आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय भारत में रसायन विज्ञान के जनक माने जाते हैं। वे एक सादगीपसंद तथा देशभक्त वैज्ञानिक थे, जिन्होंने रसायन प्रौद्योगिकी में देश के स्वावलंबन के लिए अप्रतिम प्रयास किए। 'सादा जीवन उच्च विचार' वाले उनके बहुआयामी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने कहा था, "शुद्ध भारतीय परिधान में आवेष्टित इस सरल व्यक्ति को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि वह एक महान् वैज्ञानिक हो सकता है।" प्रफुल्लचंद्र राय की प्रतिभा इतनी विलक्षण थी कि उनकी आत्मकथा "लाइफ़ एण्ड एक्सपीरियेंसेस ऑफ़ बंगाली केमिस्ट" (एक बंगाली रसायनज्ञ का जीवन एवं अनुभव) के प्रकाशित होने पर अतिप्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका "नेचर" ने उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए लिखा था कि "लिपिबद्ध करने के लिए संभवत: प्रफुल्लचंद्र राय से अधिक विशिष्ट जीवन चरित्र किसी और का हो ही नहीं सकता।"
प्रफुल्ल चंद्र रे का जन्म 2 अगस्त, 1861 को पूर्वी बंगाल के जैसोर (वर्तमान नाम खुलना) जिले के राढुली गाँव में हुआ था। यह स्थान अब बांग्लादेश में है। उनके पिता का नाम हरिश्चंद्र रे तथा माँ का नाम भुवनमोहिनी देवी था। उनके पिता एक स्थानीय जमींदार के वंशज थे। वे एक साहित्यप्रेमी एवं विद्वान व्यक्ति थे। उन्हें अरबी, फारसी और अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने प्रसिद्ध समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर से प्रभावित होकर अपने गाँव में प्राथमिक स्कूल की स्थापना की थी। प्रफुल्ल की प्रारम्भिक शिक्षा उसी स्कूल में हुई थी।
सन् १८८९ का वर्ष था। इंग्लैंड में रसायनशास्त्र की सर्वोच्च परीक्षा डी० एस-सी० पास करके एक बंगाली तरुण बंगाल के शिक्षा-विभाग के प्रधान अधिकारी मि० क्राफ़्ट के सामने यह शिकायत करने पहुँचा कि जब उसकी योग्यता वाले अँग्रेजों को ११००-१२०० वेतन पर नियुक्त किया जाता है, उसको २५० रुपया मासिक की सहायक प्रोफेसर की जगह ही दी जा रही है। मि० क्रफ़्ट ने कुछ नाराजगी के साथ कहा – "जिन्दगी में सभी तरह के काम-धन्धे तुम्हारे लिए खुले हैं।
तुम इसी नौकरी को स्वीकार करो, इसके लिए तुम्हारे ऊपर किसी प्रकार का दबाव तो नहीं डाला जा रहा है। अगर तुम अपनी योग्यता को इतना अधिक समझते हो तो व्यावहारिक क्षेत्र में कोई स्वतन्त्र कार्य करके उसे प्रकट करो।" अंग्रेज अफ़सर के यह व्यंगपूर्ण शब्द उसके कलेजे में चुभ गए, पर उस समय अपनी परिस्थिति को समझकर वह चुप रह गया और उसने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कालेज में २५० रु० की नौकरी ही स्वीकार कर ली। पर साथ ही उसने यह भी स्वीकार कर लिया कि, अवसर पाते ही मैं इनको कोई स्वतंत्र काम करके दिखलाऊँगा। इस महत्वपूर्ण संस्था के संस्थापक थे – आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय (१८६१ से १९४४) जो भारतवर्ष में रसायन-विज्ञान के सर्वप्रथम उच्च कोटि के ज्ञाता थे और उनकी योग्यता को अन्त में विदेशी सरकार ने भी स्वीकार करके "सर" की उपाधि प्रदान की थी।
हरिश्चंद्र रे एक उदार विचार वाले व्यक्ति थे। वे बच्चों की बेहतर शिक्षा के हिमायती थे। इसीलिए जब उन्होंने देखा कि गाँव के विद्यालय में बच्चों की शिक्षा-दीक्षा ठीक से नहीं हो पा रही है, तो वे सन 1870 में कोलकाता आ गये। वहाँ पर रे का दाखिला हेयर स्कूल में हुआ। लेकिन इस स्कूल में भी रे का अनुभव अच्छा नहीं रहा। वहाँ के बच्चे बहुत शरारती थे। वे ग्रामीण परिवेश से आने के कारण रे को तरह-तरह के नामों से चिढ़ाते थे। उस समय रे कक्षा 4 में पढ़ रहे थे। अभी यह सब चल ही रहा था कि अचानक रे की तबियत खराब हो गयी। उन्हें पेचिश की बीमारी हो गयी, जिससे उन्हें न चाहते हुए भी स्कूल छोड़ना पड़ा।
आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय भारत में रसायन विज्ञान के जनक माने जाते हैं। वे एक सादगीपसंद तथा देशभक्त वैज्ञानिक थे जिन्होंने रसायन प्रौद्योगिकी में देश के स्वावलंबन के लिए अप्रतिम प्रयास किए। वर्ष 2011 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय रसायन वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। भारत में इसका महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि यह वर्ष एक मनीषी तथा महान भारतीय
रसायनविज्ञानी आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय के जन्म का 150वाँ वर्ष भी है। आचार्य राय भारत में वैज्ञानिक तथा औद्योगिक पुनर्जागरण के स्तम्भ थे। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आजादी की लड़ाई के साथ साथ देश में ज्ञान-विज्ञान की भी एक नई लहर उठी थी। इस दौरान अनेक मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने जन्म लिया। इसमे जगदीश चंद्र बसु, प्रफुल्ल चंद्र राय, श्रीनिवास रामानुजन और चंद्रशेखर वेंकटरामन जैसे महान वैज्ञानिकों का नाम लिया जा सकता है।
इन्होंने पराधीनता के बावजूद अपनी लगन तथा निष्ठा से विज्ञान में उस ऊंचाई को छुआ जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। ये आधुनिक भारत की पहली पीढ़ी के वैज्ञानिक थे जिनके कार्यों और आदर्शों से भारतीय विज्ञान को एक नई दिशा मिली। इन वैज्ञानिकों में आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय का नाम गर्व से लिया जाता है। वे वैज्ञानिक होने के साथ साथ एक महान देशभक्त भी थे। सही मायनों में वे भारतीय ऋषि परम्परा के प्रतीक थे। इनका जन्म 2 अगस्त, 1861 ई. में जैसोर जिले के ररौली गांव में हुआ था। यह स्थान अब बांगलादेश में है तथा खुल्ना जिले के नाम से जाना जाता है
व्यावसायिक जीवन :
प्रफुल्ल चंद्र राय को जुलाई 1889 में प्रेसिडेंसी कॉलेज में 250 रुपये मासिक वेतन पर रसायनविज्ञान के सहायक प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किया गया। यहीं से उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। सन् 1911 में वे प्रोफेसर बने। उसी वर्ष ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'नाइट' की उपाधि से सम्मानित किया। सन् 1916 में वे प्रेसिडेंसी कॉलेज से रसायन विज्ञान के विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए। फिर 1916 से 1936 तक उसी जगह एमेरिटस प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत रहे। सन् 1933 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पण्डित मदन मोहन मालवीय ने आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय को डी.एस-सी की मानद उपाधि से विभूषित किया। वे देश विदेश के अनेक विज्ञान संगठनों के सदस्य रहे।
अमोनियम नाइट्राइट का संश्लेषण :
एक दिन आचार्य राय अपनी प्रयोगशाला में पारे और तेजाब से प्रयोग कर रहे थे। इससे मर्क्यूरस नाइट्रेट नामक पदार्थ बनता है। इस प्रयोग के समय डा. राय को कुछ पीले-पीले क्रिस्टल दिखाई दिए। वह पदार्थ लवण भी था तथा नाइट्रेट भी। यह खोज बड़े महत्त्व की थी। वैज्ञानिकों को तब इस पदार्थ तथा उसके गुणधर्मों के बारे में पता नहीं था। उनकी खोज प्रकाशित हुई तो दुनिया भर में डा. राय को ख्याति मिली। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया था। वह था अमोनियम नाइट्राइट का उसके विशुद्ध रूप में संश्लेषण। इसके पहले माना जाता था कि अमोनियम नाइट्राइट का तेजी से तापीय विघटन होता है तथा यह अस्थायी होता है।
रसायन के लिए समर्पित जीवन :
आचार्य राय एक समर्पित कर्मयोगी थे। उनके मन में विवाह का विचार भी नहीं आया और समस्त जीवन उन्होंने प्रेसीडेंसी कालेज के एक नाममात्र के फर्नीचर वाले कमरे में काट दिया। प्रेसीडेंसी कालेज में कार्य करते हुए उन्हें तत्कालीन महान फ्रांसीसी रसायनज्ञ बर्थेलो की पुस्तक "द ग्रीक एल्केमी" पढ़ने को मिली। तुरन्त उन्होंने बर्थेलो को पत्र लिखा कि भारत में भी अति प्राचीनकाल से रसायन की परम्परा रही है। बर्थेलो के आग्रह पर आचार्य ने मुख्यत: नागार्जुन की पुस्तक "रसेन्द्रसारसंग्रह" पर आधारित प्राचीन हिन्दू रसायन के विषय में एक लम्बा परिचयात्मक लेख लिखकर उन्हें भेजा।
बर्थेलाट ने इसकी एक अत्यंत विद्वत्तापूर्ण समीक्षा "जर्नल डे सावंट" में प्रकाशित की, जिसमें आचार्य राय के कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी। इससे उत्साहित होकर आचार्य ने अंतत: अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री" का प्रणयन किया जो विश्वविख्यात हुई और जिनके माध्यम से प्राचीन भारत के विशाल रसायन ज्ञान से समस्त संसार पहली बार परिचित होकर चमत्कृत हुआ। स्वयं बर्थेलाट ने इस पर समीक्षा लिखी जो "जर्नल डे सावंट" के १५ पृष्ठों में प्रकाशित हुई।
१९१२ में इंग्लैण्ड के अपने दूसरे प्रवास के दौरान डरहम विश्वविद्यालय के कुलपति ने उन्हें अपने विश्वविद्यालय की मानद डी.एस.सी. उपाधि प्रदान की। रसायन के क्षेत्र में आचार्य ने १२० शोध-पत्र प्रकाशित किए। मरक्यूरस नाइट्रेट एवं अमोनियम नाइट्राइट नामक यौगिकों के प्रथम विरचन से उन्हें अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।
सन् १८८९ का वर्ष था। इंग्लैंड में रसायनशास्त्र की सर्वोच्च परीक्षा डी० एस-सी० पास करके एक बंगाली तरुण बंगाल के शिक्षा-विभाग के प्रधान अधिकारी मि० क्राफ़्ट के सामने यह शिकायत करने पहुँचा कि जब उसकी योग्यता वाले अँग्रेजों को ११००-१२०० वेतन पर नियुक्त किया जाता है, उसको २५० रुपया मासिक की सहायक प्रोफेसर की जगह ही दी जा रही है। मि० क्रफ़्ट ने कुछ नाराजगी के साथ कहा – "जिन्दगी में सभी तरह के काम-धन्धे तुम्हारे लिए खुले हैं।
तुम इसी नौकरी को स्वीकार करो, इसके लिए तुम्हारे ऊपर किसी प्रकार का दबाव तो नहीं डाला जा रहा है। अगर तुम अपनी योग्यता को इतना अधिक समझते हो तो व्यावहारिक क्षेत्र में कोई स्वतन्त्र कार्य करके उसे प्रकट करो।" अंग्रेज अफ़सर के यह व्यंगपूर्ण शब्द उसके कलेजे में चुभ गए, पर उस समय अपनी परिस्थिति को समझकर वह चुप रह गया और उसने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कालेज में २५० रु० की नौकरी ही स्वीकार कर ली। पर साथ ही उसने यह भी स्वीकार कर लिया कि, अवसर पाते ही मैं इनको कोई स्वतंत्र काम करके दिखलाऊँगा। इस महत्वपूर्ण संस्था के संस्थापक थे – आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय (१८६१ से १९४४) जो भारतवर्ष में रसायन-विज्ञान के सर्वप्रथम उच्च कोटि के ज्ञाता थे और उनकी योग्यता को अन्त में विदेशी सरकार ने भी स्वीकार करके "सर" की उपाधि प्रदान की थी।
हरिश्चंद्र रे एक उदार विचार वाले व्यक्ति थे। वे बच्चों की बेहतर शिक्षा के हिमायती थे। इसीलिए जब उन्होंने देखा कि गाँव के विद्यालय में बच्चों की शिक्षा-दीक्षा ठीक से नहीं हो पा रही है, तो वे सन 1870 में कोलकाता आ गये। वहाँ पर रे का दाखिला हेयर स्कूल में हुआ। लेकिन इस स्कूल में भी रे का अनुभव अच्छा नहीं रहा। वहाँ के बच्चे बहुत शरारती थे। वे ग्रामीण परिवेश से आने के कारण रे को तरह-तरह के नामों से चिढ़ाते थे। उस समय रे कक्षा 4 में पढ़ रहे थे। अभी यह सब चल ही रहा था कि अचानक रे की तबियत खराब हो गयी। उन्हें पेचिश की बीमारी हो गयी, जिससे उन्हें न चाहते हुए भी स्कूल छोड़ना पड़ा।
आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय भारत में रसायन विज्ञान के जनक माने जाते हैं। वे एक सादगीपसंद तथा देशभक्त वैज्ञानिक थे जिन्होंने रसायन प्रौद्योगिकी में देश के स्वावलंबन के लिए अप्रतिम प्रयास किए। वर्ष 2011 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय रसायन वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। भारत में इसका महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि यह वर्ष एक मनीषी तथा महान भारतीय
रसायनविज्ञानी आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय के जन्म का 150वाँ वर्ष भी है। आचार्य राय भारत में वैज्ञानिक तथा औद्योगिक पुनर्जागरण के स्तम्भ थे। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आजादी की लड़ाई के साथ साथ देश में ज्ञान-विज्ञान की भी एक नई लहर उठी थी। इस दौरान अनेक मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने जन्म लिया। इसमे जगदीश चंद्र बसु, प्रफुल्ल चंद्र राय, श्रीनिवास रामानुजन और चंद्रशेखर वेंकटरामन जैसे महान वैज्ञानिकों का नाम लिया जा सकता है।
इन्होंने पराधीनता के बावजूद अपनी लगन तथा निष्ठा से विज्ञान में उस ऊंचाई को छुआ जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। ये आधुनिक भारत की पहली पीढ़ी के वैज्ञानिक थे जिनके कार्यों और आदर्शों से भारतीय विज्ञान को एक नई दिशा मिली। इन वैज्ञानिकों में आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय का नाम गर्व से लिया जाता है। वे वैज्ञानिक होने के साथ साथ एक महान देशभक्त भी थे। सही मायनों में वे भारतीय ऋषि परम्परा के प्रतीक थे। इनका जन्म 2 अगस्त, 1861 ई. में जैसोर जिले के ररौली गांव में हुआ था। यह स्थान अब बांगलादेश में है तथा खुल्ना जिले के नाम से जाना जाता है
व्यावसायिक जीवन :
प्रफुल्ल चंद्र राय को जुलाई 1889 में प्रेसिडेंसी कॉलेज में 250 रुपये मासिक वेतन पर रसायनविज्ञान के सहायक प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किया गया। यहीं से उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। सन् 1911 में वे प्रोफेसर बने। उसी वर्ष ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'नाइट' की उपाधि से सम्मानित किया। सन् 1916 में वे प्रेसिडेंसी कॉलेज से रसायन विज्ञान के विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए। फिर 1916 से 1936 तक उसी जगह एमेरिटस प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत रहे। सन् 1933 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पण्डित मदन मोहन मालवीय ने आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय को डी.एस-सी की मानद उपाधि से विभूषित किया। वे देश विदेश के अनेक विज्ञान संगठनों के सदस्य रहे।
अमोनियम नाइट्राइट का संश्लेषण :
एक दिन आचार्य राय अपनी प्रयोगशाला में पारे और तेजाब से प्रयोग कर रहे थे। इससे मर्क्यूरस नाइट्रेट नामक पदार्थ बनता है। इस प्रयोग के समय डा. राय को कुछ पीले-पीले क्रिस्टल दिखाई दिए। वह पदार्थ लवण भी था तथा नाइट्रेट भी। यह खोज बड़े महत्त्व की थी। वैज्ञानिकों को तब इस पदार्थ तथा उसके गुणधर्मों के बारे में पता नहीं था। उनकी खोज प्रकाशित हुई तो दुनिया भर में डा. राय को ख्याति मिली। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया था। वह था अमोनियम नाइट्राइट का उसके विशुद्ध रूप में संश्लेषण। इसके पहले माना जाता था कि अमोनियम नाइट्राइट का तेजी से तापीय विघटन होता है तथा यह अस्थायी होता है।
रसायन के लिए समर्पित जीवन :
आचार्य राय एक समर्पित कर्मयोगी थे। उनके मन में विवाह का विचार भी नहीं आया और समस्त जीवन उन्होंने प्रेसीडेंसी कालेज के एक नाममात्र के फर्नीचर वाले कमरे में काट दिया। प्रेसीडेंसी कालेज में कार्य करते हुए उन्हें तत्कालीन महान फ्रांसीसी रसायनज्ञ बर्थेलो की पुस्तक "द ग्रीक एल्केमी" पढ़ने को मिली। तुरन्त उन्होंने बर्थेलो को पत्र लिखा कि भारत में भी अति प्राचीनकाल से रसायन की परम्परा रही है। बर्थेलो के आग्रह पर आचार्य ने मुख्यत: नागार्जुन की पुस्तक "रसेन्द्रसारसंग्रह" पर आधारित प्राचीन हिन्दू रसायन के विषय में एक लम्बा परिचयात्मक लेख लिखकर उन्हें भेजा।
बर्थेलाट ने इसकी एक अत्यंत विद्वत्तापूर्ण समीक्षा "जर्नल डे सावंट" में प्रकाशित की, जिसमें आचार्य राय के कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी। इससे उत्साहित होकर आचार्य ने अंतत: अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री" का प्रणयन किया जो विश्वविख्यात हुई और जिनके माध्यम से प्राचीन भारत के विशाल रसायन ज्ञान से समस्त संसार पहली बार परिचित होकर चमत्कृत हुआ। स्वयं बर्थेलाट ने इस पर समीक्षा लिखी जो "जर्नल डे सावंट" के १५ पृष्ठों में प्रकाशित हुई।
१९१२ में इंग्लैण्ड के अपने दूसरे प्रवास के दौरान डरहम विश्वविद्यालय के कुलपति ने उन्हें अपने विश्वविद्यालय की मानद डी.एस.सी. उपाधि प्रदान की। रसायन के क्षेत्र में आचार्य ने १२० शोध-पत्र प्रकाशित किए। मरक्यूरस नाइट्रेट एवं अमोनियम नाइट्राइट नामक यौगिकों के प्रथम विरचन से उन्हें अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।
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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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