर लो।

अच्छी तरह सोच-समझकर निर्णय लेने के लिए मैं तुम्हें तीन दिनों का समय देता हूँ।' तीन दिनों के बाद कालीकृष्ण ने पिता को सूचित किया, 'मैंने निश्चय किया है कि मैं भगवत्प्राप्ति के लिए ही प्रयास करूँगा। मुझे लगता है कि वराहनगर मठ में जाकर परमहंसदेव के संन्यासी-शिष्यों के साथ रहने से इस मार्ग में मुझे बड़ी सहायता मिलेगी।' पुत्र के इस अद्भुत संकल्प की बात सुनकर पिता ने भी कहा, 'बड़ी अच्छी बात है। परन्तु धर्म जीवन बिताने के लिए अपनी माता की अनुमति लेना आवश्यक है। मुझे तो इस विषय में जरा भी आपत्ति नहीं है। मेरे चार पुत्रों में से एक यदि धर्म जीवन बिताए, तो यह मेरे लिए बड़े ही आनन्द की बात है।'

वराहनगर मठ में त्याग व अनासक्ति की साक्षात् प्रतिमूर्ति श्रीरामकृष्ण के शिष्यों के सान्निध्य में कालीकृष्ण का त्यागमय जीवन विकसित होने लगा। धीरे-धीरे मठ के साधारण कार्यों से लेकर ठाकुर-सेवा तक के सभी कार्यों में कालीकृष्ण स्वामी रामकृष्णानन्द के दाहिने हाथ बन गए। वे बड़ी निष्ठा के साथ साधना भी करने लगे। कभी स्वामी निरंजनानन्द के साथ, तो कभी अकेले ही वे दक्षिणेश्वर चले जाते और पंचवटी में या श्रीरामकृष्ण के कमरे में बैठकर ध्यान आदि में समय बिताते। जिस भाव के साथ वे संन्यासियों की सेवा करते, वह सदैव रामकृष्ण संघ के सदस्यों के लिए एक उदाहरण बना रहेगा। उनकी सेवा-निष्ठा पर अत्यन्त मुग्ध होकर एक दिन स्वामी सारदानन्द ने कहा था, 'यह बालक कौन है, जो माँ के समान सेवा करता है?'

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