Tuesday 9 April 2024

नव वर्ष की शुभमनाएं

Do not be in a hurry, do not go out to imitate anybody else. This is another great lesson we have to remember; imitation is not civilisation....Imitation, cowardly imitation, never makes for progress... And do not imitate, do not imitate! Whenever you are under the thumb of others, you lose your own independence....- Swami Vivekananda (Common Bases of Hinduism)

वर्ष-प्रतिपदा (09 अप्रैल) से युगाब्द 5126  विक्रमी 2081 तथा शालिवाहन शक संवत्‌ 1946 का शुभारम्भ हो रहा है। अंग्रेजों के भारत में आने के पहले तक भारत का जन-समुदाय इन्हीं संवतों के अनुसार अपना जीवन व्यापन करता था ।  समाज की व्यवस्था ऐसी थी कि बिना किसी प्रचार के हर व्यक्ति को तिथि, मास व वर्ष का ज्ञान हो जाता था ।  अमावस्या को स्वतः ही बाजार व अन्य काम-काज बन्द रखे जाते थे ।  एकादशी, प्रदोष आदि पर व्रत-उपवास भी लोग रखते थे । तात्पर्य यह है कि समाज की सम्पूर्ण गतिविधियाँ भारतीय कालगणना के अनुसार बिना किसी कठिनाई के सहज रूप से संचालित होती थी ।  आज भी समाज का एक बड़ा हिस्सा भारतीय तिथि-क्रम के अनुसार ही अपने कार्य-कलाप चलाता है ।
 
पश्चिमी कालगणना अर्थात्‌ ग्रेगेरियन-कैलेण्डर की व्यापकता और प्रत्येक क्षेत्र में इसकी घुसपैठ के बाद भी भारतीय कैलेण्डर का महत्व कम नहीं हुआ है । यह सही है कि ईस्वी सन्‌ की कालगणना सहज एवं ग्राह्य है तथा तिथियों-मासों के घटने-बढ़ने का क्रम भी इसमें नहीं है । फिर भी यह सटीक नहीं है. पूरे विश्व में "मानक' के रूप में प्रयुक्त होने के बाद भी न तो यह वैज्ञानिक है, न ही प्रकृति से इसका कोई सम्बन्ध है । इसका वैज्ञानिक आधार केवल एक ही है कि जितने समय में पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर लगाती है, ईस्वी सन्‌ का वर्ष भी लगभग उतने ही समय का है।  वास्तव में ईस्वी सन्‌ का इतिहास भी पश्चिम की अन्य संस्थाओं की तरह प्रयोग है जो अभी तक पूर्णरूप से सफल नहीं हुआ है।  दस महीनों का वर्ष- पश्चिमी कालगणना का प्रारम्भ रोम में हुआ । शुरू में रोम के विद्वानों ने 304 दिनों का वर्ष माना तथा एक साल में दस महीने तय किये । महीनों के नाम भी यूं ही रख दिये गये ।  सितम्बर, अक्तूबर, नवम्बर तथा दिसम्बर नाम सातवें, आठवें, नवें तथा दसवें महीने होने के कारण ही पड़े । बाद में सीजर जूलियस तथा सीजर आगस्टस के नाम से दो महीने जुलाई और अगस्त और जुड़ गये तो सितम्बर से दिसम्बर नौंवे से बारहवें महीने हो गये । बारह महीनों के साथ एक साल के दिन भी 360 (12×30) हो गये । जूलियस सीजर ने ईसा से 45 वर्ष पहले 365.25 दिनों का वर्ष तय किया । इसीलिये वर्षों तक इसे "जूलियन-कैलेण्डर' कहा जाता रहा । जूलियन कैलेण्डर की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें साल की शुरुआत 25 मार्च से होती थी । पूरे यूरोप में ग्रेगेरियन कैलेण्डर लागू होने तक नया वर्ष 25 मार्च से ही प्रारम्भ होता रहा । जूलियन-कैलेण्डर के एक वर्ष तथा पृथ्वी द्वारा सूर्य की एक परिक्रमा के समय में काफी फर्क था । पन्द्रह सौ सालों में यह अन्तर 11 दिन का हो गया । अतः ईस्वी सन्‌ 1532 में पोप ग्रेगरी (तेरहवें) ने जूलियन-कैलेण्डर में संशोधन किया । यही संशोधित रूप ग्रेगरी के नाम पर "ग्रेगेरियन कैलेण्डर' कहलाता है । इसके मुख्य संशोधन इस प्रकार हैं –
(1) वर्ष का प्रारम्भ 25 मार्च के स्थान पर 1 जनवरी से.
(2) सन्‌ 1532 के 4 अक्तूबर को 15 अक्तूबर माना जाये ताकि 11 दिन का फर्क दूर हो जाये.
(3) हर चार साल बाद फरवरी का महीना 29 दिन का हो. सरलता के लिये 4 से विभाजित होने वाले वर्ष की फरवरी के दिन 29 किए गये |

कई देशों ने फिर भी कैलेण्डर को मान्यता नहीं दी ।  इंग्लैण्ड ने सन्‌ 1739 में इसे स्वीकार किया । लेकिन यह संशोधन भी इस कैलेण्डर को सटीक नहीं बना पाया । अब भी पृथ्वी के परिभ्रमण-समय तथा "ग्रेगरी-वर्ष' में अन्तर आता रहता है । इसलिये अक्सर घड़ियों को कुछ सैकण्ड आगे या पीछे करना पड़ता है । दूसरी ओर भारतीय कालगणना में सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक सैकण्ड के सौवें भाग का भी अंतर नहीं आया है ।
 
पूर्ण शुद्ध काल-गणना- भारत में प्राचीन काल से मुख्य रूप से "सौर' तथा "चन्द्र' कालगणना व्यवहार में लाई जाती है ।  इनका सम्बन्ध सूर्य और चन्द्रमा से है ।  ज्योतिष के प्राचीन ग्रंथ "सूर्य सिद्धान्त' के अनुसार पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाने में 365 दिन, 15घटी,31पल,31 विपल तथा 24 प्रतिविपल (365.258756484 दिन) का समय लेती है।  यही वर्ष का कालमान है ।
 
आकाश में 27 नक्षत्र हैं तथा इनके 108 पाद होते हैं । विभिन्न अवसरों पर नौ-नौ पाद मिल कर बारह राशियों की आकृति बनाते हैं । इन राशियों के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क,सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन हैं । सूर्य जिस समय जिस राशि में स्थित होता है वही कालखण्ड "सौर-मास' कहलाता है । वर्ष भर में सूर्य प्रत्येक राशि में एक माह तक रहता है । अतः सौर-वर्ष के बारह महीनों के नाम उपरोक्त राशियों के अनुसार होते हैं । जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है । वह दिन उस राशि का संक्रांति दिन माना जाता है । पिछले कुछ वर्षों से सूर्य 14 जनवरी को मकर राशि में प्रवेश करता है, इसीलिये मकर-संक्रांति 14 जनवरी को पड़ती है ।
 
चन्द्र वर्ष- चन्द्रमा पृथ्वी का चक्कर जितने समय में लगा लेता है । वह समय साधारणतः एक "चन्द्र-मास' होता है । चन्द्रमा की गति के अनुसार तय किए गये महीनों की अवधि नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार कम या अधिक भी होती है । जिस नक्षत्र में चन्द्रमा बढ़ते-बढ़ते पूर्णता को प्राप्त होता है । उस नक्षत्र के नाम पर चन्द्र वर्ष के महीने का नामकरण किया गया है ।  एक वर्ष में चन्द्रमा चित्रा, विशाखा,ज्येष्ठा, आषाढ़ा, श्रवण, भाद्रपदा, अश्विनी, कृत्तिका,मृगशिरा, पुष्य, मघा और फाल्गुनी नक्षत्रों में पूर्णता को प्राप्त होता है । इसीलिये चन्द्र-वर्ष के महीनों के नाम चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन रखे गये हैं । यही महीने भारत में सर्वाधिक प्रचलित हैं. मास के जिस हिस्से में चन्द्रमा घटता है, वह कृष्ण-पक्ष तथा बढ़ने वाले हिस्से को शुक्ल-पक्ष कहा जाता है ।
 
चन्द्रमा के बारह महीनों का वर्ष सौर-वर्ष से 11 दिन, 3 घटी तथा 48 पल छोटा होता है । सामंजस्य बनाये रखने के लिये 32 महीने, 16 दिन, 4 घटी के बाद एक चन्द्र-मास की वृद्धि मानी जाती है. यही "अधिक मास' कहलाता है । 140 या 190 वर्षों के बाद एक चन्द्रमास कम भी होता है । किन्तु "वृद्धि' या "क्षय' भी नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार ही होते हैं । तीन साल में एक बार ऐसा अवश्य होता है कि दो अमावस्या (चन्द्र-मास) के बीच में सूर्य की कोई संक्रान्ति नहीं पड़ती । वही मास बढ़ा हुआ माना जाता है । इसी प्रकार 140 से 190 वर्षों में एक ही चन्द्र मास में दो संक्रांति आती हैं । जिस चान्द्र-मास में सूर्य की दो "संक्रान्ति' (एक राशि से दूसरी राशि में जाना) आती हैं । वही महीना कम हुआ माना जाता है. सौर वर्ष और चन्द्र वर्ष में इस प्रकार सामंजस्य बनता है ।
 
सबसे छोटी व बड़ी इकाई- वर्ष, महीने, दिन आदि की गणना के साथ-साथ प्राचीन भारत के वैज्ञानिकों ने समय की सबसे छोटी इकाई "त्रुटि' का भी आविष्कार किया । महान्‌ गणितज्ञ भास्कराचार्य ने आज से चौदह सौ वर्ष पहले लिखे अपने ग्रन्थ में समय की भारतीय इकाइयों का विशद विवेचन किया है. ये इकाइयां इस प्रकार हैं ।
225 त्रुटि = 1 प्रतिविपल
60 प्रतिविपल = 1 विपल (0.4 सैकण्ड)
60 विपल = 1 पल (24 सैकण्ड)
60 पल = 1 घटी (24 मिनिट)
2.5 घटी = 1 होरा (एक घण्टा)
5 घटी या 2 होरा = 1 लग्न (2 घण्टे)
60 घटी या 24 होरा या 12 लग्न = 1 दिन (24 घण्टे)
इस सारिणी से स्पष्ट है कि एक विपल आज के 0.4 सैकण्ड के बराबर है तथा "त्रुटि' का मान सैकण्ड का 33,750वां भाग है ।  इसी तरह लग्न का आधा भाग जो होरा कहलाता है ।  एक घण्टे के बराबर है । इसी "होरा' से अंग्रेजी में हॉवर बना. इस तरह एक दिन में 24 होरा हुये ।
इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि इतने सूक्ष्म काल (1/33,750सैकण्ड) की गणना भी भारत के आचार्य कर सकते थे । इसी तरह समय की सबसे बड़ी इकाई "कल्प' को माना गया. एक कल्प में 432 करोड़ वर्ष होते हैं । एक हजार महायुगों का एक कल्प माना गया । इस बड़ी इकाई का हिसाब भी इस प्रकार है-
1 कल्प = 1000 चतुर्युग या 14 मन्वन्तर
1 मन्वन्तर = 71 चतुर्युगी
1 चतुर्युग = 43,20,000 वर्ष
प्रत्येक चतुर्युगी के सन्धि-काल में कुछ "सन्धि-वर्ष' होते हैं, जो किसी भी युग में जोड़े नहीं जाते । उन्हें जोड़ने पर 14 मन्वन्तरों के कुल वर्ष 1000 महायुगों ( चतुर्युगियों) के बराबर हो जाते हैं । इस समय श्वेतवाराह "कल्प' चल रहा है. इस कल्प का वर्तमान में सातवां मन्वन्तर है । जिसका नाम वैवस्वत है. वैवस्वत मन्वन्तर के 71 महायुगों में से 27 बीत चुके हैं तथा 28 वीं चतुर्युगी के भी सतयुग, त्रेता तथा द्वापर बीत कर कलियुग का 5126 वां वर्ष आगामी वर्ष-प्रतिपदा से प्रारंभ होगा. इसका अर्थ है कि श्वेतवाराह कल्प में 1,97,29,49,126 वर्ष बीत चुके हैं । अर्थात्‌ सृष्टि का प्रारम्भ हुए 2 अरब वर्ष हो गये हैं. आज के वैज्ञानिक भी पृथ्वी की आयु 2 अरब वर्ष ही बताते हैं ।

वर्ष-प्रतिपदा से जिन भारतीय संवतों का प्रारम्भ हो रहा है, उनमें कुछ महत्वपूर्ण संवत्‌ निम्न हैं-
कल्पाब्द – 1,97,29,49,126
श्रीराम संवत्‌ – 1,25,69,121(श्रीराम जन्म से प्रारम्भ)
श्रीकृष्ण संवत्‌ – 5,250 (श्रीकृष्ण जन्म से प्रारम्भ)
युगाब्द (कलियुग सं.)- 5,126 (श्रीकृष्ण के महाप्रयाण से)
बौद्ध संवत्‌ – 2,599 (गौतम बुद्ध के प्रादुर्भाव से)
महावीर संवत्‌ – 2,551 (भगवान महावीर के जन्म वर्ष से)
श्री शंकराचार्य संवत्‌- 2,304 (आद्य शंकराचार्य के जन्म से )
विक्रम संवत्‌ – 2081,
शालिवाहन (शक)- 1,946
हर्षाब्द – 1,417
संवत की तालिका में हम और भी बहुत कुछ जोड़ सकते है । पर शरुआत के लिए इतना पर्याप्त है ।
अंधे अनुकरण से बचे और आज, नए साल पर हम यह हमारी धरोहर याद करे और उसे आगे बढ़ाए ।  नव वर्ष की शुभमनाएं ।

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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

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