१८५७ में सम्पूर्ण भारतवर्ष में क्रान्तिकारी गतिविधियां तीव्र गति से चल रही थी इसी दौरान महाराष्ट्र के चान्दागढ़ (चंद्रपुर) में एक महान क्रान्तिकारी व वनवासी योद्धा बाबुराव शेडमाके का उदय होता है। उनका जन्म १२ मार्च, १८३३ को अहेरी के जमीनदार श्रीमन्त पुल्लसुर (पूलेस्वर) शेडमाके के घर हुआ। उनकी माता का नाम जुरजायाल था। उनका शारीरिक व सैनिक शिक्षण तीन वर्ष की अल्पायु में ही प्रारम्भ हो जाता है। ग्राम गोटूल में उन्हें शिक्षा के लिए भेजा जाता है, जहाँ बाबुराव मलयुद्ध, तीर-कमान, तलवार, भाला चलाना व अन्य शस्त्र चलाना सीखते हैं। उनका शिक्षण ब्रिटिश एज्यूकेशन सेंट्रल इंग्लिश मीडियम, रायपुर में होता है। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात वे अपने जमींदारी मोलमपल्ली आते हैं जहाँ वे सामाजिक नीति-मूल्यों को भी सीखते और समझते हैं। अपनी जमींदारी के लोगों से सम्पर्क करने पर उन्हें राज्य की प्रत्यक्ष स्थिति व अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के बारे में जानकारी मिलती है। वे एक राजपरिवार के सदस्य थे तथापि उनके मन में अपनी प्रजा व देशवासियों के प्रति सेवा व समर्पण की भावना कूट-कूटकर भरी थी।
१८ दिसम्बर, १८५४ को अंग्रेज सरकार द्वारा आर.एस.एलीज को चांदागढ़ का जिलाधिकारी नियुक्त किया गया। जिलाधिकारी बनने के बाद एलीज ने चांदागढ़ के नगरवासियों, आस-पास के गांवों के ग्रामवासियों तथा विशेषकर चांदागढ़ से लगे हुए वन क्षेत्र के वनवासी बंधुओं पर अत्याचार तीव्र गति से बढ़ा दिए।
वनवासी बंधुओं के खेत व वन को ब्रिटिश सरकार जबरन अपने नियंत्रण में लेने लगी तथा वन परिक्षेत्र में व्याप्त खनिज संसाधनों का दोहन करने लगी। इसके साथ ही वनवासी बंधुओं की संस्कृति व परम्परा को नष्ट करने के लिए हर प्रकार के प्रयत्न करने लगी एवं वनवासी बंधुओं को बलपूर्वक ईसाई मत में मतान्तरित करने लगी।
यह सब अत्याचार देखकर क्रान्तिसूर्य बाबुराव शेडमाके को बहुत बुरा लगा। अपनी मातृभूमि को अंग्रेज व उनके अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए संकल्प लेते हुए उन्होंने अपने वनवासी बंधुओं के साथ २४ सितम्बर, १८५७ को जंगोम सेना की स्थापना की। उन्होंने अड़पल्ली, मोलपल्ली, घोट व आपपास की जमीनदारी के ५०० वनवासी व रोहिलों की एक सेना बनाई, उन्हें विधिवत प्रशिक्षण दिया और फिर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। क्रान्तिसूर्य बाबुराव शेडमाके ने ७ मार्च, १८५८ को अंग्रेजों से युद्ध कर चांदागढ़ से लगे राजगढ़ को जीत लिया। राजगढ़ की सुरक्षा में अंग्रेजों की ओर से नियुक्त जमीनदार रामजी गेडाम इस युद्ध में मारा गया।
राजगढ़ में हुई पराजय से अंग्रेज अधिकारी डब्ल्यू. एच. क्रिक्टन अत्यन्त क्रोधित होकर १३ मार्च, १८५८ को बाबुराव शेडमाके की सेना पर आक्रमण कर दिया। राजगढ़ से चार किलोमीटर दूर नन्दगांव घोसरी में हुए इस युद्ध में बाबुराव शेडमाके की विजय हुई।
मातृभूमि की स्वतंत्रता हेतु वीरतापूर्वक कार्यरत बाबुराव शेडमाके के कार्यों को देखकर अड़पल्ली व घोट के जमीनदार श्री व्यंकटराव राजेश्वर राजगोंड भी बाबुराव शेडमाके की सेना में शामिल हो गए और वे उनके एक विश्वस्थ सहयोगी बन गए, इस प्रकार बाबुराव की शक्ति में भी वृद्धि हुई।
बाबुराव शेडमाके अत्यन्त सतर्कतापूर्वक कार्य कर रहे थे, उन्हें यह अनुमान था कि अंग्रेज उनका पीछा अवश्य करेंगे इसलिए वे गढ़िचुर्ला के पहाड़ पर अपने साथियों सहित पूरी तैयारी के साथ रुक गए। अंग्रेज सेना चारों ओर से गढ़िचुर्ला के पहाड़ को घेर कर अंधाधुंध फाइरिंग शुरू कर दी। बाबुराव व उनकी सतर्क व पराक्रमी जंगोम सेना ने पहाड़ के ऊपर से पत्थर बरसाने शुरू कर दिए, अंग्रेजों की गोलियां समाप्त हो गई किन्तु उनके ऊपर हो रही पत्थरों की बारिश नहीं रुकी। अनेक अंग्रेज सैनिक घायल हो गए और डरकर भाग गए। बाबुराव ने यह युद्ध भी जीत लिया तथा उन्होंने वहाँ के धान का कोठार जनसामान्य के लिए खोल दिया।
बाबुराव और व्यंकटराव को परास्त करने के लिए डब्ल्यू. एच. क्रिक्टन पुनः ब्रिटिश सेना को बाबुराव से युद्ध करने के लिए भेज देता है। इस बार १९ अप्रैल, १९५८ को सगणापुर में युद्ध हुआ और इस युद्ध में भी ब्रिटिश बुरी तरह हार गए। एक के बाद एक पराजय के कारण ब्रिटिश व उनके सैनिक बहुत निराश हो गए। ब्रिटिश सरकार किसी भी प्रकार से बाबुराव को रोक पाने में विफल ही हो रही थी।
इसके पश्चात बाबुराव अहेरी जमीनदारी के अंतर्गत आनेवाले चिचगुड़ी को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए चिचगुड़ी जाकर अंग्रेजों की छावनी पर आक्रमण किया। इस युद्ध में दो अंग्रेज मारे गए और कई घायल हो गए। ब्रिटिश इस युद्ध में बुरी तरह हारकर भाग गए। वहाँ से भागा हुआ एक अंग्रेज पीटर, अंग्रेज अधिकारी डब्ल्यू. एच. क्रिक्टन के पास जाकर चिचगुड़ी में हुई अपनी पराजय की जानकारी देता है। सम्पूर्ण ब्रिटिश सरकार बाबुराव की जंगोम सेना से बुरी तरह घबरा गई। चिचगुड़ी में हुई अपनी पराजय की जानकारी मिलने पर इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया ने नागपुर के कैप्टन शेक्सपियर को नियुक्त किया और यह आदेश दिया कि किसी भी परिस्थिति में बाबुराव को पकड़ ले या उसे मार डाले।
अतः अनेक बार प्रयत्न करके भी अंग्रेज बाबुराव को पकड़ने में विफल हो रहे थे इसलिए उन्होंने बाबुराव की बूआ श्रीमती लक्ष्मीबाई, जो कि अहेरी की जमीनदार भी थी,- को यह लालच दिया कि यदि वह बाबुराव को पकड़वाने में हमारी मदद करेगी तो उसे ९१ गांवों (२४ गांव बाबुराव की जमीनदारी के व ६७ गांव व्यंकटराव की जमीनदारी के) की जमीनदारी दी जाएगी और यदि लक्ष्मीबाई ऐसा नहीं करेगी तो उन्होंने लक्ष्मीबाई को यह धमकी दी कि तुम्हें बंदी बना लेंगे और तुम्हारी जमीनदारी भी समाप्त कर दी जाएगी।
लक्ष्मीबाई लालच में आ गई, अंग्रेजों से मिल गई। वह बाबुराव की गतिविधियों की जानकारी अंग्रेजों को देने लगी। एकबार बाबुराव अपने साथियों के साथ घोट गांव में पेरसापेन पुजा में आए हुए थे। लक्ष्मीबाई द्वारा यह सूचना मिलने पर अंग्रेज सेना उन्हें पकड़ने वहाँ पहुँच गई। युद्ध हुआ और उसमें अंग्रेज सेना हार गई, बाबुराव वहाँ से सुरक्षित निकल गए।
इस युद्ध के बाद बाबुराव की कठिनाइयाँ बढ़ गई क्योंकि घोट गांव में, अचानक हुए युद्ध में बाबुराव के कई सैनिक बंधु मारे गए। आम लोग भी चपेट में आ गए। बाबुराव के आंदोलन में अड़चनें आने लगीं। उनकी तथा उनके साथियों की भूमि, जमीनदारी अंग्रेजों ने जप्त कर ली। इसके पश्चात व्यंकटराव जंगल में छिपकर भूमिगत हो गए। व्यंकटराव जंगल में छिप जाने से जंगोम सेना बिखरने लगी और बाबुराव अकेले पड़ गए।
बाबुराव अकेले पड़ गए हैं तथा वे अभी भोपालपटनम् में रुके हैं, यह खबर लक्ष्मीबाई को मिलने पर उसने रोहिलो की सेना को भोपालपटनम् भेज दिया। आधी रात में सोते हुए बाबुराव को रोहिलो ने पकड़ लिया किन्तु सही समय देखकर बाबुराव वहाँ से चुपके से भाग निकले। घोट और भोपालपटनम् में बाबुराव को पकड़ पाना सम्भव नहीं होने से नागपुर का केप्टन शेक्सपियर झल्ला गया। उसने लक्ष्मीबाई को कहा कि वह बाबुराव को षडयंत्रपूर्वक पकड़वाने में मदद करें। जब बाबुराव अहेरी आ गए तो यह जानकारी लक्ष्मीबाई को मिलने पर उसने बाबुराव को भोजन पर आमंत्रित किया। बाबुराव को लक्ष्मीबाई व अंग्रेजों की मिली-भगत, षड्यन्त्र की जानकारी नहीं थी। बाबुराव भोजन के लिए लक्ष्मीबाई के घर पहुँचे। बाबुराव, लक्ष्मीबाई के घर आ चुके हैं, यह खबर अंग्रेजों को मिलते ही उन्होंने लक्ष्मीबाई के घर को घेर लिया और भोजन करते बाबुराव को पकड़ लिया। उस समय बाबुराव के साथ न सैनिक साथी थे और न ही हथियार।
जिन हथियार को साथ लेकर बाबुराव हमेशा चलते थे, उन हथियारों को लक्ष्मीबाई ने अपने घर आने पर बाबुराव के भोजन करने के बहाने पहले ही अलग रखवा दिया था। जब अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें पकड़ा तो प्रतिकार करते हुए पानी पीने के लोटे से कई अंग्रेजों को घायल कर दिया, जिसमें एक की मृत्यु भी हो गई।
"बाबुराव पकड़े गए हैं" यह जानकारी व्यंकटराव को मिलने पर वे बस्तर चले गए। अंग्रेज सैनिक गार्डलर व हाल की हत्या करने, अंग्रेज सरकार के विरुद्ध क्रान्तिकारी गतिविधियां करने व अंग्रेजों से युद्ध करने के आरोप में क्रिक्टन की अदालत ने बाबुराव को फांसी व उनके साथियों को १४ वर्ष के कारावास का दंड सुनाया।
२१ अक्टूबर, १८५८ को चांदागढ़ राजमहल में पीपल के पेड़ पर उन्हें फांसी देने के लिए ले जाया गया। उन्हें फांसी पर लटकाया गया परन्तु फांसी की रस्सी खुल गई। नियमों के अनुसार, अब उन्हें पुनः फांसी देना अनुचित व गलत था, किन्तु अंग्रेजों ने नियमों के विरुद्ध जाकर उन्हें पुनः फांसी दी। किन्तु दूसरी व तीसरी बार भी वे फांसी के फंदे से जीवित नीचे गिर पड़े। इस बार क्रूर व दुष्ट अंग्रेज क्रिक्टन व शेक्सपियर ने चौथी बार उन्हें फांसी दी। चौथी बार में उनकी मृत्यु हो गई।
फांसी के पश्चात वीर बाबुराव की मृत्यु की पुष्टि होने जाने के बाद भी डरपोक दुष्ट अंग्रेजों ने बाबुराव के पार्थिक शरीर को खौलती चुना भट्टी में डाल दिया। बाबुराव हुतात्मा हो जाने के २ वर्ष पश्चात व्यंक्टराव को भी अंग्रेजों ने पकड़ लिया तथा ३० मई, १८६० को उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इस प्रकार मातृभूमि की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्योछावर करते हुए वीर बाबुराव २५ वर्ष की अल्पायु में ही बलिदान हो गए। उनके शौर्य व साहस के स्मरण में भारत सरकार ने १२ मार्च, २००७ को उनकी जयन्ती पर उनके नाम का डाक टिकट जारी किया है।
१८ दिसम्बर, १८५४ को अंग्रेज सरकार द्वारा आर.एस.एलीज को चांदागढ़ का जिलाधिकारी नियुक्त किया गया। जिलाधिकारी बनने के बाद एलीज ने चांदागढ़ के नगरवासियों, आस-पास के गांवों के ग्रामवासियों तथा विशेषकर चांदागढ़ से लगे हुए वन क्षेत्र के वनवासी बंधुओं पर अत्याचार तीव्र गति से बढ़ा दिए।
वनवासी बंधुओं के खेत व वन को ब्रिटिश सरकार जबरन अपने नियंत्रण में लेने लगी तथा वन परिक्षेत्र में व्याप्त खनिज संसाधनों का दोहन करने लगी। इसके साथ ही वनवासी बंधुओं की संस्कृति व परम्परा को नष्ट करने के लिए हर प्रकार के प्रयत्न करने लगी एवं वनवासी बंधुओं को बलपूर्वक ईसाई मत में मतान्तरित करने लगी।
यह सब अत्याचार देखकर क्रान्तिसूर्य बाबुराव शेडमाके को बहुत बुरा लगा। अपनी मातृभूमि को अंग्रेज व उनके अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए संकल्प लेते हुए उन्होंने अपने वनवासी बंधुओं के साथ २४ सितम्बर, १८५७ को जंगोम सेना की स्थापना की। उन्होंने अड़पल्ली, मोलपल्ली, घोट व आपपास की जमीनदारी के ५०० वनवासी व रोहिलों की एक सेना बनाई, उन्हें विधिवत प्रशिक्षण दिया और फिर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। क्रान्तिसूर्य बाबुराव शेडमाके ने ७ मार्च, १८५८ को अंग्रेजों से युद्ध कर चांदागढ़ से लगे राजगढ़ को जीत लिया। राजगढ़ की सुरक्षा में अंग्रेजों की ओर से नियुक्त जमीनदार रामजी गेडाम इस युद्ध में मारा गया।
राजगढ़ में हुई पराजय से अंग्रेज अधिकारी डब्ल्यू. एच. क्रिक्टन अत्यन्त क्रोधित होकर १३ मार्च, १८५८ को बाबुराव शेडमाके की सेना पर आक्रमण कर दिया। राजगढ़ से चार किलोमीटर दूर नन्दगांव घोसरी में हुए इस युद्ध में बाबुराव शेडमाके की विजय हुई।
मातृभूमि की स्वतंत्रता हेतु वीरतापूर्वक कार्यरत बाबुराव शेडमाके के कार्यों को देखकर अड़पल्ली व घोट के जमीनदार श्री व्यंकटराव राजेश्वर राजगोंड भी बाबुराव शेडमाके की सेना में शामिल हो गए और वे उनके एक विश्वस्थ सहयोगी बन गए, इस प्रकार बाबुराव की शक्ति में भी वृद्धि हुई।
बाबुराव शेडमाके अत्यन्त सतर्कतापूर्वक कार्य कर रहे थे, उन्हें यह अनुमान था कि अंग्रेज उनका पीछा अवश्य करेंगे इसलिए वे गढ़िचुर्ला के पहाड़ पर अपने साथियों सहित पूरी तैयारी के साथ रुक गए। अंग्रेज सेना चारों ओर से गढ़िचुर्ला के पहाड़ को घेर कर अंधाधुंध फाइरिंग शुरू कर दी। बाबुराव व उनकी सतर्क व पराक्रमी जंगोम सेना ने पहाड़ के ऊपर से पत्थर बरसाने शुरू कर दिए, अंग्रेजों की गोलियां समाप्त हो गई किन्तु उनके ऊपर हो रही पत्थरों की बारिश नहीं रुकी। अनेक अंग्रेज सैनिक घायल हो गए और डरकर भाग गए। बाबुराव ने यह युद्ध भी जीत लिया तथा उन्होंने वहाँ के धान का कोठार जनसामान्य के लिए खोल दिया।
बाबुराव और व्यंकटराव को परास्त करने के लिए डब्ल्यू. एच. क्रिक्टन पुनः ब्रिटिश सेना को बाबुराव से युद्ध करने के लिए भेज देता है। इस बार १९ अप्रैल, १९५८ को सगणापुर में युद्ध हुआ और इस युद्ध में भी ब्रिटिश बुरी तरह हार गए। एक के बाद एक पराजय के कारण ब्रिटिश व उनके सैनिक बहुत निराश हो गए। ब्रिटिश सरकार किसी भी प्रकार से बाबुराव को रोक पाने में विफल ही हो रही थी।
इसके पश्चात बाबुराव अहेरी जमीनदारी के अंतर्गत आनेवाले चिचगुड़ी को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए चिचगुड़ी जाकर अंग्रेजों की छावनी पर आक्रमण किया। इस युद्ध में दो अंग्रेज मारे गए और कई घायल हो गए। ब्रिटिश इस युद्ध में बुरी तरह हारकर भाग गए। वहाँ से भागा हुआ एक अंग्रेज पीटर, अंग्रेज अधिकारी डब्ल्यू. एच. क्रिक्टन के पास जाकर चिचगुड़ी में हुई अपनी पराजय की जानकारी देता है। सम्पूर्ण ब्रिटिश सरकार बाबुराव की जंगोम सेना से बुरी तरह घबरा गई। चिचगुड़ी में हुई अपनी पराजय की जानकारी मिलने पर इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया ने नागपुर के कैप्टन शेक्सपियर को नियुक्त किया और यह आदेश दिया कि किसी भी परिस्थिति में बाबुराव को पकड़ ले या उसे मार डाले।
अतः अनेक बार प्रयत्न करके भी अंग्रेज बाबुराव को पकड़ने में विफल हो रहे थे इसलिए उन्होंने बाबुराव की बूआ श्रीमती लक्ष्मीबाई, जो कि अहेरी की जमीनदार भी थी,- को यह लालच दिया कि यदि वह बाबुराव को पकड़वाने में हमारी मदद करेगी तो उसे ९१ गांवों (२४ गांव बाबुराव की जमीनदारी के व ६७ गांव व्यंकटराव की जमीनदारी के) की जमीनदारी दी जाएगी और यदि लक्ष्मीबाई ऐसा नहीं करेगी तो उन्होंने लक्ष्मीबाई को यह धमकी दी कि तुम्हें बंदी बना लेंगे और तुम्हारी जमीनदारी भी समाप्त कर दी जाएगी।
लक्ष्मीबाई लालच में आ गई, अंग्रेजों से मिल गई। वह बाबुराव की गतिविधियों की जानकारी अंग्रेजों को देने लगी। एकबार बाबुराव अपने साथियों के साथ घोट गांव में पेरसापेन पुजा में आए हुए थे। लक्ष्मीबाई द्वारा यह सूचना मिलने पर अंग्रेज सेना उन्हें पकड़ने वहाँ पहुँच गई। युद्ध हुआ और उसमें अंग्रेज सेना हार गई, बाबुराव वहाँ से सुरक्षित निकल गए।
इस युद्ध के बाद बाबुराव की कठिनाइयाँ बढ़ गई क्योंकि घोट गांव में, अचानक हुए युद्ध में बाबुराव के कई सैनिक बंधु मारे गए। आम लोग भी चपेट में आ गए। बाबुराव के आंदोलन में अड़चनें आने लगीं। उनकी तथा उनके साथियों की भूमि, जमीनदारी अंग्रेजों ने जप्त कर ली। इसके पश्चात व्यंकटराव जंगल में छिपकर भूमिगत हो गए। व्यंकटराव जंगल में छिप जाने से जंगोम सेना बिखरने लगी और बाबुराव अकेले पड़ गए।
बाबुराव अकेले पड़ गए हैं तथा वे अभी भोपालपटनम् में रुके हैं, यह खबर लक्ष्मीबाई को मिलने पर उसने रोहिलो की सेना को भोपालपटनम् भेज दिया। आधी रात में सोते हुए बाबुराव को रोहिलो ने पकड़ लिया किन्तु सही समय देखकर बाबुराव वहाँ से चुपके से भाग निकले। घोट और भोपालपटनम् में बाबुराव को पकड़ पाना सम्भव नहीं होने से नागपुर का केप्टन शेक्सपियर झल्ला गया। उसने लक्ष्मीबाई को कहा कि वह बाबुराव को षडयंत्रपूर्वक पकड़वाने में मदद करें। जब बाबुराव अहेरी आ गए तो यह जानकारी लक्ष्मीबाई को मिलने पर उसने बाबुराव को भोजन पर आमंत्रित किया। बाबुराव को लक्ष्मीबाई व अंग्रेजों की मिली-भगत, षड्यन्त्र की जानकारी नहीं थी। बाबुराव भोजन के लिए लक्ष्मीबाई के घर पहुँचे। बाबुराव, लक्ष्मीबाई के घर आ चुके हैं, यह खबर अंग्रेजों को मिलते ही उन्होंने लक्ष्मीबाई के घर को घेर लिया और भोजन करते बाबुराव को पकड़ लिया। उस समय बाबुराव के साथ न सैनिक साथी थे और न ही हथियार।
जिन हथियार को साथ लेकर बाबुराव हमेशा चलते थे, उन हथियारों को लक्ष्मीबाई ने अपने घर आने पर बाबुराव के भोजन करने के बहाने पहले ही अलग रखवा दिया था। जब अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें पकड़ा तो प्रतिकार करते हुए पानी पीने के लोटे से कई अंग्रेजों को घायल कर दिया, जिसमें एक की मृत्यु भी हो गई।
"बाबुराव पकड़े गए हैं" यह जानकारी व्यंकटराव को मिलने पर वे बस्तर चले गए। अंग्रेज सैनिक गार्डलर व हाल की हत्या करने, अंग्रेज सरकार के विरुद्ध क्रान्तिकारी गतिविधियां करने व अंग्रेजों से युद्ध करने के आरोप में क्रिक्टन की अदालत ने बाबुराव को फांसी व उनके साथियों को १४ वर्ष के कारावास का दंड सुनाया।
२१ अक्टूबर, १८५८ को चांदागढ़ राजमहल में पीपल के पेड़ पर उन्हें फांसी देने के लिए ले जाया गया। उन्हें फांसी पर लटकाया गया परन्तु फांसी की रस्सी खुल गई। नियमों के अनुसार, अब उन्हें पुनः फांसी देना अनुचित व गलत था, किन्तु अंग्रेजों ने नियमों के विरुद्ध जाकर उन्हें पुनः फांसी दी। किन्तु दूसरी व तीसरी बार भी वे फांसी के फंदे से जीवित नीचे गिर पड़े। इस बार क्रूर व दुष्ट अंग्रेज क्रिक्टन व शेक्सपियर ने चौथी बार उन्हें फांसी दी। चौथी बार में उनकी मृत्यु हो गई।
फांसी के पश्चात वीर बाबुराव की मृत्यु की पुष्टि होने जाने के बाद भी डरपोक दुष्ट अंग्रेजों ने बाबुराव के पार्थिक शरीर को खौलती चुना भट्टी में डाल दिया। बाबुराव हुतात्मा हो जाने के २ वर्ष पश्चात व्यंक्टराव को भी अंग्रेजों ने पकड़ लिया तथा ३० मई, १८६० को उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इस प्रकार मातृभूमि की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्योछावर करते हुए वीर बाबुराव २५ वर्ष की अल्पायु में ही बलिदान हो गए। उनके शौर्य व साहस के स्मरण में भारत सरकार ने १२ मार्च, २००७ को उनकी जयन्ती पर उनके नाम का डाक टिकट जारी किया है।
ऐसे महान क्रान्तिकारी, भारत माँ के साहसी सपूत, धर्म के रक्षक क्रान्तिसूर्य बाबुराव शेडमाके का समर्पित जीवन हमारे लिए प्रेरणादायी है। हमें धर्म व राष्ट्र की रक्षा तथा सेवा करने के लिए वीर बाबुराव के समान संकल्पबद्ध होकर, निर्भयता तथा समर्पणपूर्वक दिन–रात कार्य करना चाहिए।
- धर्मेन्द्र पंवार
जीवनव्रती कार्यकर्ता,
विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी
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The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji
विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी (Vivekananda Kendra Kanyakumari) Vivekananda Rock Memorial & Vivekananda Kendra : http://www.vivekanandakendra.org Read Article, Magazine, Book @ http://eshop.vivekanandakendra.org/e-granthalaya Cell : +91-941-801-5995, Landline : +91-177-283-5995 | |
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