एक दिन विरजानन्द ने स्वामीजी के समक्ष कुछ दिन निर्जन में रहकर तपस्या करने की इच्छा व्यक्त की।
स्वामीजी उन्हें समझाते हुए बोले, 'कठोर तपस्या करके शरीर को बरबाद मत करो। देख न, हम लोगों ने कठोरता करके अपने शरीर को नष्ट कर डाला है। इससे क्या लाभ हुआ? तुम लोग हमारे अनुभव से सीखो। फिर ध्यान भी भला कितनी देर तक करोगे? शायद पाँच मिनट - यदि एक मिनट भी मन स्थिर हो जाए, तो वही काफ़ी है। इसके लिए सुबह-शाम नियमित रूप से थोड़ी देर जप-ध्यान करने की आवश्यकता है। बाकी समय शास्त्र-पाठ तथा लोकहित के कार्य में व्यस्त रहना चाहिए। मैं चाहता हूँ कि मेरे शिष्यगण तपस्या की जगह कर्म पर अधिक ध्यान दें।'
तथापि विरजानन्द ने दृढ़ विश्वास के साथ कहा, 'हाँ, आप जो कह रहे हैं, वह ठीक ही है। तथापि चरित्र-बल तथा आध्यात्मिक शक्ति अर्जित करने के लिए तपस्या की बहुत ज़रूरत है, अन्यथा ठीक-ठीक निष्काम कर्म करना भी सम्भव नहीं हो पाता।'
विरजानन्द के चले जाने पर स्वामीजी ने सभी उपस्थित लोगों से कहा, 'कालीकृष्ण ने ठीक ही कहा। मैं उसके हृदय की बात समझता हूँ। ध्यान-भजन और संन्यासी के उन्मुक्त जीवन की भी क्या कोई तुलना है? यही तो संन्यास-जीवन का प्रधान गौरव है, यह बात क्या मैं नहीं जानता! मैंने भी कभी इसी प्रकार समय बिताया है - एकमात्र भगवान के ऊपर निर्भर रहते हुए भिक्षाटन करते हुए मैंने पूरे देश का भ्रमण किया है। क्या ही सुखमय दिन थे! सर्वस्व देकर भी यदि वे दिन पुनः प्राप्त हो जाएँ, तो भी मैं तैयार हूँ।'
अस्तु, विरजानन्द ने आखिरकार मायावती में रहकर अपने गुरुदेव द्वारा निर्देशित ध्यान तथा कर्म के समन्वित आदर्श का ही अक्षरशः पालन किया था।
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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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