परम पूजनीय सरसंघचालक जी के उद्बोधन से ......
" आत्मा और परमात्मा में वही समानता है जो किसी गुब्बारे के अंदर भरी हवा और उसके बाहर की हवा के बीच होता है, दोनों एक ही हैं, अंतर है तो बस शरीर नुमा गुब्बारे का, और इसलिए, हम अपने आप को क्या मानते हैं यह जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण के लिए महत्वपूर्ण है|
हम चाहें तो अपने आप को गुब्बारे के रूप में जान सकते हैं या फिर खुद को वो हवा मानें जिससे गुब्बारे को उसकी शकल मिली हो, दोनों ही परिस्थिति में सन्दर्भ का सत्य वही रहता है पर दृष्टिकोण के अंतर से न केवल अस्तित्व की वास्तविकता बल्कि परिदृश्य की छवि भी बदल जाती है।
किसी भी निर्णय के सही होने के लिए उसके आधार का सही होना महत्वपूर्ण है और इस दृष्टि से जीवन काल में किसी भी व्यक्ति द्वारा लिए जाने वाले निर्णय के सही होने के लिए व्यक्ति को उसके वास्तविकता का सही बोध होना आवश्यक है, अन्यथा, कोई भी निर्णय व्यक्ति के विवेक के स्तर को प्रतिबिंबित करता निष्कर्ष मात्र होता है।
जीवन रूपी अवसर सभी को प्राप्त है पर इस अवसर को अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए उसे व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करने की आवश्यकता होती है क्योंकि मनुष्य को प्रकृति से निर्णय का अधिकार प्राप्त है जिससे स्वयं प्रकृति भी बाध्य है।
शेर मांस खाता है पर मुर्गी पालन नहीं कर सकता, गाय घांस खाती है पर खेती नहीं कर सकती पर मनुष्य अगर चाहे तो वृक्ष लगा भी सकता है और उसे काट भी सकता है; अतः अगर यह कहा जाए की निर्णय के इसी अधिकार ने मनुष्य को सृष्टि की समस्त योनियों में श्रेष्ठ बनाया है तो गलत न होगा क्योंकि ऊर्जा के रूप में निर्णय का अधिकार केवल मनुष्य को प्राप्त है।
ऐसे में, अगर मनुष्य अपनी वास्तविकता का बोध खो दे तो उसके निर्णय का आधार ही गलत हो जाएगा, और तब, सफलता के प्रयास में जीवन अपनी सार्थकता से वंचित रह जायेगी।
मरने के लिए ही तो सभी जन्म लेते हैं पर जीवन के प्रयास का विषय ही जीवन के महत्व और जन्म की सार्थकता सिद्ध करता है। जिसके जीवन के प्रयास का विषय जितना विस्तृत उसके प्रयास का महत्व उतना व्यापक| महत्व प्रयास के निष्ठा और उद्देश्य के समर्पण का होता है, न की प्रक्रिया के परिणाम का।
अगर बात राष्ट्र के सन्दर्भ में की जाए तो आज समस्या केवल इतनी है की देश को हमने एक मानचित्र और व्यक्ति को व्यवस्था का पर्याय मान लिया है ; ऐसा इसलिए क्योंकि हमने स्वेच्छा से अपने आप को आज इतना छोटा और सीमित कर लिया है की अपनत्व के भाव और अधिपत्य के अहंकार का अंतर ही भूल गए हैं, तभी, जो अपना नहीं वो दूसरा हो गया ; हम क्या हैं... हमें यह भी याद नहीं।
जब से भारतवासियों ने अपनी वास्तविकता खो दी है भारत को विश्व ने तीसरी दुनिया का राष्ट्र मान लिया है ; भारत को फिर से महान बनाने की आवश्यकता नहीं, भारत महान था, है, और रहेगा; भारत के गौरव के लिए सार्वजनिक जीवन में आज भारतवासियों को अपने स्तर में सुधार करने की आवश्यकता है।
व्यावहारिकता के बहाने अपने जीवन मूल्यों से समझौता करने और सामाजिक जीवन में नैतिक स्तर को गिराने से बेहतर होगा हम अपने सिद्धांतों को व्यवहार में रूपांतरित कर व्यावहारिक जीवन में आदर्श का उदाहरण बनें, फिर कार्यक्षेत्र चाहे जो हो।
समय भी है, अवसर भी और आवश्यकता भी और व्यक्तिगत स्तर पर निर्णय का अधिकार भी सभी को प्राप्त है| आज तय यही करना है की सामाजिक जीवन में निर्णय के आधार की दृष्टि से महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए, लाभ-हानि का गणित या सही और गलत के बीच का अंतर।
अपने विषय में सभी का अपना अपना परिचय और व्याख्या हो सकता है पर सच तो यह है की हम सभी उस ब्रह्मांडीय चेतना के वो जैविक अंश है, जो समय को जीवन के रूप में जी रहे हैं, जिसे शरीर रूपी संसाधन और जीवन रूपी अवसर केवल इसलिए प्राप्त है ताकि वो अपने प्रयास से कल्पना के सौन्दर्य को यथार्थ में रूपांतरित कर सके, और इसलिए, जीवन की सार्थकता उसके सुख में नहीं बल्कि प्रयास की संतुष्टि में है।
..पर इसे जानने, समझने और मानने के लिए महत्वपूर्ण यह है की हम अपने आप को मानते क्या हैं, गुब्बरा या गुब्बारे के अंदर भरी हुई हवा !!"
.........माननीय रेखा दीदी की कृपा से
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