'खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी' कविता की लेखक सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त, 1904 (नागपंचमी) को प्रयाग (उ.प्र.) के पास ग्राम निहालपुर में ठाकुर रामनाथ सिंह के घर में हुआ था। उन्हें बचपन से ही कविता लिखने का शौक था। प्रसिद्ध लेखिका महादेवी वर्मा प्रयाग में उनकी सहपाठी थीं। दोनों ने ही आगे चलकर खूब प्रसिद्धि प्राप्त की।
15 वर्ष की अवस्था मेे ठाकुर लक्ष्मण सिंह से विवाह के बाद वे जबलपुर आ गयीं। प्रयाग सदा से ही हिन्दी साहित्य का गढ़ तथा कई प्रसिद्ध साहित्यकारों की कर्मभूमि रहा है। जबलपुर भी मध्य भारत की संस्कारधानी कहा जाता है। सुभद्रा जी के व्यक्तित्व में इन दोनों स्थानों की सुगंध दिखाई देती है।
ठाकुर लक्ष्मण सिंह स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय थे। वे कविता भी लिखते थे; पर सुभद्रा जी का काव्य कौशल देखकर उन्होंने कविता लिखना बंद कर दिया। इतना ही नहीं, तो उन्होंने सुभद्रा जी को उच्च शिक्षा प्राप्त करने और सार्वजनिक जीवन में आने को प्रेरित किया। उन दिनों महिलाएं प्रायः पर्दा करती थीं; पर पति से प्रोत्साहन पाकर सुभद्रा जी ने इसे छोड़ दिया।
1921 के असहयोग आंदोलन के समय लक्ष्मण सिंह जी जबलपुर में अग्रिम पंक्ति में रहकर कार्य कर रहे थे। सुभद्रा जी भी पति के साथ आंदोलन में कूद गयीं और कारावास का वरण किया। मध्य भारत में जेल जाने वाली वे पहली महिला थीं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी वे सहर्ष जेल गयीं। घर में छोटे बच्चों को छोड़कर जेल जाना आसान नहीं था; पर वे कहती थीं कि मैं क्षत्राणी हूं, अतः ब्रिटिश सरकार से टक्कर लेना मेरा धर्म है।
सुभद्रा जी के मन में झांसी की रानी के प्रति बहुत श्रद्धा थी। वे उन्हें अपना आदर्श मानती थीं। रानी लक्ष्मीबाई पर लिखी हुई उनकी कविता ने हजारों युवकों को राष्ट्रीय आंदोलन में कूदने को प्रेरित किया। पति-पत्नी दोनों जाति, प्रांत और ऊंच-नीच के भेदभाव से मुक्त थे। उनका घर सबके लिए खुला था। उनके सभी परिचित रसोई में एक साथ बैठकर खाना खाते थे।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद वे मध्य प्रदेश विधानसभा तथा राज्य शिक्षा समिति की सदस्य बनीं। 15 फरवरी, 1948 को वसंत पंचमी थी। वे कार द्वारा नागपुर से वापस आ रही थीं। नागपुर-जबलपुर राजमार्ग पर ग्राम कलबोड़ी के पास अचानक कुछ मुर्गी के बच्चे कार के सामने आ गये। यह देखकर सुभद्रा जी का मातृहृदय विचलित हो उठा। वे जोर से बोलीं - भैया इन्हें बचाना।
इस आवाज से चालक चौंक गया और कार एक बड़े पेड़ से टकरा गयी। यह दुर्घटना इतनी भीषण थी कि सुभद्रा जी का वहीं प्राणांत हो गया। सुभद्रा जी का एक प्रसिद्ध गीत है, 'वीरों का कैसा हो वसंत ?' इसके भाव के अनुरूप उन्होंने वसंत पंचमी के पवित्र दिन कर्मक्षेत्र में ही प्राण त्याग दिये।
सुभद्रा जी के दो कविता संग्रह (मुकुल और त्रिधारा) तथा तीन कहानी संग्रह (बिखरे मोती, उन्मादिनी तथा सीधे सादे चित्र) छपे हैं। उनकी पुत्री सुधा चौहान ने उनकी जीवनी 'मिला तेज से तेज' प्रकाशित की है। भारतीय तटरक्षक सेना ने 28 अपै्रल, 2006 को एक जहाज को उनका नाम दिया। 16 अगस्त, 1976 को उन पर 25 पैसे का डाक टिकट भी जारी किया गया है।
15 वर्ष की अवस्था मेे ठाकुर लक्ष्मण सिंह से विवाह के बाद वे जबलपुर आ गयीं। प्रयाग सदा से ही हिन्दी साहित्य का गढ़ तथा कई प्रसिद्ध साहित्यकारों की कर्मभूमि रहा है। जबलपुर भी मध्य भारत की संस्कारधानी कहा जाता है। सुभद्रा जी के व्यक्तित्व में इन दोनों स्थानों की सुगंध दिखाई देती है।
ठाकुर लक्ष्मण सिंह स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय थे। वे कविता भी लिखते थे; पर सुभद्रा जी का काव्य कौशल देखकर उन्होंने कविता लिखना बंद कर दिया। इतना ही नहीं, तो उन्होंने सुभद्रा जी को उच्च शिक्षा प्राप्त करने और सार्वजनिक जीवन में आने को प्रेरित किया। उन दिनों महिलाएं प्रायः पर्दा करती थीं; पर पति से प्रोत्साहन पाकर सुभद्रा जी ने इसे छोड़ दिया।
1921 के असहयोग आंदोलन के समय लक्ष्मण सिंह जी जबलपुर में अग्रिम पंक्ति में रहकर कार्य कर रहे थे। सुभद्रा जी भी पति के साथ आंदोलन में कूद गयीं और कारावास का वरण किया। मध्य भारत में जेल जाने वाली वे पहली महिला थीं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी वे सहर्ष जेल गयीं। घर में छोटे बच्चों को छोड़कर जेल जाना आसान नहीं था; पर वे कहती थीं कि मैं क्षत्राणी हूं, अतः ब्रिटिश सरकार से टक्कर लेना मेरा धर्म है।
सुभद्रा जी के मन में झांसी की रानी के प्रति बहुत श्रद्धा थी। वे उन्हें अपना आदर्श मानती थीं। रानी लक्ष्मीबाई पर लिखी हुई उनकी कविता ने हजारों युवकों को राष्ट्रीय आंदोलन में कूदने को प्रेरित किया। पति-पत्नी दोनों जाति, प्रांत और ऊंच-नीच के भेदभाव से मुक्त थे। उनका घर सबके लिए खुला था। उनके सभी परिचित रसोई में एक साथ बैठकर खाना खाते थे।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद वे मध्य प्रदेश विधानसभा तथा राज्य शिक्षा समिति की सदस्य बनीं। 15 फरवरी, 1948 को वसंत पंचमी थी। वे कार द्वारा नागपुर से वापस आ रही थीं। नागपुर-जबलपुर राजमार्ग पर ग्राम कलबोड़ी के पास अचानक कुछ मुर्गी के बच्चे कार के सामने आ गये। यह देखकर सुभद्रा जी का मातृहृदय विचलित हो उठा। वे जोर से बोलीं - भैया इन्हें बचाना।
इस आवाज से चालक चौंक गया और कार एक बड़े पेड़ से टकरा गयी। यह दुर्घटना इतनी भीषण थी कि सुभद्रा जी का वहीं प्राणांत हो गया। सुभद्रा जी का एक प्रसिद्ध गीत है, 'वीरों का कैसा हो वसंत ?' इसके भाव के अनुरूप उन्होंने वसंत पंचमी के पवित्र दिन कर्मक्षेत्र में ही प्राण त्याग दिये।
सुभद्रा जी के दो कविता संग्रह (मुकुल और त्रिधारा) तथा तीन कहानी संग्रह (बिखरे मोती, उन्मादिनी तथा सीधे सादे चित्र) छपे हैं। उनकी पुत्री सुधा चौहान ने उनकी जीवनी 'मिला तेज से तेज' प्रकाशित की है। भारतीय तटरक्षक सेना ने 28 अपै्रल, 2006 को एक जहाज को उनका नाम दिया। 16 अगस्त, 1976 को उन पर 25 पैसे का डाक टिकट भी जारी किया गया है।
(संदर्भ : स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश, भारतवाणी फरवरी 2005, विकीपीडिया आदि)
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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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