Tuesday, 26 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 14

मुग्धकारी एवं संसर्गज प्रशान्तता

कल्याण महाराज अविचल शान्ति में रहने वाले महापुरुष थे; वे कभी क्रोधित न होते थे तथा न ही उन्हें कोई अशान्त कर सकता था। एक बार टाइफॉइड का एक रोगी उन्मादग्रस्त था। उसने महाराज के पास आकर उन पर प्रहार किया। महाराज गिर पड़े और उनका चश्मा टूट गया। हम सब दौड़ते हुए आये और उस व्यक्ति को रोक रहे थे। महाराज ने कहा, 'कुछ मत करो, उसे बैठने दो।' वे धीरे से उठे, रोगी के पास बैठे, और अपना हाथ उस पर रखते हुए कहने लगे, 'क्या तुम अब ठीक हो?' फिर उन्होंने उसकी जाँच के लिये डाक्टरों को बुलाया। महाराज तो
एकदम शान्त और मौन थे। हम बहुत उतावले हो चुके थे परन्तु उन्होंने किसी भी प्रकार की मन की उद्विग्नता कभी प्रकट नहीं की। अपनी शान्तिपूर्ण अवस्था द्वारा उन्होंने रोगी को भी शान्त किया और धीरे धीरे अस्पताल की ओर चलने में उसकी सहायता की।

'बङ्गाल को भूल जाओ!'

निश्चय ही यह हमें उनसे सीखना होगा कि सेवा किसे कहते हैं। और उन्होंने यह सेवा-धर्म सैतीस वर्षों तक निभाया। वे कभी भी कलकत्ता वापस नहीं गये - उन्होंने वहीं रहते सेवा की। ब्रह्मानन्द महाराज ने उन्हें आने को कहा, स्वामी शिवानन्दजी ने उन्हें आने को कहा, और १९३६ में श्रीरामकृष्ण की जन्मशताब्दि के अवसर पर स्वामी अखण्डानन्द महाराज ने उन्हें आने को कहा। जब श्रीरामकृष्ण का नया मन्दिर बना तो स्वामी विज्ञानानन्दजी ने उन्हें बुलाने के लिये एक लम्बा पत्र लिखा। वे सदा ही 'न|' कहते रहे, परन्तु १९३७ में उन्होंने मुझे जाने के लिये कहा। मैंने उन्हें बताया, 'यदि आप नहीं जायेंगे तो मैं नहीं जाऊँगा। मैं यहीं रहूँगा।' मैं उन्हीं के साथ रहा। अनेक लोगों ने उनसे आने की प्रार्थना की परन्तु वे कभी नहीं गये। स्वामीजी ने उन्हें सन् १९०० में कहा था, 'बंगाल को भूल जाओ!' उन्होंने इसे याद रखा और कभी मुड़कर न गये। वे अतिनियमनिष्ठ तथा अनुशासनपरायण थे। आदर्श में वैसा धैर्यसन्तुलन वास्तव में ही कठिन हैं। अस्पताल का कार्य बहुत ही कठिन है। वे जानते थे कि इस कठिन कर्तव्य को निभाने का यही एक रास्ता है।

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

Monday, 25 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 13

रोगी-कक्षों में कल्याण महाराज का रात्रिकालीन दौरा

कल्याण महाराज केवल शब्दों से ही दूसरों की सेवा करना नहीं सिखाते थे उनका अपना जीवन भी समर्पण का आदर्श था। वे विशेष ध्यान रखते थे कि प्रत्येक की सेवा उचित प्रकार से हो। इसमें कितना भी समय लगे, कोई बात नहीं। और वे स्वयं भी उनकी सेवा किया करते थे। रात के समय यदि वे अस्पताल में थोड़ी सी आवाज भी सुनते तो धीरे से उठकर जूते पहन वहाँ चले जाते। मेरा कमरा उनके कमरे के साथ ही था। जब भी चलते तो कुत्ता भी उनके साथ चला करता। सीमेन्ट से बने रास्ते पर चलते समय कुत्ते के पैरों से 'टक् टक् टक्' की ध्वनी आती थी, उससे पता चलता था कि वह महाराज के साथ जा रहा है। मैं जल्दी से उठ जाता और उनके साथ चल देता। वे जान जाते थे कि मैं उनके पीछे हूँ, और कहते, 'अमुक कमरे में जाकर अमुक अमुक दवाई लाओ।' मैं वह लाया करता था। वे रोगियों के आराम में बाधा पहुँचाये बिना प्रत्येक का निरीक्षण करते थे, और यदि उन्हें नींद नहीं आयी होती थी तो पूछते कि क्या किस वस्तु की आवश्यकता है। रात के समय दो या तीन बार वे इस प्रकार जाया करते थे। इस बारे में उन्होंने कभी किसी को नहीं बताया। यह काम वे स्वयं ही करते थे। फिर वे लौटकर लेट जाते। इस कारण उनका स्वास्थ्य गिर गया था। वृद्धावस्था में उन्हें मधुमेह की शिकायत हो गयी थी और वे अधिक कार्य नहीं करते थे। फिर भी, आवाज सुनने पर वे धीरे से उठ जाते।

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)

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Sunday, 24 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 12

रोगियों के प्रति उनकी उद्विग्नता

एक अन्य समय उन्होंने एक रोगी के बारे में कहा, 'मानो तुम्हारा भाई भी वैसा हो तो तुम उसके लिये क्या करोगे? तुम्हें इस दृष्टि से सोचना चाहिये। वे सभी यहाँ तुम्हारे पर पूरा भरोसा रख कर आते हैं। यदि तुम रोगी को उसके हाल पर छोड़ दो तो उन्हें देखनेवाला कोई नहीं है। वे और कहीं नहीं जा सकते। सबसे अधिक आवश्यक बात यह है कि हम यहाँ उन्हीं की सेवा के लिये हैं। इसे कभी मत भूलना। लोग यहाँ पूरी तरह हमारे भरोसे आते हैं। तुम्हें उन्हें अपना समझकर इलाज करना चाहिये। कभी किसी रोगी को अस्वीकार मत करो।' उन्होंने डाक्टर को विशेषकर बताया, 'नारायण को बताये बिना किसी रोगी को अस्वीकार न करना। और उसे बताये बिना किसी रोगी की अस्पताल से छुट्टी भी मत करना।' यह इसलिये था कि डॉक्टर सोच सकता था कि रोगी बिल्कुल ठीक है और घर जा सकता है, परन्तु हो सकता था कि घर लौटने पर न तो कोई उसकी देखभाल करे और ही अच्छा भोजन दे; और हो सकता है कि कमजोरी की हालत में ही उसे काम करना पड़ जाता। अतः महाराज कहते, 'उसे और दो दिन रखो और अच्छी तरह खिलाओ, जब उसमें शक्ति आ जाये तब तुम उसे घर भेज सकते हो।' वे इस मामले में बड़े सावधान रहते थे कि प्रत्येक रोगी स्वास्थ्य और शक्ति अर्जित करके ही लौटे क्योंकि वे सभी निर्धन लोग थे और उन्हें काम करना पड़ता था। अस्पताल से छुट्टी करने के बाद भी हम उन्हें भोजन की आपूर्ति किया करते थे। वे इसे रसोईघर में लेने आते थे। दवाइयाँ भी दी जाती थीं। हमारी अपनी 'आर. के. मिशन' बोतलें थी। ये सभी आकारों की थीं। हम उनमें दवाई भर कर बाहरी रोगियों को दिया करते थे।

यदि कोई रोगी गम्भीर होता तो उसे जाकर देखना भी मेरा कर्तव्य हो गया : उसे क्या हुआ है? वह कैसा है? क्या हम उसके लिये और कुछ कर सकते हैं? उदाहरण के लिये, यदि कोई दवाई हमारे पास न होती तो हम उसे बाहरी स्रोतों से प्राप्त करने का प्रयत्न करते। या कभी कभी हमारा डाक्टर उस रोगी के लिये योग्य न होता और हमे दूसरे डाक्टर को लाने की आवश्यकता पड़ती। उस क्षेत्र में एक मेडिकल स्कूल तथा म्युनिसिपल (शहरी) अस्पताल या और हम उनसे सम्पर्क बनाये रखते। डाक्टर बोस नाम के एक स्थानीय प्राइवेट डाक्टर भी थे जिनकी सेवाएँ उपलब्ध थीं। इस प्रकार से महाराज विशेष रूप से देखते थे कि हम प्रत्येक रोगी के लिये जो भी बन पड़े उसके लिये भरसक प्रयत्न करें। उनका ध्यान सर्वदा रोगियों की ओर रहता कि हम उनकी सेवा किस प्रकार से कर पायें। आस पड़ोस के गरीब लोगों को इस अस्पताल की आवश्यकता थी क्योंकि उनके लिये जाने की और कहीं भी जगह न थी। वे कहा करते कि कल्याणानन्द महाराज उनके लिये भगवान हैं। मैंने अनेक बार स्थानीय लोगों को स्वामी निश्चयानन्दजी की प्रशंसा करते भी सुना। वे वास्तव में ही उनके प्रति कृतज्ञ थे, क्योंकि उन्होंने उनकी सेवा इस प्रकार से की थी, मानो वे उनके अपने ही थे। उन सभी लोगों ने इसे याद रखा था। प्रत्येक व्यक्ति कहा करता था कि दूसरे व्यक्ति वे थे जिन्होंने सभी रोगियों की बड़े यत्न और स्नेह से सेवा की। जब भी मैं ऐसा सुनता तो मैं सोचता; क्या हम भी कभी इस स्तर पर पहुँच सकते हैं?

एक अन्य बात महाराज यह कहा करते थे, 'तुम सेवा करने आये हो, करवाने नहीं। कोई दूसरा तुम्हारी सेवा करे इससे अच्छा है कि बीमार मत पड़ो।' वे इस विषय में बड़े सावधान थे। यहाँ तक कि यदि हमें जरा भी मलेरिया बुखार होता तो हम उन्हें नहीं बताते थे। हम कुछ दवाईयाँ ले लिया करते थे और काम में लगे रहते थे, क्योंकि हम यह कभी नहीं चाहते थे कि हम बिस्तर पकड़ लें और स्वयं दूसरे की सेवा करने के स्थान पर हमें किसी और से सेवा करवाने की आवश्यकता पड़ जाये।

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)

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