Wednesday, 20 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 10

'मन्दिर तथा अस्पताल में एक समान रहो'

अस्पताल में सेवाकार्य के लिए भेजने से पहले कई बार महाराज हमें कुछ निर्देश देकर प्रेरित किया करते थे। ऐसे ही एक अवसर पर उन्होंने कहा था, 'देखो, यह मन्दिर है और वह अस्पताल है। जब तुम मन्दिर में जाते हो तो वहाँ फलों, फूलों, स्तोत्रों तथा मन्त्रों सहित जाते हो। जब तुम अस्पताल में जाते हो तो वहाँ भोजन-पथ्य, दवाइयों तथा थोड़े-से सहानुभूतिपूर्ण शब्दों सहित जाते हो। दोनों बिल्कुल एक समान हैं। तुम जो कुछ मन्दिर में करते हो और जो कुछ अस्पताल में करते हो वह एक दूसरे से भिन्त्र नहीं है।। यही स्वामी (विवेकानन्द) जी का आदर्श है। अतः, हमेशा ही ऐसी विचारशीलता का दृष्टिकोण रखो। अपना प्रत्येक व्यवहार अतिसावधानीपूर्वक निर्मल रखो। उनके प्रति स्नेही तथा करुणाशील बनो। वे सभी तुम्हारी सहायता चाहते हैं। जाओ!' इस प्रकार के छोटे छोटे उपदेश देकर वे हमें अस्पताल भेजा करते थे।

एक दिन महाराज ने मुझे बताया, 'इसे "Sick-house" (रुग्ण- शाला) के बजाय "Hospital" (अस्पताल) क्यों कहा जाता है? – इसलिये कि हमें Hospitable (सत्कारशील) होना आवश्यक है। जब लोग आते हैं तो सत्कारशीलता मुख्य बात है। इसे भूलो मत।  Patient (रोगी) क्या है? वे सभी रोगग्रस्त लोग हैं। उनसे व्यवहार करते समय तुममें Patience (धीरता) अवश्य होनी चाहिये। वे "Patient" (रोगी) कहे जाते हैं क्योंकि वे तुम्हें यह सिखाते है कि धैर्यवान कैसे बना जाए।'

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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

Tuesday, 19 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 9

प्रसन्न रहो तथा अन्यों को भी प्रसन्न रखो

कल्याण महाराज मितभाषी थे। वे शब्दों द्वारा अधिक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं देते थे - अपितु उनका जीवन ही एक महान् आदर्श था। वे जो कुछ भी करते हम उसे बहुत ही ध्यानपूर्वका देखते थे। वे अत्यन्त सतर्क, अत्यन्त समर्पित थे और यद्यपि वे अधिक नहीं बोलते थे परन्तु उनके शब्द अतिप्रासंगिक होते थे। एक दिन बहुत सुबह कुछ ब्रह्मचारीगण अस्पताल की डिस्पेंसरी की ओर जा रहे थे, महाराज ने देखा कि उनमें एक का मुख थोड़ा निराश-सा था।

 उन्होंने उन ब्रह्मचारी महाराज से पूछा, 'तुम ऐसे क्यों दिख रहे हो? क्या तुमने नाश्ता किया? तुम्हारी नींद अच्छी हुई थी? परन्तु ब्रह्मचारीजी तब भी थोड़े अस्तव्यस्त थे। महाराज ने कहा, 'तुम अस्पताल में सेवा के लिये जा रहे हो। रोगी तो पहले से ही बीमार है। यदि तुम स्वयं ही इतने निराश हो तो रोगियों को क्या आशा बँधाओगे? ऐसा लटका- सा चेहरा लेकर उनके पास मत जाओ। तुम्हें उन्हें प्रसन्न करना होगा! मन्दिर में जाकर श्रीरामकृष्ण से प्रार्थना करो और फिर प्रसन्नमुख और प्रफुल्लित मुख होकर डिस्पेन्सरी में जाओ। तुम्हें उन्हें प्रेरणा देनी चाहिये, उनकी सहायता करनी चाहिए, कुछ सहानुभूतिपूर्ण शब्द बोलने चाहिएँ और उन्हें प्रसन्न करना चाहिए। यदि तुम स्वयं ही उदास और रोगग्रस्त अस्वस्थ हो तो उन्हें क्या प्रेरणा दोगे?' यदि कोई निराशाजनक मुख लेकर अस्पताल में जाता तो वे कभी पसन्द नहीं करते थे। वे हमें बताया करते, 'तुम सभी यहाँ आनन्द के लिये हो। प्रसन्न हो और वहाँ जाकर उन्हें भी प्रसन्न करो। यह सब से जरुरी बात है। वे तो क्लेशों के मारे रोगी लोग हैं और तुम सभी वहाँ बीमार-सा मुँह लेकर जाते हो!'

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)
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सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

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Monday, 11 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 8

'प्रसन्न रहो तथा अन्यों को भी प्रसन्न रखो'
कल्याण महाराज मितभाषी थे। वे शब्दों द्वारा अधिक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं देते थे – अपितु उनका जीवन ही एक महान् आदर्श था। वे जो कुछ जाते हो तो वहाँ फलों, फूलों, स्तोत्रों तथा मन्त्रों सहित जाते हो। जब तुम अस्पताल में जाते हो तो वहाँ भोजन-पथ्य, दवाइयों तथा बोड़े-से सहानुभूतिपूर्ण शब्दों सहित जाते हो। दोनों बिल्कुल एक समान हैं। तुम जो कुछ मन्दिर में करते हो और जो कुछ अस्पताल में करते हो वह एक दूसरे से भिन्त्र नहीं है।। यही स्वामी (विवेकानन्द) जी का आदर्श है। अतः, हमेशा ही ऐसी विचारशीलता का दृष्टिकोण रखो। अपना प्रत्येक व्यवहार अतिसावधानीपूर्वक निर्मल रखो। उनके प्रति स्नेही तथा करुणाशील बनो। वे सभी तुम्हारी सहायता चाहते हैं। जाओ!' इस प्रकार के छोटे छोटे उपदेश देकर वे हमें अस्पताल भेजा करते थे।

एक दिन महाराज ने मुझे बताया, 'इसे "Sick-house" (रुग्ण- शाला) के बजाय "Hospital" (अस्पताल) क्यों कहा जाता है? – इसलिये कि हमें Hospitable (सत्कारशील) होना आवश्यक है। जब लोग आते हैं तो सत्कारशीलता मुख्य बात है। इसे भूलो मत। और "Patient" (रोगी)? Patient (रोगी) क्या है? वे सभी रोगग्रस्त लोग हैं। उनसे व्यवहार करते समय तुममें Patience (धीरता) अवश्य होनी चाहिये। वे "Patient" (रोगी) कहे जाते हैं क्योंकि वे तुम्हें यह सिखाते है कि Patient (धैर्यवान) कैसे बना जाए।'

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)

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