जरा सोचिए, क्या वह शिक्षा है जिसके परिणामस्वरूप इच्छाशक्ति को पीढियों से ताकत के बल पर दबाया जा रहा है; क्या वह शिक्षा है जिसके अन्तर्गत प्रभावशाली पुराने विचार केवल नये विचारों को छोड कर, एक-एक करके लुप्त होते जा रहें हों; क्या उसे शिक्षा कहेंगे जो धीरे-धीरे मनुष्य को मशीन बना रही है।
मेरे विचार में, व्यक्ति की स्वतन्त्र इच्छाशक्ति और बुद्धि द्वारा प्रेरित गलत मार्ग पर चलना, यन्त्रवत कार्य करने की अपेक्षा, अच्छा है। फिर क्या उसे समाज कहा जा सकता है जिसकी रचना उस मानव-समुदाय द्वारा होती है जो मिट्टी के ढेले मात्र हैं, निर्जीव मशीनों भाँति हैं, कंकडों का ढेर मात्र हैं? ऐसा समाज किस प्रकार कल्याण कर सकता है? सैंकडों वर्षों तक गुलाम बने रहने की अपेक्षा यह कितना अच्छा होता कि हम पृथ्वी पर एक महानतम् राष्ट्र बन गये होते, मूर्खता की खान बनने की अपेक्षा शिक्षा का अनन्त स्त्रोत बन गये होते।
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26