तिरु.वी.का. अर्थात् तिरुवारूर विरुत्ताचला कल्याणसुंदरम मुदलियार (26 August 1883 - 17 September 1953) : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई सेनानियों ने अपनी आहुति दी है। कई सेनानी राजनीतिक रूप से प्रेरित थे। वे उसी दिशा में उन्मुख थे। वहीं, कई साहित्यकार भी स्वतंत्रता सेनानी बने। जिस प्रकार भारतियार कवि के रूप में प्रख्यात थे। उनकी कविताएँ स्वतंत्रता संग्राम को जनांदोलन में परिवर्तित करने और उसे मुखर बनाने में सफल हुईं। उसी प्रकार तिरु.वी.का. तमिल भाषा के विद्वान, निबंधकार एवं सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता थे। तिरु.वी.का. उनका संक्षिप्तिकृत नाम है। वे तमिल के साथ-साथ संस्कृत के भी अच्छे जानकार थे और अंग्रेजी, वेदान्त और ब्राह्मण मान्यताओं के गम्भीर अध्येता थे।
वे बिपिनचन्द्र पाल द्वारा मद्रास में दिये गए भाषण से अत्यन्त प्रभावित थे। इसी कड़ी में महर्षि अरविन्द ने उन्हें अधिक जाग्रत किया था। वे बिपिनचन्द्र पाल के भाषण और अरविन्द के प्रभाव में राष्ट्रभक्त बने और स्वतंत्रता आंदोलन को प्रखर बनाने का कार्य किया। उन्होंने पहले 'देशभक्तन' का सम्पादन किया और बाद में 'नवशक्ति' के सम्पादक बने।
वे सन् १९१८ ई. में आरम्भ हुए 'चेन्नई ट्रेड यूनियन' में सहभागी हुए। यह भारत में श्रमिकों का पहला संघ था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्हें कारावास नहीं हुआ, परन्तु 'बकिंघम और कर्नाटक मिल' मजदूरों की हड़ताल के दौरान उन्हें नजरबंद कर दिया गया। तिरु.वी.का. ट्रेड यूनियन की गतिविधियों में अत्यधिक सक्रिय थे। वे 'चेन्नई पोर्ट वर्कर्स मूवमेंट' में भी सक्रिय थे।
सन् १९२५ ई. में ई. वी. रामासामी पेरियार ने एक सम्मेलन में 'वर्गवार प्रतिनिधित्व' का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। सम्मेलन की अध्यक्षता तिरु.वी.का. कर रहे थे और उन्होंने वह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। वे 'वर्गवार प्रतिनिधित्व' के पक्षधर नहीं थे। पेरियार इससे रुष्ट होकर सम्मेलन छोड़ गए थे। यह घटना सर्वविदित है। यह भी एक इतिहास है कि कांग्रेस ने इस प्रकार का एक समानान्तर आंदोलन भी देखा है। तिरु.वी.का. तमिलनाडु में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आधार-स्तम्भों में से एक होने के बावजूद गुमनामी में चले गए। यहाँ तक कि वे सन् १९२६ ई. में तमिलनाडु कांग्रेस समिति अध्यक्ष भी रह चुके थे। उन्होंने अखिल तमिलनाडु में भ्रमण कर स्वतंत्रता का अलख जगाया।
कांग्रेस का आधार-स्तम्भ होकर भी उनका अपना घर नहीं था। यहाँ तक कि उनका कोई बैंक खाता नहीं था। पहनने को पर्याप्त कपड़े नहीं थे। इतना गहरा धनाभाव था कि उन्हें बिना जूते-चप्पल, नंगे पैर ही चलना पड़ता था। यह स्थिति देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के अन्तिम दिनों का स्मरण दिलाती है। सर्वविदित है कि राजेन्द्र बाबू की दुर्दशा इतनी भयानक थी कि उन्हें सुविधा-संसाधनों के अभाव में पटना के सदाकत आश्रम में रहना पड़ा और अन्ततः वहीं उनका देहांत हुआ। तिरु.वी.का. की स्थिति भी अत्यन्त दयनीय थी। उन्हें एक किराये के घर में रहना पड़ा। जीवन के अन्तिम दिनों में मधुमेह के कारण अंधत्व आ गया था। ऐसी अवस्था में १७ सितम्बर, १९५३ को उनका देहावसान हुआ।
उनकी प्रभावशाली रचनाओं में 'हिन्दू धर्म में सौंदर्य' की अवधारणा पर उनका अध्ययन है, जो 'मुरुगन अल्लाधु अळकू' (शब्दशः 'भगवान मुरुगन अथवा सौंदर्य') शीर्षक से प्रकाशित है।
वे बिपिनचन्द्र पाल द्वारा मद्रास में दिये गए भाषण से अत्यन्त प्रभावित थे। इसी कड़ी में महर्षि अरविन्द ने उन्हें अधिक जाग्रत किया था। वे बिपिनचन्द्र पाल के भाषण और अरविन्द के प्रभाव में राष्ट्रभक्त बने और स्वतंत्रता आंदोलन को प्रखर बनाने का कार्य किया। उन्होंने पहले 'देशभक्तन' का सम्पादन किया और बाद में 'नवशक्ति' के सम्पादक बने।
वे सन् १९१८ ई. में आरम्भ हुए 'चेन्नई ट्रेड यूनियन' में सहभागी हुए। यह भारत में श्रमिकों का पहला संघ था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्हें कारावास नहीं हुआ, परन्तु 'बकिंघम और कर्नाटक मिल' मजदूरों की हड़ताल के दौरान उन्हें नजरबंद कर दिया गया। तिरु.वी.का. ट्रेड यूनियन की गतिविधियों में अत्यधिक सक्रिय थे। वे 'चेन्नई पोर्ट वर्कर्स मूवमेंट' में भी सक्रिय थे।
सन् १९२५ ई. में ई. वी. रामासामी पेरियार ने एक सम्मेलन में 'वर्गवार प्रतिनिधित्व' का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। सम्मेलन की अध्यक्षता तिरु.वी.का. कर रहे थे और उन्होंने वह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। वे 'वर्गवार प्रतिनिधित्व' के पक्षधर नहीं थे। पेरियार इससे रुष्ट होकर सम्मेलन छोड़ गए थे। यह घटना सर्वविदित है। यह भी एक इतिहास है कि कांग्रेस ने इस प्रकार का एक समानान्तर आंदोलन भी देखा है। तिरु.वी.का. तमिलनाडु में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आधार-स्तम्भों में से एक होने के बावजूद गुमनामी में चले गए। यहाँ तक कि वे सन् १९२६ ई. में तमिलनाडु कांग्रेस समिति अध्यक्ष भी रह चुके थे। उन्होंने अखिल तमिलनाडु में भ्रमण कर स्वतंत्रता का अलख जगाया।
कांग्रेस का आधार-स्तम्भ होकर भी उनका अपना घर नहीं था। यहाँ तक कि उनका कोई बैंक खाता नहीं था। पहनने को पर्याप्त कपड़े नहीं थे। इतना गहरा धनाभाव था कि उन्हें बिना जूते-चप्पल, नंगे पैर ही चलना पड़ता था। यह स्थिति देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के अन्तिम दिनों का स्मरण दिलाती है। सर्वविदित है कि राजेन्द्र बाबू की दुर्दशा इतनी भयानक थी कि उन्हें सुविधा-संसाधनों के अभाव में पटना के सदाकत आश्रम में रहना पड़ा और अन्ततः वहीं उनका देहांत हुआ। तिरु.वी.का. की स्थिति भी अत्यन्त दयनीय थी। उन्हें एक किराये के घर में रहना पड़ा। जीवन के अन्तिम दिनों में मधुमेह के कारण अंधत्व आ गया था। ऐसी अवस्था में १७ सितम्बर, १९५३ को उनका देहावसान हुआ।
उनकी प्रभावशाली रचनाओं में 'हिन्दू धर्म में सौंदर्य' की अवधारणा पर उनका अध्ययन है, जो 'मुरुगन अल्लाधु अळकू' (शब्दशः 'भगवान मुरुगन अथवा सौंदर्य') शीर्षक से प्रकाशित है।
- डॉ. आनंद पाटील
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The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji
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