70 वर्ष तक अथक परिश्रम। 23 वर्ष की आयु में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बनने के बाद 93 वर्ष की आयु तक श्री परमेश्वरनजी ने अथक रूप से पूरे समर्पण के साथ देश के लिए कार्य किया। उनका कार्य बहुआयामी था, लेकिन उद्देश्य एक ही था, हमारी भारत माता, इस महान मातृभूमि का कायाकल्प। सामान्य तौर पर, बुद्धिजीवी कार्य को अधिक महत्त्व नहीं देते हैं। लेकिन माननीय परमेश्वरनजी के साथ ऐसा नहीं था। उन्होंने कार्य को विचार से जोड़ा। उन्होंने न केवल इसे अपने जीवन में उतारा, बल्कि यह भी प्रयत्न किया कि दूसरों के जीवन में भी यह प्रतिबिंबित हो। उन्होंने लगातार राष्ट्र विरोधी विचारों से संघर्ष किया, कुछ दृष्टिकोणों और विचारधाराओं की कमियों को उजागर किया, और हिन्दू दर्शन की प्रभावी व्याख्या की। कई अन्य बुद्धिजीवियों के विपरीत, उनके पास समाज के लिए प्रतिबद्धता और करुणा थी। वे अपनी दिनचर्या में स्वयं के साथ सख्त तो देश की सभी घटनाओं के प्रति सतर्क थे। इस प्रकार, वे प्रवासी कार्यकर्ताओं के लिए एक आदर्श थे।
विवेकानन्द केन्द्र के साथ जुड़ाव माननीय परमेश्वरनजी के लिए पूजा के समान था। एक बार माननीय एकनाथजी के निकट सहयोगी, कोलकाता के डॉ. सुधीर धर ने मुझे बताया कि एक बार चर्चा के दौरान एकनाथजी ने उल्लेख किया था कि विवेकानन्द केन्द्र को एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है जिसने श्री अरबिंदो के साथ-साथ स्वामी विवेकानन्द का भी अध्ययन किया हो। एकनाथजी की यह तीव्र इच्छा तब पूरी हुई, जब 1984 में परमेश्वरनजी विवेकानन्द केन्द्र के उपाध्यक्ष और बाद में 1995 में अध्यक्ष बने। परमेश्वरनजी श्री अरबिंदो और स्वामी विवेकानन्द के विचार के गहन अध्येता थे। उन्होंने विवेकानन्द केन्द्र की बौद्धिक गतिविधियों को श्री अरविंदो और स्वामी विवेकानन्द के विचारों के प्रकाश में निर्देशित किया।
पिछले दो-तीन सौ वर्षों में ईसाई मिशनरी शिक्षा के कारण भारतीय बौद्धिकता ब्रिटिशपरस्त और विकृत हो गई है। इस प्रकार भारतीयों ने भारत की आत्मा को जीवन्त रूप से व्यक्त करने की क्षमता खोने के साथ ही चुनौतियों का उत्तर देने के लिए एक समाज के रूप में ऊपर उठने की क्षमता भी खो दी है। दुर्भाग्य से, हम उनके विभाजनकारी विचारों के शिकार हुए हैं। हमारे देश की सुंदर विविधता की व्याख्या अलगाववाद के रूप में हुई। गर्व के साथ अपनी विविधता को बताने, उसे स्वयं स्वीकार कर उसे आदर्श के रूप में अपनाने के लिए दुनिया का मार्गदर्शन करने के स्थान पर हम आपस में लड़ रहे हैं। परिणामस्वरूप मानवता का छठवां हिस्सा होने के बावजूद भारतीय विचार का वैश्विक चर्चा में कोई स्थान ही नहीं हैं। यदि विचार विकृत है तो कार्य प्रभावित होता है।
इसलिए माननीय एकनाथजी ने विवेकानन्द केन्द्र की परिकल्पना एक वैचारिक आंदोलन के रूप में की थी। उनके द्वारा परिकल्पित कार्य की सीमा बहुत व्यापक थी - उत्तर-पूर्व की जनजातियाँ इतनी विविधतापूर्ण है कि वे वैश्विक स्तर पर हिन्दू विचार का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं। विवेकानन्द केन्द्र सांस्कृतिक संस्थान की स्थापना उत्तर-पूर्वांचल में समुदायों की संस्कृति और परम्परा के अध्ययन, संरक्षण और उनके सतत विकास के लिए रोड मैप तैयार करने के लिए की गई थी। एकनाथजी द्वारा परिकल्पित विवेकानन्द केन्द्र, स्वामी विवेकानन्द के कार्य को अंतर्राष्ट्रीय रूप से जारी रखने के लिए था, जो हिन्दू विचार को वैश्विक चर्चा का विषय बना रहा है। एकनाथजी को बहुत कम समय मिला। लेकिन उन्होंने बीज रूप में जो बोया, माननीय परमेश्वरनजी ने उन सभी गतिविधियों का मार्गदर्शन किया, चाहे वह उत्तर-पूर्व में वनवासी क्षेत्र के लिए काम हो या विवेकानन्द इंटरनेशनल फाउंडेशन का कार्य। उन्होंने उस कार्य में शामिल सभी लोगों को विचार करने और काम करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की।
मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे 1984 से माननीय परमेश्वरनजी को जानने और उनका मार्गदर्शन प्राप्त करने का अवसर मिला। उनके व्याख्यान हमेशा विचार प्रधान और आलेख बार-बार पढ़ने और उन पर विचार करने योग्य होते थे। एक बार जब युवाओं के लिए आयोजित एक अखिल भारतीय शिविर में मैंने साधारण ढंग से व्याख्यान के क्रम को बदलने की कोशिश की तो उन्होंने मुझे टोका और बहुत कम शब्दों में किन्तु दृढ़ता के साथ बताया कि यह तरीका नहीं है, इससे मुझे सीख मिली कि सहकर्मियों के साथ परामर्श कर गम्भीरता से योजना बनाना चाहिए।
यह परमेश्वरनजी ही थे जिन्होंने मुझे लिखने को प्रेरित किया। उन्होंने मुझसे कहा कि आप महिला मुद्दों पर युवा भारती में नियमित रूप से लिखें। वैसे, मैं अनिच्छुक थी क्योंकि इसके लिए मुझे ठीक से अध्ययन कर विषय प्रस्तुत करना होगा। लेकिन उन्होंने जोर दिया और सौभाग्य से मैंने उनकी बात मानी। तब से मैंने लिखना शुरू किया। अब जब मैं संगठन की आवश्यकता के अनुसार लिखती हूं, तो मुझे हमेशा लगता है कि यह परमेश्वरनजी का योगदान है, अन्यथा मैं यह साहस या प्रयास नहीं करती।
मुझे माननीय परमेश्वरनजी के साथ एक बहुत ही सुखद अनुभव हुआ। एक बार मैं उनके पास गई क्योंकि कुछ बातें मुझे परेशान कर रही थीं, जैसा कि अमूमन होता है जब हममें से कई लोग एक साथ काम कर रहे होते हैं। कुछ बातों के लिए समाधान ढूंढना पड़ता है, कुछ समय के साथ अपनेआप हल हो जाती हैं और कुछ बातों को हमें निगलना पड़ता है। लेकिन कई बार, इन्हें निगलना मुश्किल हो जाता है और हमें किसी ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत होती है जिसके साथ हम इसे साझा कर सकें। इसलिए मैं उनसे मिलने गई। मैंने उन्हें अपनी परेशानी बताई। उन्होंने बहुत शांति से सुना। मैंने जो कुछ भी उन्हें बताया, उस पर उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन फिर भी मुझे हार्दिक संतुष्टि थी, कि उन्होंने पूरी सहानुभूति और समझ के साथ मेरी कठिनाइयों को सुना था। यही नेतृत्व का उल्लेखनीय कौशल है। नेतृत्व निष्पक्ष होना चाहिए, साथ ही सारसंभाल करने वाला भी। कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें हम पढ़कर या सुनकर नहीं सीख सकते। लेकिन अगर हम किसी को उन सिद्धांतों को जीते हुए देखते हैं तो हमें वह सिद्धांत सहज समझ में आ जाते हैं। यह ऐसा ही एक अनुभव था।
सीखने का एक और अनुभव भी बहुत व्यावहारिक था। परमेश्वरनजी हमारी टीम-बैठक में किसी वरिष्ठ व्यक्ति के साथ हुई चर्चा के बारे में जानकारी दे रहे थे। मैंने तुरंत आपत्ति जताई और कहा कि वह व्यक्ति झूठ बोल रहा है ऐसा नहीं है'। मैं जो बता रही थी, परमेश्वरनजी भी उस बात को जानते थे, लेकिन उन्होंने फिर कहा कि मैं उस व्यक्ति से हुई चर्चा के विषय में बता रहा हूँ। मैंने फिर से बताया, 'इसका मतलब है कि वह व्यक्ति झूठ बोल रहा है'। उन्होंने फिर वही कहा जो उस व्यक्ति ने बताया था। उन्होंने एक बार भी झूठ शब्द का प्रयोग नहीं किया। लेबलिंग के बिना रिपोर्ट करने का एक उत्तम सबक! दूसरे पर्याप्त बुद्धिमान हैं, उन्हें स्वयं निष्कर्ष निकालने दो, लेबल लगाकर हम वातावरण खराब क्यों करें। यह एक बहुत बड़ा संगठनात्मक पाठ था जो मैंने उनसे सीखा।
माननीय एकनाथजी के पास केन्द्र का मार्गदर्शन करने के लिए ज्यादा समय नहीं था क्योंकि उनके पास संगठन में अखिल भारतीय दायित्व था। लेकिन 1984 से उपाध्यक्ष के रूप में और 1995 से अध्यक्ष के रूप में, परमेश्वरनजी ने संगठन का मार्गदर्शन किया। और चूंकि परमेश्वरनजी के पास भारतीय विचार केन्द्रम् के निदेशक की भी जिम्मेदारी थी, विवेकानन्द केन्द्र में उनका नेतृत्व एक मित्रवत, दार्शनिक और मार्गदर्शक की तरह था। उनके मार्गदर्शन ने मजबूत संगठनात्मक आधार दिया। उन्होंने हमें उदाहरण देकर सिखाया कि अध्यक्ष या टीम के किसी भी नेता को दूसरों के परामर्श के बिना निर्णय नहीं लेना चाहिए और अध्यक्ष को भी प्रशासन के दैनंदिन मामलों में शामिल नहीं होना चाहिए। संगठन में निर्णयों को एक व्यक्ति पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए, बल्कि चमू आधारित निर्णय होना चाहिए। यही वे बातें हैं, जो उन्होंने हमें सिखाईं और स्वयं भी अनुसरण किया। लेकिन कुछ परिस्थितियों में जब कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दे आते थे, वे बहुत दृढ़ थे।
सामान्य तौर पर, प्रवासी कार्यकर्ता शिकायत करते हैं - वास्तव में वे उचित भी होते हैं –'कि यात्रा के दौरान नियमित दिनचर्या का पालन नहीं कर पाना। यात्रा के दौरान हम व्यायाम नहीं कर सकते, यात्रा के दौरान हमें पढ़ने के लिए समय नहीं मिलता' आदि-आदि। लेकिन यदि हम परमेश्वरनजी से 10% भी सीखते हैं तो हमारी दिनचर्या भी बहुत नियमित हो सकती है और साथ ही हम स्वस्थ भी बने रहेंगे और देश में होनेवाली घटनाओं के बारे में भी स्वयं को अपडेट रख सकेंगे। देश में जो कुछ भी हो रहा था, उसके बारे में वे न केवल सतर्क थे, बल्कि वह तुरंत उसका उत्तर लेखन या भाषणों के माध्यम से देते थे। उन्होंने इसी प्रकार विपुल लेखन किया। देश में कोई भी महत्त्वपूर्ण घटना हो, वह उस स्थान के किसी नजदीकी कार्यकर्ता को फोन करने और सभी विवरण प्राप्त करने का प्रयास करते थे। फिर वह उस विषय पर लेखन या भाषण के द्वारा बहुत ही विश्वसनीय और पुष्ट प्रतिक्रिया देते थे, राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में उस मुद्दे को गहराई से समझाते थे।
इसलिए, उनके लेखन में मानव जीवन के सभी पहलुओं को हिन्दू सभ्यता के कैनवास पर शामिल किया गया है। उनके आलेख हालांकि विभिन्न विषयों पर हैं, लेकिन उनमें उसी बात पर जोर दिया गया है, वही धुन है, वही केन्द्र बिंदु है। यहां और वहां किसी भी अन्य बात की आशा भी नहीं की जा सकती। जीवन के सभी क्षेत्रों से सम्बंधित हर विषय की मूल धुन और आत्मा, राष्ट्र और मानवता के हित में अभिव्यक्ति है।
परमेश्वरनजी ने हिन्दू राष्ट्र के हृदय की धड़कनों को संप्रेषित करने के लिए सन्दर्भों को चुना। संदर्भ या तो विशेष महीने में आनेवाले विशेष दिन होते थे, या कुछ घटनाएं जो अच्छी या विकृत होती हैं, जैसे सौंदर्य प्रतियोगिता या कुछ किताबें जिनकी समाचार पत्र में समीक्षा की गई या उनके द्वारा पढ़ी गई। कभी-कभी उस महीने में आनेवाले दो महान व्यक्तियों से संबंधित दो अवसरों पर उनके काम की तुलना कर दी जाती। लेकिन यह भी कोई पांडित्य दर्शाने के लिए नहीं, बल्कि इसमें भी मूल चिंतन हिन्दू राष्ट्र के महत्त्व को व्यावहारिक रूप से रेखांकित करना होता। राष्ट्र स्वयं उनके कई लेखों का विषय बनता रहा।
कभी-कभी बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथ्यों को परमेश्वरनजी ने अपने लेखन के माध्यम से पूरी तरह उजागर किया। उदाहरण के लिए, वह लिखते हैं (सारांश बताते हुए), भारत का विभाजन हुआ और अब इतने वर्षों के बाद फिर से हम विभाजन की कगार पर हैं। ऐसा क्यों हुआ? विभाजन के निर्णय से पूर्व जो सोद्देश्य संकल्प लिया गया, देश के विभाजन को स्वीकार किए जाने के बाद भी वह जारी रहा और इसका मूल कारण है, राष्ट्रीय विषयों मएं अस्पष्टता और हमारे देश के प्रमुख अल्पसंख्यक समुदाय का लाड़ प्यार।
9 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा का गठन किया गया और वह अस्तित्व में आई, उस समय देश के विभाजन के निर्णय को अंतिम रूप नहीं दिया गया था। "वस्तुनिष्ठ संकल्प" को मुस्लिम लीग के संविधान सभा में शामिल होने की वांछनीयता और सम्भावना को ध्यान में रखते हुए और इस प्रकार विभाजन से बचने हेतु पेश किया गया था। इसलिए उद्देश्यों को जानबूझकर बहुत उदात्त और प्रेरक बनाया गया। ऐसा प्रतीत होता है, सदन द्वारा एक बार वस्तुनिष्ठ संकल्प में दिए गए मूल सिद्धांतों को स्वीकार करने के बाद, इस निर्णय को बदलने का सदन के लिए या इसके किसी भी सदस्य के लिए संभव नहीं था। फलस्वरूप सदस्य अपने स्वयं के निर्णय के गुलाम बन गए और इसके खिलाफ नहीं जा सके। क्या त्रासदी है! मुसलमानों को अलग भूमि दी गई और अभी भी भारत में हिन्दू समाज और अन्य अल्पसंख्यकों की कीमत पर उनका लाड़-प्यार किया जाता है।
विभिन्न मुद्दों पर, उन्होंने अथक रूप से लिखा। कई मिथकों को खारिज किया, कई विनाशकारी योजनाओं को उजागर किया, सही प्रथाओं की स्थापना की, जैसे कि केरल में करकटा महीने में रामायण के अध्ययन, या गीता के नियमित अध्ययन, या गीता के उचित संदेश। जब सौंदर्य प्रतियोगिताएं मुद्रा प्राप्त कर रही थीं, तब उन्होंने सुंदरता की भारतीय अवधारणा को सामने लाया, जो हमेशा शुभता और सत्य से जुड़ी हुई है – सत्यम्, शिवम्, सुंदरम्। जब जेफरी कृपाल ने एक खराब पुस्तक लिखकर खुद को एक बहुत ही वस्तुनिष्ठ लेखक के रूप में पेश करने की कोशिश की, तो परमेश्वरनजी ने उसकी सम्बद्धताओं और कुटिल मंसूबों को उजागर किया।
जब भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति के आर. नारायणन ने आदि शंकराचार्य और इस्लाम को लेकर अनावश्यक टिप्पणी की, तो परमेश्वरनजी ने त्वरित प्रतिक्रिया दी कि शंकर के अद्वैतवाद और इस्लाम के एकेश्वरवाद में बहुत अंतर है। अद्वैतवाद (अद्वैत) में सब कुछ ईश्वर की अभिव्यक्ति है और इस प्रकार श्रद्धा और स्वीकृति के साथ व्यवहार किया जाता है। जबकि एकेश्वरवाद में ईश्वर का केवल एक ही नाम सत्य है और अन्य सभी को असत्य या शैतान के रूप में देखा जाता है। इसमें अन्य के लिए कोई स्थान नहीं है और यह हिंसा को बढ़ावा देता है।
ऑर्थोडॉक्स सेमिनरी कोट्टायम के प्रधानाचार्य पॉलोस मार ग्रेगोरील ने कहा कि जब पहली शताब्दी ईस्वी में सेंट थॉमस केरल पहुंचे थे, तब न तो हिन्दू धर्म था और न ही मलयालम भाषा। यहूदियों के अलावा उस समय केरल में केवल बौद्ध और जैन थे। ब्राह्मणों सहित हिंदुओं ने कई शताब्दियों बाद केरल में प्रवेश किया! परमेश्वरनजी ने बिना समय गँवाए एक अध्ययनशील लेख लिखा। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह हिंदुओं को विभाजित करने और धर्मान्तरित करने का एजेंडा है, इसीलिए मिशनरियों द्वारा गलत-सलत कथानक गढ़कर सदैव खुद को सबसे ऊपर दिखाने का प्रयत्न किया जाता है। उन्होंने सेंट थॉमस की वास्तविकता को स्पष्ट करते हुए लिखा कि ईसाई स्वयं इन वर्षों में प्रचारित करते रहे हैं कि सेंट थॉमस केरल आए और उन्होंने नंबूदरी ब्राह्मणों को परिवर्तित करके ईसाई धर्म का प्रसार किया, किन्तु कुछ ब्राह्मण इसे सहन नहीं कर सके और उन्हें प्रताड़ित किया गया।
हम उनके लेखन को आगे बढ़ा सकते हैं। वे सच्चे अर्थों में एक बौद्धिक योद्धा थे जिनकी कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली थी। साथ ही परमेश्वरनजी एक तपस्वी थे। हर सुबह और संध्या वे नियमित प्रार्थना और ध्यान करते थे। वे बहुत अल्प और सामान्य भोजन ग्रहण करते थे। उन्होंने जो सिखाया, वही जिया। यहां तक कि उनके विरोधियों ने भी उनके प्रति सम्मान प्रकट किया, जिन पर उन्होंने लगातार कलम के माध्यम से प्रतिकार किया। वे श्वेत वस्त्रधारी संत थे। सामान्यतः एक तप की अवधि 12 साल मानी जाती है। तो उन्होंने राष्ट्र की सेवा के लिए 6 तप किए - वे वास्तव में एक महान तपस्वी थे! जो भी आया है, उसे एक दिन जाना ही होगा। लेकिन कुछ अपने साथ एक युग ले जाते हैं। परमेश्वरनजी के साथ एक युग समाप्त होता है, हालांकि हम चाहते हैं कि यह थोड़ा दीर्घ होना चाहिए।
मूल अंग्रेजी : - कु. निवेदिता भिड़े जी (उपाध्याक्ष, विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी, पद्मश्री)
अनुवाद : हरिहर शर्मा जी
अनुवाद : हरिहर शर्मा जी
--
The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji
विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी (Vivekananda Kendra Kanyakumari) Vivekananda Rock Memorial & Vivekananda Kendra : http://www.vivekanandakendra.org Read Article, Magazine, Book @ http://eshop.vivekanandakendra.org/e-granthalaya Cell : +91-941-801-5995, Landline : +91-177-283-5995 | |
. . . Are you Strong? Do you feel Strength? — for I know it is Truth alone that gives Strength. Strength is the medicine for the world's disease . . . This is the great fact: "Strength is LIFE; Weakness is Death." | |
Follow us on blog twitter youtube facebook g+ delicious rss Donate Online |
No comments:
Post a Comment