वराहनगर मठ में बिताए गए एक दिन ने कालीकृष्ण के जीवन में इतनी हलचल मचा दी कि इसकी स्मृति उनके जीवन के अन्तिम दिन तक स्पष्ट रूप से जाग्रत रही। देहत्याग के मात्र कुछ दिनों पूर्व भी उन्होंने इसी प्रकार कहा था, 'हम लोगों को वहाँ जाकर लगा कि मानो एक नई दुनिया में आ गए हैं – सब कुछ अद्भुत प्रतीत हुआ।... उन लोगों का जीवन देखकर और बातें सुनकर हमारे मन पर एक अमिट छाप पड़ गई – एक नया प्रकाश, एक नया जगत् मिला।'
कालीकृष्ण के लिए अब पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना कठिन हो गया। उन्हें संसार का कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और उनके हृदय में निरन्तर बेचैनी रहती थी। गहरी रात तक जागकर पढ़ाई-लिखाई के बजाय ध्यान-भजन करते रहते। कालीकृष्ण के जीवन में सहसा आए इस परिवर्तन को देखकर उनके माता-पिता बड़े चिन्तित हो उठे।
पिता त्रैलोक्यनाथ अपना धैर्य खो बैठे और एक दिन उन्होंने कालीकृष्ण को बुलाकर पूछा, 'मुझे बता कि तू चाहता क्या है?' कालीकृष्ण बड़े संकोची स्वभाव के थे, तथापि इस समय वे जरा भी नहीं हिचकिचाए। उन्होंने नम्र परन्तु दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, 'पढ़ाई-लिखाई में मेरी अब ज़रा भी रुचि नहीं रह गई है। अब मैं अपना अधिकांश समय ईश्वर-प्राप्ति के लिए साधना में बिताता हूँ।' पिता इस पर ज़रा भी विचलित नहीं हुए, परन्तु बोले, 'सांसारिक जीवन तथा ईश्वरप्राप्ति - दोनों एक साथ नहीं हो सकते। यदि तुम संसार में उन्नति करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना होगा; और यदि तुम ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें जी-जान लगाकर साधना करनी होगी। तुम्हें किस मार्ग पर चलना है, यह निश्चित कर लो।
अच्छी तरह सोच-समझकर निर्णय लेने के लिए मैं तुम्हें तीन दिनों का समय देता हूँ।' तीन दिनों के बाद कालीकृष्ण ने पिता को सूचित किया, 'मैंने निश्चय किया है कि मैं भगवत्प्राप्ति के लिए ही प्रयास करूँगा। मुझे लगता है कि वराहनगर मठ में जाकर परमहंसदेव के संन्यासी-शिष्यों के साथ रहने से इस मार्ग में मुझे बड़ी सहायता मिलेगी।' पुत्र के इस अद्भुत संकल्प की बात सुनकर पिता ने भी कहा, 'बड़ी अच्छी बात है। परन्तु धर्म जीवन बिताने के लिए अपनी माता की अनुमति लेना आवश्यक है। मुझे तो इस विषय में जरा भी आपत्ति नहीं है। मेरे चार पुत्रों में से एक यदि धर्म जीवन बिताए, तो यह मेरे लिए बड़े ही आनन्द की बात है।'
वराहनगर मठ में त्याग व अनासक्ति की साक्षात् प्रतिमूर्ति श्रीरामकृष्ण के शिष्यों के सान्निध्य में कालीकृष्ण का त्यागमय जीवन विकसित होने लगा। धीरे-धीरे मठ के साधारण कार्यों से लेकर ठाकुर-सेवा तक के सभी कार्यों में कालीकृष्ण स्वामी रामकृष्णानन्द के दाहिने हाथ बन गए। वे बड़ी निष्ठा के साथ साधना भी करने लगे। कभी स्वामी निरंजनानन्द के साथ, तो कभी अकेले ही वे दक्षिणेश्वर चले जाते और पंचवटी में या श्रीरामकृष्ण के कमरे में बैठकर ध्यान आदि में समय बिताते। जिस भाव के साथ वे संन्यासियों की सेवा करते, वह सदैव रामकृष्ण संघ के सदस्यों के लिए एक उदाहरण बना रहेगा। उनकी सेवा-निष्ठा पर अत्यन्त मुग्ध होकर एक दिन स्वामी सारदानन्द ने कहा था, 'यह बालक कौन है, जो माँ के समान सेवा करता है?'