भगिनी निवेदिता का संदेश : सन्दर्भ - रिलिजन एंड धर्म
1) समरांगण में सदैव अग्रपंक्ति (पहली पंक्ति) में रहते हुए भी हम विजय की सभा में, पारितोषिक वितरण में, पीछे रहें। सीता की खोज, लंका-दहन, द्रोणगिरि के लाने आदि जितने भी कठिन कार्य आए, हनुमान सबसे आगे रहे, पर राज्याभिषेक के पश्चात् राज्यसभा में जब प्रभु रामचन्द्र सबको पारितोषिक वितरण करने लगे तो वे एक ओर रामनाम स्मरण में तल्लीन थे। ऐसे पवनसुत हनुमान सेवकों के आदर्श हैं। वे आदर्श स्वयंसेवक हैं। यही स्वयंसेवक वृत्ति प्रत्येक कार्यकर्ता की हो।
2) कार्य छोटा हो या बड़ा, मन को सदा संकल्प के वश में रहना चाहिए। समस्या कोई भी हो, उसका सामना करने के लिए मन को समर्थ बनाना चाहिए, जिससे समस्या का उचित और सही ढंग से हल निकालने में वह सफल हो। किसी राष्ट्र के लोगों को पूर्वापेक्षा कम और निःसत्त्व अन्न मिले तो एक बार चल सकता है, किन्तु मन दुर्बल नहीं होना चाहिए। पेट भूखा रहे तो कोई बात नहीं, मन भूखा न रहे। मन को उसका खाद्य मिलना चाहिए, योग्य और तेजस्वी शिक्षा मिलनी चाहिए।
3) वर्तमान क्षण से पवित्रतर कोई क्षण न था, न होगा। प्राचीन काल अच्छा था और आज का बूरा, ऐसी कोई बात नहीं। समाज-हित के लिए जो भी काम हम करें, वह श्रेष्ठतम है। चाहे वह बुनाई हो या सफाई, लेखा कर्म हो या वेदाध्ययन, ध्यान धारणा का तप हो या शत्रु को मारा हुआ घूंसा हो।
4) राष्ट्रीय अस्मिता, समष्टि भावना ये सबकुछ हमारे पास है; केवल नवीन कार्य क्षेत्रों में नवीन विधियों से हमें उसका अविष्कार मात्र करना है। सेवाभाव और आत्म-त्याग के गुणों से भी हम वंचित नहीं हैं, हमें इन्हें राष्ट्रार्पण करना है।
5) जिस प्रकार सब ओर से घिरा मनुष्य वायु के लिए, अकाल पीड़ित अन्न के लिए अथवा प्यासा पानी के लिए व्याकुल रहता है, उसी तरह हमें नवीन ज्ञान एवं अनुभव के लिए आतुर और उत्कंठित होना चाहिए।
6) निःस्वार्थ राष्ट्र सेवा के द्वारा जिसने अपने आपको पवित्र एवं शुद्ध कर लिया हो, वही जीवन के उस अन्तिम और परमोच्च त्याग अथवा संन्यास के लिए सिद्ध हो सकता है, जिसे हम ज्ञान, भक्ति अथवा कर्मयोग कहते हैं।
7) वास्तव में ज्ञान ही जीवन का मुख्य भोजन, मुख्य आहार है। यह भोजन जिसे शुद्ध एवं उचित मात्रा में मिल सका उसका जीवन कृतार्थ हो गया। आइए, हम शीघ्रता करें और अपने आसपास के समस्त जनों को अपनी क्षमता के अनुसार उत्तमोत्तम ज्ञान प्रदान करें, और उनका और अपना जीवन सार्थक करें।
8) हमें ऐसे कलाकार चाहिए जो कवि भी हों और चित्रकार भी। जिनमें हृदय और बुद्धि, भावना और विचार, गद्य और पद्य संलग्न हो, जिनके हृदय में भारत-भक्ति हो, जिनकी नसों में भारतीय रक्त हो, ऐसे कलाकार चाहिए।
9) 'हिन्दुस्थान-हिन्दुस्थान' यह घोषणा मात्र संसार को सुनाने के लिए ही न हो वरन अपने हृदय के अंतःकरण में भी यही ध्वनि गूंजती रहे। यही कला का ध्येय, गन्तव्य और मन्तव्य; यही प्राप्तव्य, यही निदिध्यासितत्व!
10) समाज की चिंता न करते हुए अकेले मोक्ष साधना करना भी दोषपूर्ण है और शुद्ध संस्कार ग्रहण कर परिष्कृत हुए बिना समाज सेवा करना भी सदोष है। इसका अभिप्राय है- चरित्र ही आध्यात्मिकता है।
11) जिस ध्येय की पूर्ति के लिए एक त्यागी पुरुष जन्मा, वही ध्येय उस जैसे अन्य अनोकों का निर्माण करेगा।
12) हम अपने कार्य, अपने कर्म के प्रति प्रमाणिक हों। हमारा ध्येय, हमारा कर्तव्य यही हमारा स्वधर्म है।
13) हम पर किये गए विश्वास का घात करना मानो अवनितल की महानतम दुर्गति है।
14) मुक्ति की धुन का त्याग ही वास्तविक मुक्ति है।
15) राजा हो तो जनक जैसा और भिक्षार्थी हो तो शुकदेव जैसा। राजा का भी आदर्श उपभोग शून्य स्वामी, विदेही जनक का है। राजा हो या योगी, सबका ध्येय एक- नर से नारायण बनाना।
- भगिनी निवेदिता
(courtesy Shri Lakheshwar ji)
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