Thursday 4 April 2024

पुष्प की अभिलाषा :

पुष्प की अभिलाषा :

चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ।
चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ॥

चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ।
चाह नहीं, देवों के सिर पर चढूँ, भाग्य पर इठलाऊँ॥

मुझे तोड़ लेना वनमाली।
उस पथ में देना तुम फेंक॥

मातृ-भूमि पर शीश चढ़ाने।
जिस पथ जावें वीर अनेक॥ 
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राष्ट्रीय भावना और ओज के कवि माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल 1889 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले के बावई में हुआ। आरंभिक शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई, जिसके उपरांत अध्यापन और साहित्य-सृजन से संलग्न हुए। 1913 में उन्होंने 'प्रभा' पत्रिका का संपादन शुरू किया और इसी क्रम में गणेश शंकर विद्यार्थी के संपर्क में आए, जिनके देश-प्रेम और सेवाव्रत का उनपर गहन प्रभाव पड़ा। 1921 के असहयोग आंदोलन के दौरान राजद्रोह के आरोप में सरकार ने कारागार में डाल दिया जहाँ से एक वर्ष बाद मुक्ति मिली। 1924 में गणेश शंकर विद्यार्थी की गिरफ़्तारी पर 'प्रताप' का संपादन सँभाला। कालांतर में 'संपादक सम्मेलन' और 'हिंदी साहित्य सम्मेलन' के अध्यक्ष भी रहे।

उनकी सृजनात्मक यात्रा के तीन आयाम रहे—एक, पत्रकारिता और संपादन जहाँ उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का जागरण किया; दूसरा, साहित्य-सृजन, जहाँ काव्य, निबंध, नाटक, कहानी आदि विधाओं में मौलिक लेखन के साथ युगीन संवाद और सर्जनात्मकता का विस्तार किया; और तीसरा, उनके व्याख्यान, जहाँ प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक-साहित्यिक-राजनीतिक प्रश्नों से दो-चार हुए।

'पुष्प की अभिलाषा' कविता से भारतीय जन-मन में हमेशा के लिए बस गए माखनलाल चतुर्वेदी को 'एक भारतीय आत्मा' के नाम से भी याद किया जाता है जिन्होंने देशप्रेम की अपनी कविताओं के माध्यम से न केवल अपने समय में बल्कि बाद की पीढ़ी-दर-पीढ़ी में भी राष्ट्रप्रेमी भावनाओं का संचार किया।

'हिमकिरीटिनी', 'हिमतरंगिनी', 'युग चरण', 'समर्पण', 'मरण ज्वार', 'माता', 'वेणु लो गूँजे धरा', 'बीजुरी काजल आँज रही' आदि इनकी प्रसिद्ध काव्य-कृतियाँ हैं। 'कृष्णार्जुन युद्ध', 'साहित्य के देवता', 'समय के पाँव', 'अमीर इरादे :ग़रीब इरादे' आदि उनकी प्रसिद्ध गद्यात्मक कृतियाँ हैं। 'माखनलाल चतुर्वेदी रचनावली' में उनकी रचनात्मक कृतियों का संकलन किया गया है।

1943 में उन्हें 'देव पुरस्कार' से सम्मानित किया गया जो उस समय साहित्य का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार था। 1953 में साहित्य अकादेमी की स्थापना के बाद इसका पहला साहित्य अकादेमी पुरस्कार 1955 में उन्हें ही प्रदान किया गया। भारत सरकार ने उन्हें 'पद्म भूषण' से अलंकृत किया और उन पर डाक-टिकट जारी किया। 

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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

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