संन्यासी होने के पूर्व स्वामी विरजानन्द का नाम कालीकृष्ण बोस था।
कालीकृष्ण की माता निषादकाली देवी परम भक्तिमती तथा धर्म-परायणा थी। उनकी कुछ चारित्रिक विशेषताओं ने उनके पुत्र के जीवन को गहराई से प्रभावित किया था। परवर्ती काल में पुत्र के मुख से सुना गया था, 'माँ से मेरा सर्वदा ही बड़ा लगाव था।' निषादकाली देवी का एक विशेष गुण यह था कि घर के सारे कार्य करते हुए भी उनमें अद्भुत अनासक्ति का भाव था।
इसीलिए पुत्र ने बड़े हो जाने के बाद जब उनके समक्ष संसार-त्याग की इच्छा व्यक्त की, तो उन्होंने उसे बहुत प्रोत्साहित किया। वैराग्य-पथ के यात्री पुत्र को उन्होंने पीछे खींचने की चेष्टा नहीं की। बल्कि वे बोलीं, 'मैं क्यों तुम्हारे धर्मपथ में बाधक होऊँगी, बेटा? मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं।' इस मायामय संसार में ऐसी माताएँ भला कितनी मिलेंगी? पति के देहावसान के बाद निषादकाली देवी भी गृहस्थी से पूर्ण रूप से अलग होकर वृन्दावन-धाम चली गईं और वहीं अपने जीवन के अन्तिम दिन साधन- भजन करते हुए बिताए।
कालीकृष्ण एक बड़े ही परिश्रमी छात्र थे, परन्तु उनकी शिक्षा केवल विद्यालय की चहारदीवारी तक ही सीमित न थी, उसकी परिधि में चारों ओर विस्तार होता जा रहा था। वे अति अल्पायु में ही अनेक प्रकार के हाथ के काम, शिल्पकला, रसोई, उद्यानिकी आदि में निपुण हो गए थे। परवर्ती काल में प्रसंग उठने पर वे कभी-कभी कहते 'मैं सर्वदा ही बड़ा व्यावहारिक था जब जिस कार्य को पकड़ता, उसे करके ही छोड़ता।'
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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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