Thursday 1 February 2018

{Daily Katha:1439} निवेदिता - एक समर्पित जीवन - 18


बुद्ध का बोध

यतो धर्म: ततो जय:

अक्टूबर 1904 में निवेदिता तीसरी बार बोध गया गयीं। वहाँ वह एक सप्ताह तक रहीं। इस बार उसके साथ डॉ. जे. सी. बोस, रवीन्द्रनाथ टैगोर,स्वामी शंकरानन्द,यदुनाथ सरकार तथा पटना के मथुरानाथ सिन्हा भी थे। ये सब भद्रजन महन्त के अतिथिगृह में रुके।

इस समय के दौरान निवेदिता करीबन रोज ही वारेन हेटिग्ज़ की 'बुद्धिज्म इन टट्रान्सलेशन' तथा कभी-कभी एडविन अरनॉल्ड की 'लाइट ऑफ़ एशिया' का वाचन सबके समक्ष करती थीं। अपने धीरगम्भीर आवाज में प्रभावी तरीके से बुध के जीवन तथा कार्यों के, उनके जीवन पर पड़े प्रभावों को अभिव्यक्त कर देती। कभी-कभी कविवर रवीन्द्रनाथ की कविताएं तथा समुधुर गायन उन सबको रोमांचित करती तथा एक अद्भुत सुगंधित वातावरण का सर्जन कर देता। दिन के वक्त वे सब लोग मन्दिर के प्रांगण तथा आसपास के गाँवों में निरुद्देश्य से भटकते। शाम को वे बोधिवृक्ष के नीचे बैठककर ध्यान साधना करते। यहाँ उन्हें एक गरीब जापानी मछुआरा फुजी मिला। पूर्ण जीवनभर उसकी एक ही इच्छा रही कि जिस स्थान पर भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ उस जगह के दर्शन करे। इसके लिए उसने जीवन भर  अपना पेट काट-काट कर पैसा जमा किया। इस तरह अन्त में वह यहाँ आया  था। वह यात्रियों के लिए बनाई गई धर्मशाला में रहता था। रोज शाम को वह बोधिवृक्ष  नीचे बैठता तथा इस मन्त्र का उच्चारण कर प्रार्थना करता-

                                             नमो-नमो बुद्ध दिवाकराय, नमो-नमो गौतम-चन्द्रिकाय
                                                           नमो-नमो अनन्त-गुण-नराय नमो-नमो शाक्यनन्दनाय।
             
जापानी रीति से उच्चारित इस प्रार्थना की मंजुल ध्वनि,घण्टियों की सुमधुर आवाज के सामान कानों को मधुर लगती तथा पूरा वातावरण एक पवित्र स्थान की पवित्रता सबमें एक अद्भुत शक्ति का संचार कर रही हो।
एक दिन शाम को निवेदिता मन्दिर की छाया में अपने साथियों के साथ बैठी थीं। अचानक वे समाधिस्थ सी हो गयी। कुछ देर तक भावसमाधि की अवस्था में रहकर वे अन्तः प्रेरणा से बुद्धकालीन बातें बताने लगीं। उस वक्त उनके द्वारा बतायी गयी एक-एक बात इतिहास की दृष्टि से पूर्णतः सत्य थी। एकाग्रता से सब लोग निवेदिता की बातें सुन रहे थे।

बोधगया से वापसी की पूर्व रात्रि को निवेदिता फूट-फूट कर रो पड़ी। उसे लगा -हम लोग असफल रहे है। देश अभी भी अपनी अज्ञान-निद्रा से जाग नहीं रहा है। यह पुनर्जीवित नहीं हो रहा है। प्राचीन  काल में भारत जिस तेजस्विता से दैदीप्यमान था, एशिया के हृदय में उसका एकमेव स्थान था। अब मन-सम्मान, वह तेज कहाँ है ? अपने दैदीप्यमान विरासत का एहसास भारत को कब होगा ? मानवीय विचारधारा तथा मानवीय सभ्यता की उन्नति में भारत को अपना विशिष्ट स्थान पुनः कब मिलेगा ? वह जीवन, वह चेतना भारत में पुनः कब वापस आएगी ?


To be Continued


 
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हमें कर्म की प्रतिष्ठा बढ़ानी होंगी। कर्म देवो भव: यह आज हमारा जीवन-सूत्र बनना चाहिए। - भगिनी निवेदिता {पथ और पाथेय : पृ. क्र.१९ }
Sister Nivedita 150th Birth Anniversary : http://www.sisternivedita.org
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