Sunday, 29 June 2014

शिक्षा क्या है ?


    शिक्षा क्या है? क्या वह किताबी ज्ञान है? नहीं; क्या वह विविध प्रकार का ज्ञान है? वह भी नहीं। जिस प्रशिक्षण के द्वारा प्रचलित ज्ञान और इच्छा के प्रस्फुटन को नियन्त्रित किया जाता है और उसे फलदायी बनाया जाता है, उसे शिक्षा कहा जाता है।

    जरा सोचिए, क्या वह शिक्षा है जिसके परिणामस्वरूप इच्छाशक्ति को पीढियों से ताकत के बल पर दबाया जा रहा है; क्या वह शिक्षा है जिसके अन्तर्गत प्रभावशाली पुराने विचार केवल नये विचारों को छोड कर, एक-एक करके लुप्त होते जा रहें हों; क्या उसे शिक्षा कहेंगे जो धीरे-धीरे मनुष्य को मशीन बना रही है।


    मेरे विचार में, व्यक्ति की स्वतन्त्र इच्छाशक्ति और बुद्धि द्वारा प्रेरित गलत मार्ग पर चलना, यन्त्रवत कार्य करने की अपेक्षा, अच्छा है। फिर क्या उसे समाज कहा जा सकता है जिसकी रचना उस मानव-समुदाय द्वारा होती है जो मिट्टी के ढेले मात्र हैं, निर्जीव मशीनों भाँति हैं, कंकडों का ढेर मात्र हैं? ऐसा समाज किस प्रकार कल्याण कर सकता है? सैंकडों वर्षों तक गुलाम बने रहने की अपेक्षा यह कितना अच्छा होता कि हम पृथ्वी पर एक महानतम् राष्ट्र बन गये होते, मूर्खता की खान बनने की अपेक्षा शिक्षा का अनन्त स्त्रोत बन गये होते।            
(IV, ४९०)
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

सत्य और छाया


    सभी आधुनिक धर्म इस विचार से प्रारंभ होते हैं कि मनुष्य एक समय पवित्र था, उसका पतन हुआ और वह पुनः पवित्र होगा। मैं नहीं समझता, उनको यह विचार कहाँ से प्राप्त हुआ।

    ज्ञान का स्थान आत्मा है, बाह्य वातावरण केवल आत्मा को उद्दीप्त करता है; ज्ञान आत्मा की शक्ति है। शताब्दियों से वह शरीर निर्माण करती है। अवतार के विभिन्न रूप, आत्मा की जीवन-कथा के केवल क्रमगत अध्याय हैं। हम निरन्तर अपने शरीर का निर्माण कर रहे हैं। सम्पूर्ण विश्व प्रवाह, परिवर्तन, प्रसार और आकुंचन की स्थिति में हैं।

    वेदान्त मानता है कि तत्त्वतः आत्मा कभी नहीं बदलती, किन्तु वह माया द्वारा रूपान्तरित होती है। प्रकृति, मन द्वारा सीमित ईश्वर है। प्रकृति का विकास आत्मा का रूपान्तर है। सभी प्रकार के जीवों में आत्मा वही है। उसकी अभिव्यक्ति शरीर द्वारा रूपान्तरित होती है। आत्मा की यह एकता, मानवता का यह सामान्य तत्व नीति-शास्त्र और नैतिकता का आधार है। इस अर्थ में सब एक हैं और अपने भाई को चोट पहुँचाना स्वयं अपने को चोट पहुँचाना है।

    "प्रेम केवल इस असीम एकता की एक अभिव्यक्ति है। किस द्वैत प्रणाली पर आप प्रेम की व्याख्या कर सकते हैं?"

    "वह क्या है, जो हम सब खोजते हैं? मुक्ति। जीवन का सारा प्रयत्न और संघर्ष मुक्ति के लिए है। वह महाजातियों, संसारों और प्रणालियों की विश्वयापी यात्रा है।"

    "यदि हम बद्ध हैं तो हमें किसने बाँधा? असीम को स्वयं उसीके अतिरिक्त और कोई शक्ति नहीं बाँध सकती।"     
                                
                                            (VI, २८४-२८५)


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Saturday, 28 June 2014

समष्टि में व्यष्टि



    समष्टि में व्यष्टि तो सृष्टि की योजना है। चेतना के उद्भव में हर कोशिश का कार्य होता है। मनुष्य, व्यष्टि है और ठीक उसी समय समष्टि भी है। अपने व्यक्तिगत स्वरूप की सिद्धी ही हम अपने राष्ट्रीय और विश्वव्यापी स्वभाव की सिद्धी करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति एक निःसीम वृत्त है, जिसका केन्द्र सर्वत्र है और परिधि कहीं नहीं। साधना से हर कोई विश्वात्मा का अनुभव करता है यही हिन्दू धर्म का तत्व है। जो हर जीव में अपनी ही आत्मा को देखता है, पंडित (मुनि) है।

    ऋषिगण आध्यात्मिक नियमों के आविष्कारक हैं।

    अद्वैतवात में जीवात्मा नहीं होती; वह केवल एक भ्रम है। द्वैतवाद में एक जीव होता है, जो ईश्वर से असीम रूप से भिन्न होता है। दोनों ही सत्य हैं। जैसे एक व्यक्ति झरने पर जाये और दूसरा पोखरे पर। जहाँ तक हमारी चेतना जाती है, वास्तव में हम सभी द्वैतवादी हैं; पर उससे परे? उससे परे हम अद्वैतवादी हैं। वास्तव में केवल यही सत्य है।

    अद्वैतवाद के अनुसार हर मनुष्य से अपने जैसा ही प्रेम करो, अपने भाई जैसा नहीं, जैसाकि ईसाई धर्म में है। विश्वबन्धुत्व नहीं, विश्वात्मा-भाव हमारा आदर्श है। अद्वैतवाद में (उपयोगितावादी) सर्वोत्तम सुख का सिद्धांत भी सम्मिलित हो सकता है।

    सोङहं - मैं वह हूँ। अनवरत इस विचार का जप करो; पहले ससंकल्प, तब वह अभ्यास से स्वचालित हो जाता है। वह स्नायुतन्तुओं तक पैठ पा जाता है। इस प्रकार रटने से, बारम्बारता पुनरूक्ति से, यह विचार स्नायु-तन्तुओं में भी भर देना चाहिए।

(I, ३०३-३०४)

    स्वामीजी हमें यहाँ एक बहुत व्यावहारिक सुझाव उपलब्ध करवाते हैं कि आत्मा के दैवत्व (सोङहं) के विचार को हमारे स्नायु-तन्तुओं में धडकने दें ताकि हमारा जीवन उसकी लय के साथ स्पन्दन करना प्रारंभ कर दे।
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
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Friday, 27 June 2014

आत्मा और विश्व



    प्रत्येक विकास (evolution) के पहले एक अन्तर्भाव या संकोच रहता है, प्रत्येक व्यक्त दशा के पहले उसकी अव्यक्त दशा रहती है। समूचा वृक्ष सूक्ष्म रूप से अपने कारण बीज में निहित रहता है। समूचा मनुष्य सूक्ष्म रूप से उस एक जीविसार (protoplasm) में विद्यमान रहता है।

    यह समूचा विश्व मूल अव्याकृत प्रकृत में निहित रहता है। प्रत्येक वस्तु सूक्ष्म रूप से अपने कारण में उपस्थित रहती है। यह विकास अर्थात् स्थूल से स्थूलतर रूपों की क्रमिक अभिव्यक्ति सत्य है, पर साथ ही यह भी सत्य है कि इसके प्रत्येक स्तर के पूर्व उसका संकोच विद्यमान है।

    यह समग्र व्यक्त जगत् पहले अपनी अन्तर्भूत अवस्था में विद्यमान था जो इन विविध रूपों में अभिव्यक्त हुआ; और फिर से वह अपनी उसी अन्तर्भूत दशा को प्राप्त हो जायगा। उदाहरणार्थ, एक छोटे पौधे का जीवन लो। हम देखते हैं कि उसकी एकता दो वस्तुओं से मिलकर बनी है-उसका विकास या वृद्धि और हृास या मृत्यु। इनसे एक इकाई बनती है-पौधे का जीवन।

    जीवन की श्रंखला में पौधे के जीवन को एक कडी समझकर हम पूरी जीवन-श्रंखला पर विचार कर सकते हैं। जीविसार से प्रारंभ वही एक जीवन 'पूर्ण' मनुष्य में परिणत होता है। मनुष्य इस श्रृंखला की एक कडी है, और विविध जीव-जन्तु तथा पेड-पौधे इसकी अन्य कडियाँ हैं। अब इनके मूल अथवा उद्गम की ओर चलो उन सूक्ष्माणुओं की ओर जिनसे इनका प्रारंभ हुआ है, और पूरी श्रृंखला को एक जीवन मानोगे तो देखोगे कि यहाँ प्रत्येक विकास किसी न किसी पहले से अवस्थित किसी वस्तु का ही विकास है।

    जहाँ से यह प्रारंभ होता है, वहीं इसका अन्त भी होता है। इस जगत की परिसमाप्ति कहाँ है? - बुद्धि में। सोचो, क्या ऐसा नहीं है? विकासवादियों के मतानुसार सृष्टि क्रम में बुद्धि का ही विकास सबसे अन्त में हुआ। अतएव सृष्टि का प्रारंभ या कारण भी बुद्धि ही होना चाहिए।

    प्रारंभ में यह बुद्धि अव्यक्त अवस्था में रहती है और क्रमशः वही व्यक्त रूप में प्रकट होती है। अतः विश्व में पायी जाने वाली समस्त बुद्धियों की समष्टि ही वह अव्यक्त विश्व-बुद्धि है, जो उन विभिन्न रूपों में प्रकाशित हो रही है, और जिसे शास्त्रों ने 'ईश्वर' की संज्ञा दी है। शास्त्र कहते हैं कि हम ईश्वर से ही आते हैं फिर वहीं लौट जाते हैं। उसे चाहे किसी भी नाम से पुकारो, पर यह तुम अस्वीकार नहीं कर सकते कि प्रारंभ में वह अनन्त विश्व बुद्धि ही कारणरूप में विद्यमान रहती है।                   
 (VIII, ८०-८१)
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आत्मानुभूति : Vivekananda Kendra News



"ज्ञान प्राप्ति का क्या उपाय है? - प्रेम और भक्ति से, ईश्वर आराधना द्वारा और सर्वभूतों को परमात्मा का मंदिर समझकर प्रेम करने से ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार अनुराग की प्रबलता से ज्ञान का उदय होगा और अज्ञान दूर होगा, सब बन्धन टूट जायेंगे और आत्मा को मुक्ति मिलेगी।"  - स्वामी विवेकानन्द


News Updates from Vivekanandakendra.org :

आवासीय व्यक्तित्व विकास शिविर : इंदौर  
मा. एकनाथजी की १०० वी जयंती वर्ष निमित्त (मा. एकनाथजी जन्म शती पर्व) विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी शाखा इंदौर द्वारा सावर रोड स्थित मानव सेवा ट्रस्ट में आवासीय व्यक्तित्व विकास शिविर दिनांक ०४ जून से ०८ जून तक  का आयोजन किया गया । शिविर के उदघाटन सत्र में मानव सेवा ट्रस्ट के ट्रस्टी श्री मनोहन बाहेतिजी  उपस्थित थे ।        विस्तृत


Karyakarta Prashikshan Shivir of Vivekananda Kendra for Punjab & Haryana 
A five days "Karyakarta Prashikshan Shivir" (Volunteers' Training Camp) was organised by Vivekananda Kendra Kanyakumari's Panchkula Branch during 20th to 25th June 2014 at New India Smart School, Sector 15, Panchkula.    Read More 


VKRDP Monthly Report May 2014       Read More

Upcoming Events :

  • दो दिवसीय अभ्यास वर्ग : Bhopal   Read More
  • Free Eye Camp at Vivekanandapuram : Kanyakumari        Read More
  • Annapooja at Vivekanandapuram : Kanyakumari       Read More 
  • A Talk on Blissful Family : Nagpur       Read More
  • Refreshers course : Kanyakumari          Read More
  • Sahayoga at Nagpur        Read More
  • Sahayoga specially at Persistent Systems : Nagpur       Read More

Updates from Prakashan.vivekanandakendra.org :

कार्यकार्ता का गुण और विकास   


    Author: Madhubhai Kulkarni
    Publication Year: 2014
    Pages: 32
    Rs: 6.00
   
    विस्तृत



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--   विवेक विजाणु पंडित गण (Vivek WebMaster Team)  विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी (Vivekananda Kendra)  http://www.vkendra.org  webmaster@vkendra.org

Wednesday, 25 June 2014

ब्रह्माण्ड शाश्वत् है


    जैसा कि हिन्दू लोग मानते हैं, वेद शाश्वत हैं। अब हम समझने लगे हैं कि उनके शाश्वत् कहने का तात्पर्य क्या है शाश्वत् का तात्पर्य है कि इन नियमों का न तो अादि है, न अन्त, जैसे प्रकृति का न आदि है, न अन्त। एक पृथ्वी के बाद दूसरी पृथ्वी, एक सिद्धांत के बाद दूसरा सिद्धांत बनेगा और कुछ समय तक चलकर पुनः विघटित होकर प्रलय में विलीन हो जायेगा-किन्तु विश्व ज्यों का त्यों बना ही रहेगा। कोटि-कोटि सिद्धांत बनते हैं और करोडों विनष्ट हो जाते हैं, पर विश्व जयों का त्यों बना रहता है। किसी खास ग्रह के संदर्भ में काल के आदि अथवा अनंत के विषय में कुछ कहा जा सकता है। पर जहाँ तक विश्व का प्रश्न है, काल का कुछ भी अर्थ नहीं है। ठीक यही बात भौतिक मानसिक तथा आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में भी है। उनका न आदि है, न अन्त और अपेक्षाकृत हाल ही में, अधिक से अधिक कुछ हजार वर्ष पहले, मनुष्य ने इन्हें प्रकाश में लाने की कोशिश शुरू की। अभी तो अनन्त राशि हमारे सामने पडी है। इसलिए वेदों से एक महान् प्रारम्भिक शिक्षा हमें मिलती है कि धर्म का अभी अारम्भ ही हुआ है। अाध्यात्मिक सत्य का अनंत हमारे सामने पडा है, जिसका हमें अाविष्कार करना है तथा  जिसे हमें अपने जीवन में उतारना है। दुनियाँ ने हजारों पैगम्बरों को देखा है, पर अभी और भी करोडों लोगों को देखना है।            
(II,२४२)

    केवल हाल ही में अाधुनिक विज्ञान ब्रह्माण्ड की शाश्वतता को थोडा-सा समझ पाया है। दूसरी ओर हमारे महान मनीषियों ने अपने आन्तरिक ज्ञान के अाधार पर ब्रह्माण्ड को अनन्त, अवर्णनीय और अअन्वेषणीय वर्णन किया है। भारतीय आध्यात्मिकता के शाश्वत प्रसंग का रहस्य इस तथ्य के कारण है कि हमने शाश्वत सत्य को दृढता से पकडा है। उपनिषदों के महान ऋषियों ने जब मानवता को 'अमृत-पुत्रों' के रूप में सम्बोधित किया था, वे इसी शाश्वत सत्य की ओर संकेत कर रहे थे।

 
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ज्ञान ही लक्ष्य है


    हम प्रकृति के हाथों में गुलाम हैं-रोटी के टुकडे के गुलाम, प्रशंसा करने वाले गुलाम, दोषारोपण करने वाले गुलाम, पत्नि-पति-सन्तान प्रत्येक वस्तु के गुलाम। मैं सम्पूर्ण विश्व में क्यों जाता हूँ-माँगो, चुराओ, लूटो, चाहे जो करो-एक बालक को प्रसन्न करने के लिए मैं हर प्रकार का दुष्टतापूर्ण कार्य करूँगा। क्यों? क्योंकि मैं इसका पिता हूँ।

    और ठीक इसी समय इस जगत् में लाखों लडके, शरीर और मन दोनों से सुन्दर-भूख से मर रहे हैं। परन्तु वे मेरे लिए कोई नहीं। उन सब को मर जाने दो। मैं उन सब को मारने के लिए तत्पर हूँ केवल उस बदमाश को बचाने के लिए जिसे मैंने जन्म दिया है। इसे ही तुम प्रेम कहते हो मैं नहीं। मैं नहीं। यह तो बर्बरता है।

    जब मन में, संसार की समस्त निरर्थकताओं के प्रति, इस स्तर तक अरुचि पैदा हो जाये, इसे प्रकृति से पलायन कहा जाता है। यह पहला कदम है। समस्त इच्छाओं त्याग देना चाहिए-स्वर्ग पाने की इच्छा भी।

    इसलिए इस जीवन में और आनेवाले जीवन में भी सभी प्रकार के अानंद को त्याग देना चाहिए। लोगों में आनंद प्राप्त करने की स्वाभाविक इच्छा होती है; और जब वे इस जीवन में अपने स्वार्थपूरण आनंद को प्राप्त नहीं कर पाते, तो वे सोचते हैं कि मृत्यु के पश्चात् किसी अन्य स्थान पर ऐसा आनंद प्राप्त कर लेंगे। यदि ये आनंद हमें इस जीवन में इस जगत् में ज्ञान की ओर नहीं ले जाते, तो वे दूसरे जीवन में ज्ञान तक कैसे पहुँच सकते हैं?

मनुष्य का लक्ष्य क्या है? आनन्द अथवा ज्ञान? निश्चित ही अानन्द नहीं। मनुष्य का जन्म आनन्द भोगने अथवा पीडा सहन करने हेतु नहीं हुआ। ज्ञान ही लक्ष्य है। ज्ञान ही वह आनन्द है जिसे हम भोग सकते हैं। (IX, २१९-२२१)
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Monday, 23 June 2014

वैराग्य-ज्ञान के लिए एक आवश्यक कदम



    ज्ञान और सम्पत्ति की सम्पूर्ण शक्ति, जिसे एक बार बनाया गया था, समाप्त हो गई है - बहुत समय पहले का समस्त विज्ञान खो गया, सदैव के लिए खो गया। कोई नहीं जानता, कैसे? उससे हमें महत्ती शिक्षा प्राप्त होती है। मिथ्या अभिमान की निरर्थकता; सब कुछ निरर्थक और आत्मा का उत्पीडन है। यदि हमने इसे पूर्णतया देख लिया है, तब हमें, इस जगत और वह जो कुछ हमें प्रदान करता है, उससे अरुचि हो जाती है। इसे ही वैराग्य अनासक्ति कहा जा सकता है और यह ज्ञान की ओर जाने का पहला कदम है।

    मनुष्य की स्वाभाविक आकांक्षा इन्द्रियों की ओर जाने की होती है। इन्द्रियों से दूर हो जाना उसे पुनः के पास ले जाता है अतः पहला पाठ जो हमें पढना पडेगा वह है संसार की असारता से मुँह मोड लेना।

    कितने समय तक तुम डूबते, डुबकी लगाते और पाँच मिनट के लिए ऊपर आते रहोगे, फिर डूबने के लिए, फिर ऊपर आने और डूबनेे के लिए और इसी तरह ऊपर नीचे थपेडे खाते हुए? तुम इस कर्म-चक्र के साथ चक्राकार गति में ऊपर नीचे, ऊपर नीचे घूमते रहोगे?

    कितने हजारों बार तुम राजा और शासक बन चके हो? कितनी बार तुम सम्पत्ती से सम्पन्न हो चके हो और गरीबी में छलांग लगा चुके हो?

    कितने हजारों बार तुम्हें सर्वाधिक शक्तियाँ प्राप्त हों चुकी हैं?

    परन्तु पुनः तुम्हें मनुष्य बनना पडा। कर्म सागर पर लुढकना ही पडा। यह विशाल कर्म-चक्र न तो विधवा के आँसूओं और न अनाथ की चीखों के लिए थमता है।                   
(IX, २१९)
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Sunday, 22 June 2014

ज्ञान साधरणीकरण पर आधारित होता है



    कोई ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम साधारणीकरण की सहायता लेते हैं और साधारणीकरण घटनाओं के पर्यवेक्षण पर आधारित है। हम पहले घटनावली का पर्यवेक्षण करते हैं, फिर उनका साधारणीकरण करते हैं और फिर उनसे अपने सिद्धांत या मतामत निकलते हैं। हम जब तक यह प्रत्यक्ष नहीं कर लेते कि हमारे मन के भीतर क्या हो रहा है और क्या नहीं, तब तक हम अपने मन के सम्बंध में कुछ भी नहीं जान सकते।

बाह्य जगत के व्यापारों का पर्यवेक्षण करना अपेक्षाकृत सम्भव है, क्योंकि उसके लिए हजारों यंत्र निर्मित हो चुके हैं, पर अन्तर्जगत के व्यापार को समझने में मदद करने वाले कोई भी यंत्र नहीं। किन्तु फिर भी हम यह निश्चयपूर्वक जानते है कि किसी विषय का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए पर्यवेक्षण आवश्यक है। उचित विश्लेषण के बिना विज्ञान निरर्थक और निश्फल होकर केवल भित्तिहीन अनुमान में परिणित हो जाता है। इसी कारण, उन थोडे से मनस्तत्त्वान्वेषियों को छोडकर, जिन्होंने पर्यवेक्षण करने के उपाय जान लिए हैं, शेष सब लोग चिरकाल से परस्पर केवल विवाद ही करते आ रहे हैं।

(I, ३९)


    साधारणीकरण से क्या तात्पर्य है? इसको समझने के लिए हम एक छोटे से उदाहरण का उपयोग कर सकते हैं; जब हम कहते हैं कि कौए काले होते हैं यह साधारणीकरण अनेकों कौओं के रंग, उनकी आदतों और व्यवहार के पर्यवेक्षण पर आधारित है। यही स्थिति किसी अन्य सामान्य ज्ञान की भी है।

राजयोग-विद्या पहले मनुष्य को उसकी अपनी अाभ्यन्तरिक अवस्थाओं के पर्यवेक्षण का इस प्रकार उपाय दिखा देती है। मन ही उस पर्यवेक्षण का यंत्र है। मनोयोग की शक्ति का सही-सही नियमन कर जब उसे अन्तर्जगत् की ओर परिचालित किया जाता है, तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है और तब उसके प्रकाश में हम यह सही-सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या घट रहा है। ज्ञान प्राप्त करने का हमारा केवल यही स्त्रोत है।

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सच्चा बपतिस्मा (अग्नि-परीक्षा)



    हम भाषण सुनते हैं और पुस्तकें पढते हैं, परमात्मा और जीवात्मा, धर्म और मुक्ति के बारे में विवाद और तर्क करते हैं। यह आध्यात्मिकता नहीं है, क्योंकि आध्यात्मिकता पुस्तकों में, अथवा सिद्धांतों में अथवा दर्शनों में निवास नहीं करती। यह विद्वत्ता और तर्क में नहीं, वरन् वास्तविक अंतः विकास में होती है। तोते भी बातों को याद कर सकते हैं और उन्हें दोहरा सकते हैं। यदि तुम विद्वान हो जाते हो तो उससे क्या? गधे पूरा पुस्तकालय ढोते फिर सकते हैं। इसलिए जब वास्तविक प्रकाश आयेगा, तो पुस्तकों यह विद्वत्ता-किताबी विद्वत्ता नहीं रहेगी। वह मनुष्य, जो अपना नाम भी नहीं लिख सकता, पूर्णतया धार्मिक हो सकता है; और वह मनुष्य जिसके मस्तिष्क में संसार के सब पुस्तकालय भरें हों, वैसा होने में असफल रह सकता है। विद्वत्ता अाध्यात्मिक प्रगति की शर्त नहीं है। गुरू का स्पर्श, आध्यात्मिक शक्ति का संचरण, तुम्हारे ह्रदय में जान फूँक देगा। तब विकास आरम्भ होगा। सच्ची अग्निदीक्षा यही है। अब रुकना नहीं है। तुम आगे, आगे बढते जाते हो।

    गुरू मुझे सिखाये और प्रकाश में पहँचाये, मुझे उस श्रृंखला की एक कडी बनाये, जिसकी वह स्वयं एक कडी है। साधारण मनुष्य गुरू बनने का दावा नहीं कर सकता। गुरू ऐसा होना चाहिए, जिसने जान लिया है, दैवी सत्य को वास्तव में अनुभव कर लिया है और अपने को आत्मा के रूप में देख लिया है। केवल बातें करने वाला गुरू नहीं हो सकता। मेरे समान एक वाचाल मूर्ख बातें बहुत बना सकता है, पर गुरू नहीं हो सकता। एक सच्चा गुरू शिष्य से कहेगा, "जा और अब पाप न कर", और शिष्य अब और पाप नहीं कर सकता-उस व्यक्ति में पाप करने की शक्ति नहीं रहती।

    वह शक्ति, जो एक क्षण में जीवन को परिवर्तित कर दे, केवल उन जीवन्त प्रकाशवान आत्माओं से ही प्राप्त हो सकती है, जो समय-समय पर हमारे बीच में प्रकट होती हैं। केवल वे ही गुरू होने के योग्य हैं।   
(III, १९७-१९८)
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

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Saturday, 21 June 2014

ज्ञान द्वारा आत्मानुभूति



    आत्मा लिंग-भेद रहित है। आत्मा के विषय में यह नहीं कह सकते कि वह पुरुष है या स्त्री।

    यह स्त्री और पुरूष का भेद तो केवल देह के संबंध में है। अतएव आत्मा पर स्त्री-पुरूष का भेद करना केवल भ्रम मात्र है - यह लिंग-भेद शरीर के विषय में ही सत्य है। आत्मा की आयु का भी निर्देश नहीं किया जा सकता। वह पुरातन पुरूष सदा समस्वरूप ही में विद्यमान है। तो यह आत्मा संसार में बद्ध किस प्रकार हो गयी?

    इस प्रश्न का केवल एक ही उत्तर शास्त्र देते हैं। अज्ञान ही इस समस्त बंधन का कारण है। हम अज्ञान केे ही कारण बंधे हुए हैं।

    ज्ञान से अज्ञान दूर होगा, यही ज्ञान हमें उस पार ले जायेगा। तो इस ज्ञान प्राप्ति का क्या उपाय है? - प्रेम और भक्ति से, ईश्वर आराधना द्वारा और सर्वभूतों को परमात्मा का मंदिर समझकर प्रेम करने से ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार अनुराग की प्रबलता से ज्ञान का उदय होगा और अज्ञान दूर होगा, सब बन्धन टूट जायेंगे और आत्मा को मुक्ति मिलेगी।    
(V, २७)

    उपर्युक्त अंश स्वामीजी द्वारा 'वेदान्तवाद' पर जाफना में दिये गए व्याख्यान का है। यह प्रथम अवसर था जब सम्पूर्ण विश्व, भारत सहित सभी, उपनिषदों में वर्णित आश्चर्यजनक आदर्शों को संक्षिप्त, वैज्ञानिक और विचारपूर्ण भाषा में दत्तचित्त होकर सुन रहा था। अतः आश्चर्य नहीं कि उन्हें 'वेदान्त केसरी' की उपाधि से सुशोभित किया गया।

    वे चाहते थे कि भारतीय बालक/बालिका के लालन-पालन में उपनिषदों के आदर्शों का पालन किया जाये। वे कहा करते थे, "बचपन से ही अपनी संतान को सशक्त बनाओ। उन्हें किसी भी प्रकार की दुर्बलता और अर्थहीन कर्मकाण्ड नहीं सिखाने चाहिए। उन्हें अपने पैरों पर खडा होना सिखाइये। उन्हें आत्म-गौरव सीखने दीजिए। वे अकेले ही वेदान्त में प्रवेश करेंगे। वेदान्त में भी साहस और उदारता से परिपूर्णता के रूप में विकसित होने के अादर्श हैं।" सर्वप्रथम उन्हें प्रेम, पूजा इत्यादि जो अन्य धर्मों मे पाये जाते हैं स्वयं को केन्द्रित होने दीजिए, परन्तु अपने अन्तर्मन में अात्मसात होना सर्वाधिक प्रेरणास्पद, सर्वाधिक आश्चर्यजनक है। केवल वेदान्तिक धर्म ही इस भौतिकवादी संसार का धर्म का सर्वोच्च सत्यों के साथ सामंजस्य स्थापित कर सकता है।

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Friday, 20 June 2014

अनुभव द्वारा ज्ञान



हम अपना समस्त ज्ञान अनुभव के द्वारा प्राप्त करते हैंं और जिन्हें हम अनुभव कहते हैं, वे चेतना के स्तर पर ही होते हैं। उदाहरणत: कोई मनुष्य पियानो पर कोई धुन बजाता है। वह प्रत्येक सुर पर अपनी अंगुली जान-बूझकर रखता है। इस क्रम की आवृत्ति वह तब तक करता जाता है, जब तक उसकी अंगुलिया अभ्यस्त नहीं हो जातीं। अभ्यस्त होने पर प्रत्येक सुर पर बिना विशेष ध्यान दिए ही वह उस धुन को बजाता है।

ठीक उसी तरह हम अपने बारे में भी देखते हैं कि हमारी प्रवृत्तियाँ हमारे अतीत के संचित कर्मों के ही परिणामस्वरूप हैं। कोई भी बच्चा कुछ खास प्रवृतियों के साथ पैदा होता है। वे कहाँ से आतीं है? कोई भी बच्चा अनुत्कीर्णफलक (tabula rasa)–सादे पन्ने की तरह कोरा मन लेकर पैदा नहीं होता। उसके मन रूपी पन्ने पर पहले से ही कुछ लिखा रहता है।

यूनान और मिस्त्र के प्राचीन दार्शनिकों ने बताया है कि कोई भी बच्चा शून्य मन लेकर नहीं आता। प्रत्येक बच्चा अपने पूर्वकृत कर्मों से उत्पन्न सैकडों प्रवृत्तियों  के साथ उत्पन्न होता है। इस जन्म में तो उसने उन्हें पाया नहीं। तब हम यह मानने को बाध्य हो जाते हैं कि अवश्य ही वे उसके पिछले जन्म की हैं।

परले सिरे के भौतिकवादी को भी यह मानना पडता है कि वे प्रवृत्तियाँ पिछले कर्मों के परिणामस्वरूप हैं। हाँ, इतना वे अवश्य जोड देते हैं कि वे वंशानुगत हैं। आनुवांशिकता के इस नियम के अनुसार हमारे पिता, पितामह, प्रतिमाहों की परम्परा हम तक आती है। अब अगर इन्हें वंशानुगत कहने से ही व्याख्या पूरी हो जाती है, तो अात्मा में में विश्वास करने की कोई आवश्यकता नहीं; क्योंकि शरीर ही सबकी व्याख्या कर देता है।

खैर, हमें भौतिकवाद और आत्मवाद के तर्कों में उलझना नहीं है। जो वैयक्तिक आत्मा में विश्वास करते हैं, उनके लिए यहाँ रास्ता साफ है। इस तरह हम देखते हैं कि किसी समुचित निष्कर्ष पर पहँचने के लिए यह मानना जरूरी हो जाता है कि हमारे पिछले जीवन भी रहें हैं। अतीत और वर्तमान के महान् दार्शनिकों एवं महर्षियों का यही विश्वास है।
(II, २३०-२३१)
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Thursday, 19 June 2014

सजीव बीज : Vivekananda Kendra News



"बीज सजीव हो एवं भूमि भी अच्छी जुती हुई हो, और जब ये दोनों बातें मिल जाती हैं, तो वहाॅं वास्तविक धर्म का अपूर्व विकास होता है।"
 -- स्वामी विवेकानन्द


News Updates from Vivekanandakendra.org :

Sthanik Karyakarta Prashikshan Shibir 2014(Brahmapur)
A 4 day Sthanik Karyakarta Prashikshan Shibir was organised by Vivekananda Kendra Kanyakumari (Odisha Prant – Bhanja Vibhag) at Brahmapur from 29th May to 1st  June 2014. 11 brothers and 3 sisters from Parlakhemundi, Brahmapur and Banpur participated in the camp.   Read More


Prantiya Karyakarta Prashikshan Shibir 2014 - Odisha

Vivekananda Kendra Kanyakumari, Odisha Prant organised a 7day Prant Stariya Karyakarta Prashikshan Shibir at Baleswar from 4th June to 12th June 2014. 10 Brothers and 5 sisters from Baleswar, Bhubaneswar and Brahmapur participated in the shibir.    Read More


159th Free Eye Camp Report in Kanyakumari
Vivekananda Kendra, Kanyakumari organized 159th Free Eye Camp on 04-06-2014 Wednesday from 9.00 a.m. to 3.00 p.m. in Vivekanandapuram Campus. Read More

युवा भारत में अब गूंजेगा विवेकानन्द शिलास्मारक की गाथा
नागपुर, जून 15 : विवेकानन्द शिलास्मारक निर्माता और विवेकानन्द केन्द्र के संस्थापक श्री एकनाथजी रानडे की जन्म शती पर्व के नियोजन के लिए विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी की अखिल भारतीय अधिकारी बैठक यहां सम्पन्न हुई। 14 और 15 जून, 2014 को सम्पन्न हुए इस बैठक में 'माननीय एकनाथजी जन्म शती पर्व' के अवसर पर वर्षभर चलाए जानेवाले अभियानों की रूपरेखा निर्धारित की गई। गौरतलब है कि विवेकानन्द केन्द्र के नेतृत्व में गत वर्ष स्वामी विवेकानन्द सार्ध शती समारोह का आयोजन सम्पूर्ण भारत में किया गया था।
  विस्तृत

Inception Ceremony of Vivekananda Kendra Vidyalaya, Sadiya
5th June, 2014 was a day of joy and proud moment for the people of Sadiya as it was the day when their much awaited dream of having Vivekananda Kendra Vidyalaya at Sadiya was finally going to become true.    Read More

Forgotten History Resurfaces by the Ponds
The traditional water bodies renovation at Rameshwaram is now entering into the Green Rameshwaram phase. Eminent epigraphist S.Ramachandran and Sri.Rajendran a veteran expert on irrigation structures based inscriptions, identified a 'Sati stone' by the side of Sugreevar Teertham. 
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Updates from Prakashan.vivekanandakendra.org :


Vivek Vichar : June 2014  Subscribe Periodicals Online

विवेकानंदांच्या विचारप्रकाशात नरेंद्र मोदी
स्वाभिमानी. कणखर. भारतीय संस्कृतीचा कट्टर अभिमानी. भारताला जगद्गुरूपदी विराजमान करण्याची तीव्र तळमळ असलेला. देशभक्त. त्याग आणि सेवा या मूल्यांवर श्रद्धा ठेवून संपूर्ण जीवन कळत्या वयातच राष्ट्रार्पण केलेला. गरिबांप्रती ईश्वरी भाव बाळगणारा. प्रसंगी लीन होणारा अन्‌ आवश्यक तेव्हा वज्राहून कठोरता दाखवणारा. स्वामी विवेकानंदांच्या विचारांनी आपले जीवन घडवलेला. हिंदुत्वाप्रती मनात गौरवाची भावना मिरवणारा आणि त्याच वेळी अन्य धर्मांप्रती हृदयात सद्भाव धारण करणारा नेता देशाच्या शीर्षस्थानी विराजमान झाला आहे.   विस्तृत


 Kendra Bharati : June 2014  Subscribe Periodicals Online


विरासत की हिफाजत 

जब आदमी धरती पर आया, तो उसके पास कुछ नहीं था। प्रारम्भ में वह एकदम जंगली था। शने:.. शने:.. उसने सभ्य और सम्पन्न होना शुरू किया। सभ्यता के बीज, एक पीढी दूसरी पीढी को सौंपती रही। पीढी-दर-पीढी इन बीजों को उगाती हुई, संस्कारों के फूलों की खुशबू से हर अगली पीढी को महकाती रही।   विस्तृत



Yuva Bharati : June 2014  Subscribe Periodicals Online

A very disturbing emerging nexus
Exactly a year back a Sri Lankan Tamil Hindu journalist living in another country contacted the present writer. He had important information to share. The ruthless destruction of Sri Lankan Tamils by the Sri Lankan army and the silence of Indian state at this immense human tragedy had triggered a completely new set of dynamics he claimed.   Read More


Get the "Yuva Bharati" Regular Updates :   Editorial with front page on the "Yuva Bharati" Blog : http://yb.vkendra.org



Updates from vkvapt.org :

A Moment of Pride & Happiness
Congratulations letter from Hon'ble HRD Minister, Govt. of India, Smt. Smriti Zubin Irani to Km. Tridipta Trishna, Cl-XII Arts Stream 2013-14 CBSE Topper of VKV Itanagar. Read More



Updates from vifindia.org :

26 June 2014 : Seminar on Engaging China: Opportunities and Challenges - See more

11 July 2014 - Vimarsha on Transforming Centre State Relations by  Dhirendra Singh (Former Home Secretary) - See More


WebMaster Tips :

To stop receiving unwanted SMS & Calls by registering your mobile no. to National Do Not Disturb registry, by sending sms START 0 to 1909.
You can check your mobile no.'s  DND status by at http://www.nccptrai.gov.in/nccpregistry/search.misc

If u status is registered and still you get SMS, take action, it's simply send sms as mention below.

For complaint through SMS, customer has to send SMS "the unsolicited commercial communication, XXXXXXXXXX, dd/mm/yy" to 1909. Where XXXXXXXXXX - is the telephone number or header of the SMS, from which the UCC has originated.The telephone number or header and the date of receipt of the unsolicited commercial SMS may be appended with such SMS, while forwarding to 1909, with or without space after comma.

... more detail plz kindly go through  http://www.nccptrai.gov.in/nccpregistry

 

Cell# +91-76396-70994 / 94180-36995
विवेक विजाणु पंडित गण (Vivek WebMaster Team)
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
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स्वरूपों, नामो, और सन्त पुरूषों का महत्व

ज्ञान कभी इन्द्रिजन्य ज्ञान नहीं होता। हम ब्रह्म को विषयतया 'जान' नहीं सकते, किन्तु हम पूर्णतया ब्रह्म ही हैं, उसके एक खण्ड मात्र नहीं। अशरीरी वस्तु कभी विभाजित नहीं की जा सकती। आभासी नानात्व काल और देश में दृष्टिगत होने वाला है, जैसा हम सूर्य को लाखों ओस-बिन्दुओं में प्रतिबिम्बित देखते हैं, यद्यपि हम जानते हैं सूर्य एक है, अनेक  नहीं। ज्ञान में हमें नानात्व त्यागना होता है और केवल एकत्व का अनुभव करना होता है। यहाँ विषयी, विषय, ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय, तू, वह अथवा मैं नहीं है, केवल एक पूर्ण एकत्व ही है! हम सदैव वही हैं, सदैव मुक्त। मनुष्य कार्य कारण द्वारा यथार्थत: नहीं बँधा है। दुख और कष्ट मनुष्य में नहीं है, वे तो भागते हुए बादल के समान होते हैं जो सूर्य पर अपनी परछाई डालता है। बादल हट जाता है, पर सूर्य अपरिवर्तित रहता है, और यही बात मनुष्य के विषय में है। यह उत्पन्न नहीं होता, वह मरता नहीं, वह देश और काल में नहीं है। ये सब विचार केवल मन के ही प्रतिबिम्ब हैं, किन्तु हम भ्रमवश उन्हें यथार्थ समझ लेते हैं और इस प्रकार उस महिमान्वित प्रकृत सत्य को जो विचारों से आच्छादित हुआ है, हम नहीं प्राप्त कर सकते। काल तो हमारे चिन्तन की प्रक्रिया है, परन्तु हम तो यथार्थ नित्य वर्तमान काल ही हैं। शुभ और अशुभ का अस्तित्व केवल हमारे सम्बन्ध से है। एक के बिना दूसरा नहीं प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि दोनों में से किसी का भी दूसरे से पृथक् न तो अस्तित्व है और न अर्थ। जब तक हम द्वैतवाद को मान्याता देते हैं अथवा ईश्वर और मनुष्य को पृथक करके मानते हैं, तब तक हमें शुभ और अशुभ-दोनों ही देखने पडेंगे, केवल केवल केन्द्र में जाकर ही, केवल ईश्वर से एकीकृत होकर ही, हम इन्द्रियों के मोह-जाल से बच सकते हैं।

जब हम कामना के अनन्त ज्वर को, उस अनन्त तृष्णा को, जो हमें चैन नहीं लेने देती, त्याग देंगे, जब हम सदा के लिए कामना को जीत लेंगे, तब हम शुभ-अशुभ-दोनों से छूट पायेंगे, क्योंकि तब हम उन दोनों का अतिक्रमण कर जायेंगे।
(VI, २७०-२७१)
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Wednesday, 18 June 2014

परा और अपरा ज्ञान



    प्राय: समस्त ज्ञान दो वर्गों में विभाजित है, परा, लौकिक और अपरा, आध्यात्मिक। एक नष्ट होने वाली वस्तुओं से सम्बन्धित है और दूसरा आत्मा के क्षेत्र से। नि:संदेह ज्ञान के दोनों वर्गों के मध्य बहुत बडा अंतर है और एक की प्राप्ति का मार्ग दूसरे की प्राप्ति के मार्ग से पूर्णतया भिन्न है। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि एक भी तरीका, ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करने के प्रत्येक या सभी दरवाजों की कुंजी, एक मात्र और वैश्विक नहीं कहा जा सकता। परन्तु वास्तव में यह अन्तर केवल डिग्री का है प्रकार का नहीं।

    ऐसा नहीं है कि लौकिक और आध्यात्मिक ज्ञान एक दूसरे के विरोधी और असंगत हों; परन्तु वे दोनों एक ही चीज हैं-एक ही प्रकार का असीम ज्ञान जो प्रत्येक स्थान पर सूक्ष्मतम अणु से लेकर महत्तम ब्रह्म तक, पूर्णतया उपस्थित है-वे दोनों एक ही प्रकार का ज्ञान, अपने-अपने शनै शनै, विकास की विभिन्न अवस्थाओं में है। उस असीम ज्ञान को हम लौकिक ज्ञान कहते हैं, जब वह अपनी अभिव्यक्ति की निम्न प्रक्रिया में होता है, और आध्यात्मिक जब समवर्ती उच्च स्तर पर होता है।    
(IV, ४३३-४३४)

    भारतीय परम्परानुसार ज्ञान दो भागों में विभाजित है। यद्यपि यह समझा जाता है कि ज्ञान व्यक्ति के होने का महत्वपूर्ण भाग है, फिर भी महान अवतारों और गुरूओं द्वारा प्रकट किये गये मार्गों, में उनकी अपनी अद्वितीयता होती है। यह 'परा' ज्ञान ही है जो व्यकतिगत रूपान्तरण में (विशेष रूप से) प्रभावी होता है जो परम्परानुसार गुरू से शिष्य को सौंपा जाता है। स्वामीजी भी उन  शिष्यों को चेतावनी देते हैं जो दृश्यतापूर्वक अपने गुरू से चिपक जाते हैं और व्यक्ति  के हित के लिए उपदेशों से, सत्य की बलि देकर भी जुड जाते हैं।


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Tuesday, 17 June 2014

मन का विस्तार और उसका नियन्त्रण

मनुष्य की प्रत्येक प्रवृत्ति उसकी अतीत कर्मसमष्टि की उस रेखा या अर्धव्यास की परिचायक है, जिस पर मनुष्य को चलते रहना चाहिए। सभी अर्धव्यास केन्द्र में ले जाते हैं। किसीकी प्रवृत्ति को पलट देने का नाम तक मत लो, उससे गुरू और शिष्य दोनों को क्षति पहुँचती है। जब तुम ज्ञान की शिक्षा देते हो तो तुम्हें ज्ञानी होना होगा, और जो अवस्था शिष्य की होती है, तुम्हें मन ही मन ठीक उसी अवस्था में पहुँचना होगा। अन्यान्य योगों में भी तुम्हें ठीक ऐसा ही करना होगा। प्रत्येक प्रवृत्ति का विकास-साधन इस रूप में करना होगा कि जैसे उस वृत्ति को छोड अन्य कोई वृत्ति हमारे लिए है ही नहीं-यह है तथाकथित सामंजस्यपूर्ण उन्नति-साधन का यथार्थ रहस्य-अर्थात् गम्भीरता के साथ उदारता का अर्जन करो, किन्तु उसे खो मन दो। हम अनन्त स्वरुप हैं-हम सभी किसी भी प्रकार की सीमा के अतीत हैं। अतएव हम परम निष्ठावान मुसलमानों के समान प्रखर औैर सर्वाधिक घोर नास्तिक के समान उदार भावापन्न हो सकते हैं।

ऐसा करने का उपाय है-मन का किसी विषयविशेष में प्रयोग न करके स्वयं मन का ही विकास करना और उसका संयम करना। इससे तुम्हें तीव्रता और विस्तार दोनों ही प्राप्त होंगे। ज्ञान की उपलब्धि इस भाव से करो कि ज्ञान छोडकर मानो और कुछ है ही नहीं; उसके बाद भक्तियोग, राजयोग और कर्मयोग को भी लेकर इसी भाव से साधना करो। तरंग को छोडकर समुद्र की ओर जाओ, तभी तुम स्वेच्छानुसार विभिन्न प्रकार की तरंगों का उत्पादन कर सकोगे। तुम अपने मनरूपी सरोवर को संयत रखो, ऐसा किए बिना तुम दूसरों के मनरूपी सरोवर का तत्व कभी नहीं जान सकोगे।

(V11,११५-११६)


"सच्चा गुरू वह जो शिष्य के मन भीतर प्रवेश कर सकता है और उसकी इच्छा-शक्ति का उपयोग कर अन्तर्मन में परिवर्तन ला सकता है। इस हेतु, गुरू का मन सहानुभूति और समझ से समृद्ध होना चाहिए।

सर्वप्रथम गुरू को यह पता लगाना पडता है कि शिष्य में संसार के गलत प्रभाव क्यों हैं। तभी गुरू उन गलत प्रभावों सही करके उनके स्थान पर शुद्ध ज्ञान पर आधारित उच्च सकारात्मक प्रभावों को स्थानापन्न कर सकता है।"

Thursday, 12 June 2014

Spreading Love : Vivekananda Kendra News



"Whether I live or die, whether I go back to India or not, you go on spreading love, love that knows no bounds."
                           -- Swami Vivekananda wrote to Sadananda

News Updates from Vivekanandakendra.org :

Vivekananda Kendra Vidyalayas Arunachal Pradesh Trust April & May Month Report

One needs to update oneself and climb steadily the ladder of excellence. Unearthing one's potentiality and becoming the best in one's area of interest is the greatest achievement for any human being. We the teachers of VKV should be the best in our profession. Some of the ways to update oneself are to attend training session whole heartedly, observing the classes of colleagues, reading good literature on methodology and content.    Read More


Medical Camp at Arunachal Pradesh


Vivekananda Kendra, Arunachal Pradesh Prant recently organized a few Medical camps in Changlang district of Arunachal Pradesh. The camps were started from 7th June and concluded on 10th June 2014.   Read More


Highlights from Panjab and Harayana


Amritsar - Samarth Yoga Module was organised for teachers of St. Sarangdhar School, Amritsar where 18 teachers participated. Smt. Rajni Dogra, Principal of the school & Saha Sanyojak of VK Amritsar along with Swadhyay Varg Pramukh Smt. Kanchan Bhatia conducted in a team with Prant Sangathak.   Read More

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Kendra Bharati : June 2014  Subscribe Periodicals Online

विरासत की हिफाजत 

जब आदमी धरती पर आया, तो उसके पास कुछ नहीं था। प्रारम्भ में वह एकदम जंगली था। शने:.. शने:.. उसने सभ्य और सम्पन्न होना शुरू किया। सभ्यता के बीज, एक पीढी दूसरी पीढी को सौंपती रही। पीढी-दर-पीढी इन बीजों को उगाती हुई, संस्कारों के फूलों की खुशबू से हर अगली पीढी को महकाती रही।   विस्तृत


Yuva Bharati : June 2014  Subscribe Periodicals Online

A very disturbing emerging nexus
Exactly a year back a Sri Lankan Tamil Hindu journalist living in another country contacted the present writer. He had important information to share. The ruthless destruction of Sri Lankan Tamils by the Sri Lankan army and the silence of Indian state at this immense human tragedy had triggered a completely new set of dynamics he claimed.   Read More





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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26