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-- Swami Vivekananda
महान उपन्यासकार महाश्वेता देवी के उपन्यास 'जंगल के दावेदार' का एक अंश :
सवेरे आठ बजे बिरसा मुंडा खून की उलटी कर, अचेत हो गया. बिरसा मुंडा- सुगना मुंडा का बेटा; उम्र पच्चीस वर्ष-विचाराधीन बंदी. तीसरी फ़रवरी को बिरसा पकड़ा गया था, किन्तु उस मास के अंतिम सप्ताह तक बिरसा और अन्य मुंडाओं के विरुद्ध केस तैयार नहीं हुआ था....,' डॉक्टर को बुलाया गया उसने मुंडा की नाड़ी देखी. वो बंद हो चुकी थी। बिरसा मुंडा नहीं मरा था, आदिवासी मुंडाओं का 'भगवान' मर चुका था।
आदिवासियों का संघर्ष अट्ठारहवीं शताब्दी से चला आ रहा है। 1766 के पहाड़िया-विद्रोह से लेकर 1857 के ग़दर के बाद भी आदिवासी संघर्षरत रहे। सन 1895 से 1900 तक बीरसा या बिरसा मुंडा का महाविद्रोह 'ऊलगुलान' चला। आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-ज़मीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे।
सवेरे आठ बजे बिरसा मुंडा खून की उलटी कर, अचेत हो गया. बिरसा मुंडा- सुगना मुंडा का बेटा; उम्र पच्चीस वर्ष-विचाराधीन बंदी. तीसरी फ़रवरी को बिरसा पकड़ा गया था, किन्तु उस मास के अंतिम सप्ताह तक बिरसा और अन्य मुंडाओं के विरुद्ध केस तैयार नहीं हुआ था....,' डॉक्टर को बुलाया गया उसने मुंडा की नाड़ी देखी. वो बंद हो चुकी थी। बिरसा मुंडा नहीं मरा था, आदिवासी मुंडाओं का 'भगवान' मर चुका था।
आदिवासियों का संघर्ष अट्ठारहवीं शताब्दी से चला आ रहा है। 1766 के पहाड़िया-विद्रोह से लेकर 1857 के ग़दर के बाद भी आदिवासी संघर्षरत रहे। सन 1895 से 1900 तक बीरसा या बिरसा मुंडा का महाविद्रोह 'ऊलगुलान' चला। आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-ज़मीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे।
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को बंगाल प्रेसीडेंसी, उलीहातू, रांची जिला, बिहार में हुआ था। यह स्थान अब झारखंड के खुंटी जिले में आता है। मुंडा एक भारतीय आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी, धार्मिक नेता और लोक नायक थे, जो मुंडा जनजाति से ताल्लुक रखते थे। उन्होंने 19वीं सदी के अंत में बंगाल प्रेसीडेंसी (अब झारखंड) में ब्रिटिश राज के दौरान हुए एक आदिवासी धार्मिक आंदोलन की अगुवाई की थी। इसने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बना दिया। यह आंदोलन मुख्य रूप से खूंटी, तामार, सरवाड़ा और बंदगांव के मुंडा बेल्ट में केंद्रित था। उनकी तस्वीर भारतीय संसद के संग्रहालय में मौजूद है। भारत सरकार ने 1988 में उनके सम्मान में एक डाट टिकट भी जारी किया था।
2० साल की उम्र में 1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन की लड़ाई छेड़ी थी। बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी जंग का ऐलान किया। ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, क़र्ज़ के बदले उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेते थे। यह मात्र विद्रोह नहीं था. यह आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था।
बिरसा मुंडा को उनके पिता ने मिशनरी स्कूल में भर्ती किया था जहां उन्हें ईसाइयत का पाठ पढ़ाया गया। कहा जाता है कि बिरसा ने कुछ ही दिनों में यह कहकर कि 'साहेब साहेब एक टोपी है' स्कूल से नाता तोड़ लिया। 1890 के आसपास बिरसा वैष्णव संप्रदाय की ओर मुड गए। जो आदिवासी किसी महामारी को दैवीय प्रकोप मानते थी उनको वे महामारी से बचने के उपाय समझाते। मुंडा आदिवासी हैजा, चेचक, सांप के काटने बाघ के खाए जाने को ईश्वर की मर्ज़ी मानते, बिरसा उन्हें सिखाते कि चेचक-हैजा से कैसे लड़ा जाता है। बिरसा अब धरती आबा यानी धरती पिता हो गए थे।
धीरे-धीरे बिरसा का ध्यान मुंडा समुदाय की ग़रीबी की ओर गया। आज की तरह ही आदिवासियों का जीवन तब भी अभावों से भरा हुआ था। न खाने को भात था न पहनने को कपड़े. एक तरफ ग़रीबी थी और दूसरी तरफ 'इंडियन फारेस्ट एक्ट' 1882 ने उनके जंगल छीन लिए थे। जो जंगल के दावेदार थे, वही जंगलों से बेदख़ल कर दिए गए। यह देख बिरसा ने हथियार उठा लिए. उलगुलान शुरू हो गया था।
अपनों का धोखा
संख्या और संसाधन कम होने की वजह से बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया। रांची और उसके आसपास के इलाकों में पुलिस उनसे आतंकित थी। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी। बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच अंतिम और निर्णायक लड़ाई 1900 में रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर हुई। हज़ारों की संख्या में मुंडा आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े। पर तीर-कमान और भाले कब तक बंदूकों और तोपों का सामना करते? लोग बेरहमी से मार दिए गए। 25 जनवरी, 1900 में स्टेट्समैन अखबार के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे।
अंग्रेज़ जीते तो सही पर बिरसा मुंडा हाथ नहीं आए।
हालात तो आज भी नहीं बदले हैं। आदिवासी गांवों से खदेड़े जा रहे हैं, दिकू अब भी हैं. जंगलों के संसाधन तब भी असली दावेदारों के नहीं थे और न ही अब हैं। आदिवासियों की समस्याएं नहीं बल्कि वे ही खत्म होते जा रहे हैं। सब कुछ वही है। जो नहीं है तो आदिवासियों के 'भगवान' बिरसा मुंडा।
ऐसे में कवि भुजंग मेश्राम की पंक्तियां याद आती हैं :
' बिरसा तुम्हें कहीं से भी आना होगा
घास काटती दराती हो या लकड़ी काटती कुल्हाड़ी
यहां-वहां से, पूरब-पश्चिम, उत्तर दक्षिण से
कहीं से भी आ मेरे बिरसा
खेतों की बयार बनकर
लोग तेरी बाट जोहते.'
15 नवंबर, झारखंड अपना 20वां स्थापना दिवस मना रहा है। 15 नवंबर, 2000 को बिहार से अलग होकर इस राज्य की स्थापना हुई थी। इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने राज्य के लोगों को अपनी शुभकामनाएं दी हैं। साथ ही बिरसा मुंडा की जयंती पर उन्हें नमन भी किया है।
प्रधानमंत्री मोदी ने आदिवासी नेता और स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा को उनकी जयंती पर नमन किया है। प्रधानमंत्री ने लिखा, 'भगवान बिरसा मुंडा जी को उनकी जयंती पर शत-शत नमन। वे गरीबों के सच्चे मसीहा थे, जिन्होंने शोषित और वंचित वर्ग के कल्याण के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष किया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनका योगदान और सामाजिक सद्भावना के लिए किए गए उनके प्रयास देशवासियों को सदैव प्रेरित करते रहेंगे।'
बिरसा मुंडा को उनके पिता ने मिशनरी स्कूल में भर्ती किया था जहां उन्हें ईसाइयत का पाठ पढ़ाया गया। कहा जाता है कि बिरसा ने कुछ ही दिनों में यह कहकर कि 'साहेब साहेब एक टोपी है' स्कूल से नाता तोड़ लिया। 1890 के आसपास बिरसा वैष्णव संप्रदाय की ओर मुड गए। जो आदिवासी किसी महामारी को दैवीय प्रकोप मानते थी उनको वे महामारी से बचने के उपाय समझाते। मुंडा आदिवासी हैजा, चेचक, सांप के काटने बाघ के खाए जाने को ईश्वर की मर्ज़ी मानते, बिरसा उन्हें सिखाते कि चेचक-हैजा से कैसे लड़ा जाता है। बिरसा अब धरती आबा यानी धरती पिता हो गए थे।
धीरे-धीरे बिरसा का ध्यान मुंडा समुदाय की ग़रीबी की ओर गया। आज की तरह ही आदिवासियों का जीवन तब भी अभावों से भरा हुआ था। न खाने को भात था न पहनने को कपड़े. एक तरफ ग़रीबी थी और दूसरी तरफ 'इंडियन फारेस्ट एक्ट' 1882 ने उनके जंगल छीन लिए थे। जो जंगल के दावेदार थे, वही जंगलों से बेदख़ल कर दिए गए। यह देख बिरसा ने हथियार उठा लिए. उलगुलान शुरू हो गया था।
अपनों का धोखा
संख्या और संसाधन कम होने की वजह से बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया। रांची और उसके आसपास के इलाकों में पुलिस उनसे आतंकित थी। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी। बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच अंतिम और निर्णायक लड़ाई 1900 में रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर हुई। हज़ारों की संख्या में मुंडा आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े। पर तीर-कमान और भाले कब तक बंदूकों और तोपों का सामना करते? लोग बेरहमी से मार दिए गए। 25 जनवरी, 1900 में स्टेट्समैन अखबार के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे।
अंग्रेज़ जीते तो सही पर बिरसा मुंडा हाथ नहीं आए।
हालात तो आज भी नहीं बदले हैं। आदिवासी गांवों से खदेड़े जा रहे हैं, दिकू अब भी हैं. जंगलों के संसाधन तब भी असली दावेदारों के नहीं थे और न ही अब हैं। आदिवासियों की समस्याएं नहीं बल्कि वे ही खत्म होते जा रहे हैं। सब कुछ वही है। जो नहीं है तो आदिवासियों के 'भगवान' बिरसा मुंडा।
ऐसे में कवि भुजंग मेश्राम की पंक्तियां याद आती हैं :
' बिरसा तुम्हें कहीं से भी आना होगा
घास काटती दराती हो या लकड़ी काटती कुल्हाड़ी
यहां-वहां से, पूरब-पश्चिम, उत्तर दक्षिण से
कहीं से भी आ मेरे बिरसा
खेतों की बयार बनकर
लोग तेरी बाट जोहते.'
15 नवंबर, झारखंड अपना 20वां स्थापना दिवस मना रहा है। 15 नवंबर, 2000 को बिहार से अलग होकर इस राज्य की स्थापना हुई थी। इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने राज्य के लोगों को अपनी शुभकामनाएं दी हैं। साथ ही बिरसा मुंडा की जयंती पर उन्हें नमन भी किया है।
प्रधानमंत्री मोदी ने आदिवासी नेता और स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा को उनकी जयंती पर नमन किया है। प्रधानमंत्री ने लिखा, 'भगवान बिरसा मुंडा जी को उनकी जयंती पर शत-शत नमन। वे गरीबों के सच्चे मसीहा थे, जिन्होंने शोषित और वंचित वर्ग के कल्याण के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष किया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनका योगदान और सामाजिक सद्भावना के लिए किए गए उनके प्रयास देशवासियों को सदैव प्रेरित करते रहेंगे।'
The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji
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. . . Are you Strong? Do you feel Strength? — for I know it is Truth alone that gives Strength. Strength is the medicine for the world's disease . . . This is the great fact: "Strength is LIFE; Weakness is Death." | |
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