Sunday, 27 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 15

यहाँ स्मरणीय है कि विद्या मन्दिर तथा सारदापीठ के नाम से जो विशाल शिक्षा-केन्द्र रामकृष्ण मिशन द्वारा परिचालित हो रहे हैं, उसकी नींव जिन लोगों के आशीर्वाद से सिंचित हुई है, उनमें स्वामी विरजानन्द ही प्रमुखतम हैं। स्वामीजी के आदर्श के अनुसार रामकृष्ण मिशन का यह विशेष शिक्षा-प्रयास स्वामी विमुक्तानन्द की कार्य-कुशलता तथा साधना के फलस्वरूप ही साकार हो सका था। स्वामी विरजानन्द के निरन्तर प्रोत्साहन तथा प्रेरणा ने ही स्वामी विमुक्तानन्द में कर्मशक्ति उत्पन्न की थी। स्वामी विरजानन्द प्रायः ही कहते, 'स्वामीजी विमुक्तानन्द के ऊपर सवार हो गए हैं।' प्रायः अपने हर पत्र में स्वामी विरजानन्द उन्हें प्रेरणा देते हुए इस प्रकार लिखते, 'तुम कॉलेज के लिए जो इतना प्रयास कर रहे हो, यह देखकर मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होती है। श्रीठाकुर और स्वामीजी की इच्छा से यह कार्य सम्पन्न हो जाए, तो सबको बड़ा आनन्द होगा।'

३१ जनवरी १९४० ई. को, स्वामीजी की पुनीत आविर्भाव-तिथि के अवसर पर, मठाधीश विरजानन्दजी के कर कमलों द्वारा ही रामकृष्ण मिशन के सर्वप्रथम कॉलेज - विद्या मन्दिर का शिलान्यास हुआ। १९४१ई. की ४ जुलाई को, स्वामीजी के महाप्रयाण दिवस पर, इस संस्था का कार्य आरम्भ हुआ। श्यामलाताल से विरजानन्दजी का आशीर्वाद तार के माध्यम से आया था - 'इसकी उज्ज्वल सफलता के लिए श्रीरामकृष्ण तथा स्वामीजी की कृपा तथा आशीर्वाद इस पर वर्षित हों। इसके साथ ही मैं अपनी प्रार्थना भी भेजता हूँ।'

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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

Saturday, 26 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 14

अध्यक्ष होने के शीघ्र बाद ही विरजानन्दजी हृदय तथा यकृत के रोगग्रस्त हो गए। पर उन्हें कर्म से भला कहाँ विश्राम था ! मठ तथा मिशन के विभिन्न दायित्वपूर्ण कार्यों में लगे रहने के बावजूद संघ-संचालन की विभिन्न छोटी-मोटी बातों पर भी उनकी सदा सतर्क दृष्टि लगी रहती थी। संघ के संन्यासियों के आध्यात्मिक जीवन के नियोजन के लिए विशेष प्रयत्न करना भी संघनायक विरजानन्दजी का एक प्रमुख लक्ष्य था। उनके निरभिमान नेतृत्व में एक अद्भुत आकर्षण था। संघगुरु होकर भी सभी संन्यासियों के श्रेष्ठ सेवक के रूप में अपना परिचय देते हुए उन्हें एक असाधारण गौरव-बोध होता था। अपने संन्यासी-शिष्यों को उपदेश देते समय उन्हें यह कहते सुना गया है, 'अपने संघ के संन्यासी-सेवकों के प्रमुख संन्यासी-सेवक के रूप में, मैं अपने प्रेम और उससे भी अधिक अपने कर्तव्य द्वारा, अपने जीवन की अन्तिम साँस तक तुम सबकी सेवा करने को बाध्य हूँ।'

अपने गुरुदेव के आदेश का अक्षरशः पालन करना ही विरजानन्दजी के जीवन का व्रत था। इसीलिए उनके बाद के जीवन में पग-पग पर, उनके हर वाक्य में, स्वामीजी का आदेश तथा इच्छा को साकार करने की कामना ही व्यक्त हुई है। स्वामीजी द्वारा परिकल्पित संघ की कार्यप्रणाली के वे ही सर्वश्रेष्ठ धारक तथा वाहक थे। स्वामीजी की कल्पना का भारत उनके भी ध्यान में प्रकट हुआ था। 'सम्पूर्ण विश्व की मुक्ति भारत के आध्यात्मिक पुनर्जागरण पर ही निर्भर है' स्वामीजी के इस सन्देश का प्रचार करते हुए वे सारे भारत का दौरा करते रहे। उनके गुरुदेव की आकांक्षाएँ उनके मनश्चक्षुओं के समक्ष मानो वास्तविक रूप धारण कर लेती थी। स्वामीजी की जन्म शताब्दी के अवसर पर बेलूड़ मठ में जिस 'विवेकानन्द विश्वविद्यालय' की स्थापना का प्रयास हुआ था, उसके काफ़ी पूर्व ही विरजानन्दजी ने एक व्याख्यान में उसकी परिकल्पना देते हुए कहा था, 'मैं निश्चित रूप से विश्वास करता हूँ कि मेरे परम प्रिय आचार्य की जाग्रत भारत की आकांक्षा अवश्य पूर्ण होगी। कुछ वर्ष पहले कोई सोच भी नहीं सकता था कि स्वामीजी के निर्देश के अनुरूप गंगा के तट पर श्री रामकृष्ण की स्मृति में एक भव्य मन्दिर इतनी शीघ्र स्थापित हो सकेगा। और अब मिशन स्वामीजी की भविष्य दृष्टि के अनुरूप एक कॉलेज स्थापित करने का प्रयास कर रहा है, जो सम्भवतः विश्वविद्यालय का केन्द्र-स्वरूप हो।'

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सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

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Friday, 25 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 13

एक संन्यासी का मर्मस्पर्शी संस्मरण यहाँ उद्धृत करने योग्य है - 'एक बार मैंने विरजानन्दजी से पूछा था, "महाराज, आपका स्वास्थ्य इस समय इतना ख़राब है। आपको प्रायः ही तेज बुख़ार रहता है, तो भी आप सुबह नौ बजे से दो-ढाई बजे तक दीक्षा के लिए बैठते हैं। आपके लिए इतना श्रम करना उचित नहीं है। महापुरुष महाराज तो अपने अन्तिम दिनों में बिस्तर पर बैठे-बैठे ही एक साथ अनेक लोगों को दीक्षा दे देते थे। आप भी वैसा ही क्यों नहीं करते?" मेरी यह बात सुनकर उन्होंने हँसते हुए उत्तर दिया, "ठाकुर इस शरीर के द्वारा जितने लोगों पर जितनी भी कृपा करवाना चाहेंगे, उतना तो मुझे करना ही होगा, भाई। तो फिर मैं हड़बड़ी क्यों करूँ?"י

संघाध्यक्ष के रूप में उन्होंने कई बार भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक की यात्रा करते हुए श्रीरामकृष्ण-विवेकाननन्द के सन्देश को घर-घर तक पहुँचाया। जब भी, जहाँ भी उनका पदार्पण हुआ हर नर-नारी तथा बालक-वृद्ध आकर उन्हें घेर लेते और अपने-अपने भाव के अनुसार शान्ति तथा सांत्वना पाकर घर लौटते। 'यदि तू अपनी मुक्ति के लिए चेष्टा करेगा, तो निश्चित रूप से नरक में जाएगा; और यदि दूसरों की मुक्ति के लिए कार्य करेगा, तो तत्काल मुक्त हो जाएगा' - लगता है कि श्रीगुरु का यह आदेश विरजानन्दजी के हृदय में सर्वदा स्पन्दित होता रहता था, इसीलिए उनके जीवन में 'परोपकार-व्रत' इतने उज्ज्वल रूप से मूर्तिमान हो उठा था। इतिहास साक्षी है कि उनके नेतृत्व मे रामकृष्ण संघ का काफ़ी विस्तार हुआ।

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Thursday, 24 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 12

महासचिव के रूप में स्वामी विरजानन्द की उपस्थिति संघ के इतिहास में चिर काल तक अक्षुण्ण बनी रहेगी। नए या पुराने, प्रत्येक साधु तथा ब्रह्मचारी को वे जिस स्नेह तथा प्रीति की दृष्टि से देखते थे, सबके प्रति उनका जो असाधारण उत्तरदायित्व का बोध था, वह इस बृहत् धर्मसंघ के प्रशासनिक क्षेत्र में भी सदा आदर्श बना रहेगा। मठ के वर्तमान वरिष्ठ सदस्यों के व्यक्तिगत संस्मरणों में यह व्यक्त हो उठता है। यथा, एक वरिष्ठ संन्यासी का कहना है -

'पूजनीय कालीकृष्ण महाराज ने मेरी जिस प्रकार रक्षा की थी, उसे मैं आजीवन नहीं भूल सकता। अब भी उसकी याद आने पर आँखें नम हो जाती हैं। उनका क्या प्रेम-भाव था छोटे-बड़े सबके प्रति उनकी कैसी सहानुभूति थी! अब तो ऐसा देखने में नहीं आता और न ही कल्पना की जा सकती है। तब वे मठ व मिशन के महासचिव थे। मैं काशी-सेवाश्रम का ब्रह्मचारी था। एक-एक कर तीन टेलिग्रामों में पिता की बीमारी की सूचना आई कि वे एक बार मुझे देखना चाहते थे। मेरे पिता भी पूजनीय शिवानन्दजी महाराज के शिष्य तथा ठाकुर के भक्त थे। खैर, काशी से मुझे छुट्टी तो मिली, परन्तु एक विकट समस्या सामने आ पड़ी। उन दिनों स्वदेशी आन्दोलन चल रहा था। हमारा घर जिस अंचल में था, वहाँ पुलिस द्वारा कारण-अकारण खूब धर-पकड़ चल रही थी। उन दिनों उस अंचल में स्वदेशी आन्दोलन की हवा ज़ोरों से चल रही थी। विशेषकर मुझे जहाँ जाना था, वहाँ के युवकों पर पुलिस का खुफिया विभाग कड़ी निगाह रखे हुए थे। मैंने बेलूड़ मठ जाकर कालीकृष्ण महाराज को पिता का समाचार दिया और बताया कि वे मुझे एक बार देखना चाहते हैं। यह सुनते ही उन्होंने मुझे जाने की अनुमति दे दी। मैंने पुलिस आदि के आतंक की बातें उनके सामने नहीं कीं। मेरे मन का भय मन में ही छिपा रहा। परन्तु उनकी कैसी अहैतुकी करुणा तथा अन्तर्दृष्टि थी! वे मेरे मुख की ओर देखते ही बोले, "भय की कोई बात नहीं है। मैं एक पत्र लिखकर तुम्हारे हाथ में दे देता हूँ। कहीं कोई असुविधा होने पर वह पत्र दिखा देना। पुलिस तुम्हें कुछ भी नहीं कहेगी। तुम्हारा सारा उत्तरदायित्व मेरे ऊपर है।" यह कहने के बाद उन्होंने अपने हाथ से एक ऐसा सुन्दर पत्र लिखकर मेरे हाथ में दे दिया जिसे पढ़कर मैं अवाक् रह गया। उन्होंने लिखा था, "इस बालक के बारे में यदि किसी को किसी तरह की शिकायत हो, तो बेलूड़ मठ में सीधे मुझे सूचित किया जाए। इस बालक के विषय में सारी ज़िम्मेदारी मेरी है। लड़के को कहीं भी, किसी तरह की असुविधा में न डाला जाय।" इत्यादि। वस्तुतः महाराज के उस पत्र ने ही मेरी रक्षा की थी। खुफिया पुलिस तीन-चार बार मेरे पीछे लगी थी। बाद में उन्होंने हमारे घर पर भी छापा मारा था। परन्तु उन लोगों को महाराज का वह पत्र दिखाने पर मेरे ऊपर कोई भी संकट नहीं आया।'

एक अन्य वरिष्ठ संन्यासी ने लिखा है- 'कालीकृष्ण महाराज की लोगों के साथ व्यवहार की एक विशिष्ट रीति थी। वे किसी को सीधे "यह करो" या "यह मत करना" नहीं कहते थे। वे बड़े मधुर शब्दों में केवल समस्या के बारे में अवगत करा देते थे। पत्रों के द्वारा भी वे ऐसा ही करते।'

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Wednesday, 23 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 11

१९१३ ई. में उनका मन मायावती आश्रम के अध्यक्ष पद से निवृत्ति लेकर एक बार फिर साधना में डूब जाने को व्याकुल हो उठा। इसी उद्देश्य से मदर सेवियर की सहायता से उन्होंने निर्जन वन्य अंचल में एक छोटे-से आश्रम की स्थापना की। वह उनके साधक-जीवन की असंख्य स्मृतियों से जुड़ा हुआ है। स्थानीय लोग उस अंचल को 'श्याँला' कहते थे। इस निर्जन पर्वतीय वनभूमि का क्षेत्र मन को सहज ही अन्तर्मुखी कर डालता है। पर्वत की ढलान पर एक के बाद एक तीन सरोवर स्थित हैं। इसके एक ओर अति उच्च तुषार-आवृत्त हिमालय है, तो दूसरी ओर ५००० फीट नीचे हरी-भरी घाटी है। श्याँला को 'श्यामला' में रूपान्तरित करके और उसके साथ श्यामल प्रतिच्छाया युक्त 'ताल' शब्द को जोड़कर विरजानन्द ने इस नवीन वनांचल को नया नाम दिया था - श्यामलाताल।

१९१४ ई. के अन्त से लेकर करीब १२ वर्ष उन्होंने इसी मठ में तपस्या करते हुए बिताए थे। धीरे-धीरे इस आश्रम से जुड़े हुए एक रामकृष्ण सेवाश्रम का भी निर्माण हो गया। श्यामलाताल में ही रहकर कठोर साधना के साथ-साथ उन्होंने स्वामीजी की जीवनी के तीसरे तथा चौथे खण्ड के सम्पादन तथा प्रकाशन का कार्य भी सम्पन्न किया। १९१९ ई. में करीब पाँच महीने उन्होंने दक्षिण भारत के तीर्थों के दर्शन किए तथा श्रीलंका का परिभ्रमण किया था।

विरजानन्द के मन की सहज प्रवृत्ति तपस्या की ओर थी और जब वे मठ तथा मिशन के अध्यक्ष पद पर आसीन हुए, तब भी इसमें कोई व्यतिक्रम नहीं दीख पड़ा। उनके व्यक्तिगत जीवन की यह तप के प्रति निष्ठा दूसरों के जीवन को भी तपस्या की ओर प्रेरित करती। उनके समीप आनेवाले और भी अनेक लोग उनके इस त्याग-तपस्यामय आदर्श से प्रभावित हुए थे। उदाहरण के लिए संघ के एक वरिष्ठ संन्यासी की यह स्मृति प्रस्तुत है, 'विश्वरंजन महाराज ने कहा था- वे जब वाराणसी में तपस्या कर रहे थे, तब वे दोनों समय मन्दिर से प्रसाद लेकर उदरपूर्ति किया करते थे। उसी समय पूजनीय कालीकृष्ण महाराज तीर्थयात्रा करते हुए वहाँ पहुँचे और विश्वरंजन महाराज को वहाँ तपस्या करते देख बहुत आनन्दित हुए। परन्तु पूजनीय महाराज ने उनसे एक बात कही, "देखो विश्वरंजन, बिना कोई सेवा किए मन्दिर से प्रतिदिन प्रसाद ग्रहण करने से दाता के पापों का अंश लेना पड़ता है।" उसी दिन से महाराज के निर्देशानुसार विश्वरंजन महाराज प्रतिदिन ठाकुर की सेवा के लिए फूल तोड़कर माला बना दिया करते थे।'

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Tuesday, 22 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 10

स्वामी अखण्डानन्द ने स्वामीजी की जीवनी का प्रथम खण्ड पढ़ने के बाद विरजानन्द के नाम एक भावपूर्ण पत्र लिखा था। महुला से १ फ़रवरी १९१३ को लिखित उस पत्र के कुछ अंश इस प्रकार हैं-

प्रिय विरजानन्द,

जीवनी का पहला खण्ड मैंने आद्योपान्त पढ़ा और जब तक मैं उसे पढ़ता रहा, तब तक रोमांचित शरीर के साथ मानो ठाकुर तथा स्वामीजी को साक्षात् देखता रहा। वही दक्षिणेश्वर, वही काशीपुर के उद्यान आदि की बातें पढ़ते-पढ़ते सब कुछ हूबहू आँखों के सामने आकर खड़ा हो जाता है। धन्य है मदर सेवियर! और धन्य है स्वामीजी के 'प्राच्य तथा पाश्चात्य शिष्यगण', जिनके अधिक प्रयास के फलस्वरूप आज हम जनता के समक्ष ऐसी सर्वांग सुन्दर 'जीवनी' प्रस्तुत कर सके। तुम सभी के निष्ठापूर्ण प्रयास के फलस्वरूप और मदर (सेवियर) की असीम भक्ति के कारण, स्वयं स्वामीजी ने ही अपनी जीवनी में स्वयं को ढाल दिया है! तुम लोगों की समवेत चेष्टा तथा अचल भक्ति के फलस्वरूप श्री स्वामीजी को मानो सर्वदा ही तुम लोगों के इस ग्रन्थ में प्रविष्ट होकर निवास करना पड़ेगा।

एक बात और - पहला खण्ड पढ़ने के बाद दूसरे खण्ड के लिए और चार महीने का विलम्ब प्रायः असह्य ही प्रतीत होगा। दूसरा खण्ड पाने तक मैं दिन गिनते रहूँगा। मदर को मेरी ओर से कहना कि अद्वैत आश्रम से जो श्री स्वामीजी की जीवनी निकली है, उसकी कोई तुलना नहीं है। एक इसी कार्य के लिए 'अद्वैत आश्रम' का गौरव अक्षुण्ण तथा चिर उज्ज्वल रहेगा ! दूसरा खण्ड प्रकाशित होते ही मुझे भेजना मत भूलना। उसके कब तक निकलने की सम्भावना है, यह भी लिखकर सूचित करना।

स्वामीजी की ग्रन्थावली के एक खण्ड का पाठ करने के बाद अभेदानन्दजी ने विरजानन्द को एक पत्र लिखा, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रसंग में उल्लेखनीय है - 'स्वामीजी के Memorial edition के अनुवादित अंश बड़े सुन्दर हैं। The East and the West (प्राच्य और पाश्चात्य) को जितना देखा है - beyond criticism (त्रुटिहीन) है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम उनके अमूल्य रत्नों को जगत् में वितरित करके जगत् को समृद्ध बना रहे हो। यह एक बड़ा उत्तम कार्य है और व्याख्यान आदि देने की अपेक्षा काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। यह तुम्हारे लिए एक ऐसे संन्यासी के लिए सुरक्षित रखा हुआ था, जिसमे अनन्त धैर्य, शान्ति और साथ ही अटल उत्साह है।'

स्वामी शुद्धानन्द ने भी इस जीवनी को पढ़ने के बाद विरजानन्द को बधाई देते हुए लिखा, 'जैसा अथक परिश्रम करके तुम जो इस बृहदाकार जीवनी को प्रकाशित कर रहे हो, मुझे नहीं लगता कि कोई और वैसा कर पाता।'

स्वामीजी की भावधारा के प्रचार के फलस्वरूप आज देश-विदेश में जो इतनी चेतना दीख पड़ती है, उसके पीछे निहित मौन अथक प्रयास के इतिहास को शायद अब भी बहुत-से लोग नहीं जानते।

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Monday, 21 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 9

१९०६ से १९१३ ई. तक विरजानन्द अद्वैत आश्रम के अध्यक्ष रहे। इस आश्रम के लिए यह सचमुच ही एक विशिष्ट समय सिद्ध हुआ। मायावती आश्रम उन दिनों अर्थाभाव के संकट से गुज़र रहा था। विरजानन्द जैसे मितव्ययी, प्रबन्ध-कुशल, धैर्यवान तथा सहिष्णु अध्यक्ष के नेतृत्व की विशेष आवश्यकता थी। उनके कुशल संचालन में आश्रम क्रमशः स्वावलम्बी हो उठा और 'प्रबुद्ध भारत' पत्रिका के प्रसार में भी काफी वृद्धि हुई। 

स्वरूपानन्द द्वारा परिकल्पित स्वामी विवेकानन्द के सम्पूर्ण साहित्य का पाँच खण्डों में संकलन तथा प्रकाशन का कठिन उत्तरदायित्व भी उन्होंने स्वयं ही स्वीकार किया। उक्त ग्रन्थमाला (Complete Works of Swami Vivekananda) के अतिरिक्त स्वामीजी की बृहत् अँग्रेज़ी जीवनी (The Life of Swami Vivekananda by his Eastern and Western Disciples) का चार खण्डो में सम्पादन तथा मुद्रण भी स्वामी विरजानन्द का एक अन्य महान योगदान है। 

उन दिनों उन्हें सुबह से लेकर देर रात तक कठोर परिश्रम करना पड़ता था। स्वामीजी की जीवनी की पाण्डुलिपि को जब स्वामी सारदानन्द के पास संशोधन हेतु भेजा गया, तो उन्होंने कोलकाता से एक पत्र में लिखा था, 'स्वामीजी की जीवनी के विषय में तुमने जो लिखा है, उसे जहाँ तक सम्भव होगा देख लूँगा। उसके संशोधन का उत्तरदायित्व में स्वीकार करता हूँ, परन्तु कह नहीं सकता कि मैं उसमें विशेष कुछ जोड़ सकूँगा या नहीं।... तुमसे विशेष अनुरोध है कि तुम अत्यधिक परिश्रम करके अपने स्वास्थ्य को चौपट मत कर देना। तुम्हारे न रहने से मायावती आश्रम निश्चित रूप से बन्द हो जाएगा।... मेरी यही प्रार्थना है कि ठाकुर तुम्हें सकुशल रखें।' 

विरजानन्द ने अपने गुरुदेव के आशीर्वाद की अलौकिक शक्ति से उत्साहित होकर इस कठिन कार्य को सम्पन्न किया था। यह कार्य सचमुच ही समग्र राष्ट्र के लिए उनकी एक चिर-स्मरणीय भेंट है।

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Sunday, 20 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 8

इस भ्रमण के दौरान उन्होंने मथुरा, वृन्दावन, कनखल, हरिद्वार आदि तीथों के दर्शन भी किए थे। उनके गुरुभ्राता कल्याणानन्द के अथक परिश्रम से कुछ समय पूर्व कनखल में भी सेवाश्रम स्थापित हुआ था। विरजानन्द ने भी इस सेवाश्रम के लिए अर्थभिक्षा की थी। इसके बाद उन्होंने ऋषीकेश में कुछ दिन ध्यान-चिन्तन में बिताया था।

गुजराँवाला में विरजानन्द की भेट अद्वैतवादी साधु स्वामी हंसराज के साथ हुई। उनके पास स्वामीजी के हस्ताक्षर से युक्त एक काग़ज़ का टुकड़ा देखकर वे परम आनन्दित हुए। उस काग़ज़ पर संस्कृत तथा अँग्रेज़ी भाषा में लिखा था, 'आज से स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती स्वामी हंसराज के नाम से जाने जाएँगे।' 

कराची में उनकी स्वामी सच्चिदानन्द तथा सुरेश्वरानन्द के साथ भेंट हुई। उन लोगों के साथ वे पोरबन्दर होते हुए द्वारका के दर्शन कर आए। उसके बाद विरजानन्द जूनागढ़ तथा गिरनार होते हुए अहमदाबाद गए। उत्तरी तथा पश्चिमी भारत के सैकड़ों लोग उनकी उच्च आध्यात्मिकता तथा उदार व्यक्तित्व के सम्पर्क में आकर काफ़ी लाभान्वित हुए। उनकी इस प्रचार-यात्रा के फलस्वरूप 'प्रबुद्ध भारत' पत्रिका के ग्राहकों की संख्या में भी आशातीत वृद्धि हुई।

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Saturday, 19 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 7

१९०१ ई. के अप्रैल में विरजानन्द केदार-बदरीनाथ तीर्थों के दर्शन करने गए थे। उनके साथ गुरुभाई ज्ञान महाराज भी थे। बदरीनाथ के भावभीने परिवेश में ध्यानप्रिय विरजानन्द और भी अधिक अन्तर्मुखी हो उठे। परिव्राजक संन्यासी की इस तीर्थ-परिक्रमा के दौरान उनके पास केवल पाँच रुपए थे। तीर्थयात्रा से लौटने के बाद उन्होंने अपने आपको पूरी तरह से अद्वैत आश्रम की परिकल्पना को साकार करने में समर्पित कर दिया। 

मायावती से प्रकाशित होनेवाले 'प्रबुद्ध भारत' और स्वामीजी द्वारा संकल्पित आदर्श के अनुरूप वेदान्त के व्यापक प्रचार हेतु विरजानन्द ने मदर सेवियर तथा स्वरूपानन्द के साथ स्वयं को पूर्ण रूप से लगा दिया था। १९०१ ई. के अक्तूबर में 'प्रबुद्ध भारत' पत्रिका के प्रचार हेतु उन्होंने उत्तरी तथा पश्चिमी भारत का दौरा किया। इसी सिलसिले में वे उत्तरप्रदेश, पंजाब, सिन्ध, गुजरात तथा महाराष्ट्र के अनेक स्थानों में गए और अनेक प्रकार के लोगों के सम्पर्क में आए तथा तरह-तरह के अनुभव प्राप्त किए। श्रीरामकृष्ण- विवेकानन्द का भाव किस प्रकार धीरे-धीरे लोगों को यथार्थ कल्याण की ओर प्रेरित कर रहा है, इसे प्रत्यक्ष देखकर वे आशा से उद्दीप्त हो उठे। 

साथ ही भारतीय समाज के अति निकृष्ट पहलू के साथ भी उनका यथेष्ट परिचय हुआ। शिक्षित धनिक-वर्ग का जघन्य स्वरूप देखकर वे विस्मित हुए थे। एक ओर जहाँ उन्हें श्रद्धा, प्रीति, स्वागत सत्कार, सरलता देखने को मिले, वहीं दूसरी ओर उन्हें तिरस्कार तथा अपमान के घूँट भी पीने पड़े। यहाँ तक कि किसी-किसी ने उन्हें जूते मारने तक की धमकी दी थी। समदर्शी विरजानन्द ने मान-अपमान - दोनों को ही समान रूप से स्वीकार किया।

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सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

Friday, 18 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 6

एक दिन विरजानन्द ने स्वामीजी के समक्ष कुछ दिन निर्जन में रहकर तपस्या करने की इच्छा व्यक्त की। 

स्वामीजी उन्हें समझाते हुए बोले, 'कठोर तपस्या करके शरीर को बरबाद मत करो। देख न, हम लोगों ने कठोरता करके अपने शरीर को नष्ट कर डाला है। इससे क्या लाभ हुआ? तुम लोग हमारे अनुभव से सीखो। फिर ध्यान भी भला कितनी देर तक करोगे? शायद पाँच मिनट - यदि एक मिनट भी मन स्थिर हो जाए, तो वही काफ़ी है। इसके लिए सुबह-शाम नियमित रूप से थोड़ी देर जप-ध्यान करने की आवश्यकता है। बाकी समय शास्त्र-पाठ तथा लोकहित के कार्य में व्यस्त रहना चाहिए। मैं चाहता हूँ कि मेरे शिष्यगण तपस्या की जगह कर्म पर अधिक ध्यान दें।' 

तथापि विरजानन्द ने दृढ़ विश्वास के साथ कहा, 'हाँ, आप जो कह रहे हैं, वह ठीक ही है। तथापि चरित्र-बल तथा आध्यात्मिक शक्ति अर्जित करने के लिए तपस्या की बहुत ज़रूरत है, अन्यथा ठीक-ठीक निष्काम कर्म करना भी सम्भव नहीं हो पाता।' 

विरजानन्द के चले जाने पर स्वामीजी ने सभी उपस्थित लोगों से कहा, 'कालीकृष्ण ने ठीक ही कहा। मैं उसके हृदय की बात समझता हूँ। ध्यान-भजन और संन्यासी के उन्मुक्त जीवन की भी क्या कोई तुलना है? यही तो संन्यास-जीवन का प्रधान गौरव है, यह बात क्या मैं नहीं जानता! मैंने भी कभी इसी प्रकार समय बिताया है - एकमात्र भगवान के ऊपर निर्भर रहते हुए भिक्षाटन करते हुए मैंने पूरे देश का भ्रमण किया है। क्या ही सुखमय दिन थे! सर्वस्व देकर भी यदि वे दिन पुनः प्राप्त हो जाएँ, तो भी मैं तैयार हूँ।'

अस्तु, विरजानन्द ने आखिरकार मायावती में रहकर अपने गुरुदेव द्वारा निर्देशित ध्यान तथा कर्म के समन्वित आदर्श का ही अक्षरशः पालन किया था।

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Thursday, 17 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 5

स्वामी तुरीयानन्द (हरि महाराज) बड़े स्नेहपूर्वक विरजानन्द को शास्त्र आदि पढ़ाया करते थे। आलमबाज़ार मठ-भवन में ऊपर चढ़ने की सीड़ी के नीचे एक कोने में बैठकर वे एकाकी शास्त्र-पाठ करते हरि महाराज सीड़ी से उतरते-चढ़ते समय उनके पास आकर बैठते और पाठ समझा देते। इन दिनों हरि महाराज के साथ उनका इतना घनिष्ठ सम्बन्ध जुड़ गया था कि उनके परवतीं जीवन पर भी इसका बहुत प्रभाव पड़ा। 

मन में इस काल की स्मृति जागने पर वे हरि महाराज के बारे में कहते, 'आलमबाज़ार मठ में आकर हरि महाराज बड़े अन्तर्मुखी भाव में रहते थे। परिव्राजक जीवन समाप्त करके वे मठ में आनेवाले थे, इसी प्रसंग में शशि महाराज ने मुझसे कहा, "देखना, वे कैसे सिद्ध महापुरुष है"। पहले में हरि महाराज से बहुत संकोच करता था, परन्तु उन्होंने अपने स्नेह से मुझे ऐसा बाँध लिया कि अब मैं उनके साथ घनिष्ठ रूप से मिलता और अपने अवकाश का सारा समय उनके साथ बातें करने में बिता देता।'

उन दिनों मठ में नियमित रूप से चर्चा, व्याख्यान, लेखों के पाठ आदि के माध्यम से शास्त्र-व्याख्या हुआ करती थी। स्वामीजी के निर्देशानुसार प्रति रविवार बारी-बारी से प्रत्येक व्यक्ति को एक-एक विषय पर समवेत साधु-मण्डली के समक्ष व्याख्यान देना अथवा प्रबन्ध-पाठ करना पड़ता था। विरजानन्द का व्याख्यान हरि महाराज को विशेष प्रिय था; उनकी पठन-शैली की वे खूब प्रशंसा किया करते थे। एक बार बलराम मन्दिर में आयोजित ऐसी ही एक गोष्ठी में बिना किसी तैयारी के विरजानन्द द्वारा दिए गए एक सुन्दर, संक्षिप्त भाषण को सुनकर स्वामीजी भी बड़े आनन्दित हुए थे।

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Wednesday, 16 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 4

आलमबाज़ार मठ में अनुष्ठित ऐतिहासिक संन्यास-यज्ञ की स्मृति और स्वामीजी की उस दिन की अपूर्व ज्योतिर्मय मूर्ति स्वामी विरजानन्द के मानस-पटल पर सदा के लिए अंकित हो गई थी। विरजानन्दजी के ही शब्दों में - 'उनका स्वतः प्रदीप्त मुखमण्डल होमाग्नि की उज्ज्वल प्रभा से अपूर्व रूप से प्रदीप्त हो उठा। ऐसा लग रहा था मानो साक्षात् अग्नि-देवता ही नर-विग्रह धारण करके विराजमान हों। हम लोगों को संन्यास-दीक्षा देने के बाद स्वामीजी के आनन्द की सीमा न रही। गृहस्थ को पुत्र होने पर भी शायद इतना आनन्द नहीं होता होगा।'

स्वामीजी ने उस दिन चारों नवीन संन्यासियों को हृदय से आशीर्वाद देते हुए कहा था, 'तुम लोग मानव-जीवन का सर्वश्रेष्ठ व्रत ग्रहण करने को प्रस्तुत हो; धन्य है तुम्हारा जन्म, धन्य है तुम्हारा वंश और धन्य है तुम्हारी माता! कुलं पवित्रं जननी कृतार्था।' उस दिन विरजानन्द आदि की ओर इंगित करते हुए त्यागमूर्ति स्वामीजी ने कहा था, 'ये लोग ब्रह्मचर्य से दीप्त होकर ज्वलन्त अग्नि की भाँति निवास करेंगे।'

विरजानन्द के जीवन का एक नया अध्याय आरम्भ हुआ। अब स्वामीजी के चरणों में बैठकर उनकी ज्ञान-भक्ति-योग तथा कर्म के समन्वित आदर्श की शिक्षा तथा साधना शुरू हुई। इन्हीं दिनों उन्हें स्वामीजी की व्यक्तिगत सेवा करने का दुर्लभ सौभाग्य भी प्राप्त हुआ था। श्रीगुरु से 'आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च' का मंत्र पाने के कुछ समय बाद उन्हीं के आदेश पर अकाल- पीड़ितों की सेवा करने हेतु विरजानन्दजी को देवघर (वैद्यनाथ) भेजा गया। उनके संचालन में देवघर का सेवाकार्य बड़ी कुशलतापूर्वक सम्पन्न हुआ।

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Tuesday, 15 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 3

वराहनगर मठ में बिताए गए एक दिन ने कालीकृष्ण के जीवन में इतनी हलचल मचा दी कि इसकी स्मृति उनके जीवन के अन्तिम दिन तक स्पष्ट रूप से जाग्रत रही।  देहत्याग के मात्र कुछ दिनों पूर्व भी उन्होंने इसी प्रकार कहा था, 'हम लोगों को वहाँ जाकर लगा कि मानो एक नई दुनिया में आ गए हैं – सब कुछ अद्भुत प्रतीत हुआ।... उन लोगों का जीवन देखकर और बातें सुनकर हमारे मन पर एक अमिट छाप पड़ गई – एक नया प्रकाश, एक नया जगत् मिला।'

कालीकृष्ण के लिए अब पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना कठिन हो गया। उन्हें संसार का कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और उनके हृदय में निरन्तर बेचैनी रहती थी। गहरी रात तक जागकर पढ़ाई-लिखाई के बजाय ध्यान-भजन करते रहते। कालीकृष्ण के जीवन में सहसा आए इस परिवर्तन को देखकर उनके माता-पिता बड़े चिन्तित हो उठे।

पिता त्रैलोक्यनाथ अपना धैर्य खो बैठे और एक दिन उन्होंने कालीकृष्ण को बुलाकर पूछा, 'मुझे बता कि तू चाहता क्या है?' कालीकृष्ण बड़े संकोची स्वभाव के थे, तथापि इस समय वे जरा भी नहीं हिचकिचाए। उन्होंने नम्र परन्तु दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, 'पढ़ाई-लिखाई में मेरी अब ज़रा भी रुचि नहीं रह गई है। अब मैं अपना अधिकांश समय ईश्वर-प्राप्ति के लिए साधना में बिताता हूँ।' पिता इस पर ज़रा भी विचलित नहीं हुए, परन्तु बोले, 'सांसारिक जीवन तथा ईश्वरप्राप्ति - दोनों एक साथ नहीं हो सकते। यदि तुम संसार में उन्नति करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना होगा; और यदि तुम ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें जी-जान लगाकर साधना करनी होगी। तुम्हें किस मार्ग पर चलना है, यह निश्चित कर लो।

अच्छी तरह सोच-समझकर निर्णय लेने के लिए मैं तुम्हें तीन दिनों का समय देता हूँ।' तीन दिनों के बाद कालीकृष्ण ने पिता को सूचित किया, 'मैंने निश्चय किया है कि मैं भगवत्प्राप्ति के लिए ही प्रयास करूँगा। मुझे लगता है कि वराहनगर मठ में जाकर परमहंसदेव के संन्यासी-शिष्यों के साथ रहने से इस मार्ग में मुझे बड़ी सहायता मिलेगी।' पुत्र के इस अद्भुत संकल्प की बात सुनकर पिता ने भी कहा, 'बड़ी अच्छी बात है। परन्तु धर्म जीवन बिताने के लिए अपनी माता की अनुमति लेना आवश्यक है। मुझे तो इस विषय में जरा भी आपत्ति नहीं है। मेरे चार पुत्रों में से एक यदि धर्म जीवन बिताए, तो यह मेरे लिए बड़े ही आनन्द की बात है।'

वराहनगर मठ में त्याग व अनासक्ति की साक्षात् प्रतिमूर्ति श्रीरामकृष्ण के शिष्यों के सान्निध्य में कालीकृष्ण का त्यागमय जीवन विकसित होने लगा। धीरे-धीरे मठ के साधारण कार्यों से लेकर ठाकुर-सेवा तक के सभी कार्यों में कालीकृष्ण स्वामी रामकृष्णानन्द के दाहिने हाथ बन गए। वे बड़ी निष्ठा के साथ साधना भी करने लगे। कभी स्वामी निरंजनानन्द के साथ, तो कभी अकेले ही वे दक्षिणेश्वर चले जाते और पंचवटी में या श्रीरामकृष्ण के कमरे में बैठकर ध्यान आदि में समय बिताते। जिस भाव के साथ वे संन्यासियों की सेवा करते, वह सदैव रामकृष्ण संघ के सदस्यों के लिए एक उदाहरण बना रहेगा। उनकी सेवा-निष्ठा पर अत्यन्त मुग्ध होकर एक दिन स्वामी सारदानन्द ने कहा था, 'यह बालक कौन है, जो माँ के समान सेवा करता है?'

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आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 3

वराहनगर मठ में बिताए गए एक दिन ने कालीकृष्ण के जीवन में इतनी हलचल मचा दी कि इसकी स्मृति उनके जीवन के अन्तिम दिन तक स्पष्ट रूप से जाग्रत रही।  देहत्याग के मात्र कुछ दिनों पूर्व भी उन्होंने इसी प्रकार कहा था, 'हम लोगों को वहाँ जाकर लगा कि मानो एक नई दुनिया में आ गए हैं – सब कुछ अद्भुत प्रतीत हुआ।... उन लोगों का जीवन देखकर और बातें सुनकर हमारे मन पर एक अमिट छाप पड़ गई – एक नया प्रकाश, एक नया जगत् मिला।'

कालीकृष्ण के लिए अब पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना कठिन हो गया। उन्हें संसार का कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और उनके हृदय में निरन्तर बेचैनी रहती थी। गहरी रात तक जागकर पढ़ाई-लिखाई के बजाय ध्यान-भजन करते रहते। कालीकृष्ण के जीवन में सहसा आए इस परिवर्तन को देखकर उनके माता-पिता बड़े चिन्तित हो उठे।

पिता त्रैलोक्यनाथ अपना धैर्य खो बैठे और एक दिन उन्होंने कालीकृष्ण को बुलाकर पूछा, 'मुझे बता कि तू चाहता क्या है?' कालीकृष्ण बड़े संकोची स्वभाव के थे, तथापि इस समय वे जरा भी नहीं हिचकिचाए। उन्होंने नम्र परन्तु दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, 'पढ़ाई-लिखाई में मेरी अब ज़रा भी रुचि नहीं रह गई है। अब मैं अपना अधिकांश समय ईश्वर-प्राप्ति के लिए साधना में बिताता हूँ।' पिता इस पर ज़रा भी विचलित नहीं हुए, परन्तु बोले, 'सांसारिक जीवन तथा ईश्वरप्राप्ति - दोनों एक साथ नहीं हो सकते। यदि तुम संसार में उन्नति करना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी पढ़ाई-लिखाई में मन लगाना होगा; और यदि तुम ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें जी-जान लगाकर साधना करनी होगी। तुम्हें किस मार्ग पर चलना है, यह निश्चित कर लो।

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Monday, 14 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 2

संन्यासी होने के पूर्व स्वामी विरजानन्द का नाम कालीकृष्ण बोस था।

कालीकृष्ण की माता निषादकाली देवी परम भक्तिमती तथा धर्म-परायणा थी। उनकी कुछ चारित्रिक विशेषताओं ने उनके पुत्र के जीवन को गहराई से प्रभावित किया था। परवर्ती काल में पुत्र के मुख से सुना गया था, 'माँ से मेरा सर्वदा ही बड़ा लगाव था।' निषादकाली देवी का एक विशेष गुण यह था कि घर के सारे कार्य करते हुए भी उनमें अद्भुत अनासक्ति का भाव था।

इसीलिए पुत्र ने बड़े हो जाने के बाद जब उनके समक्ष संसार-त्याग की इच्छा व्यक्त की, तो उन्होंने उसे बहुत प्रोत्साहित किया। वैराग्य-पथ के यात्री पुत्र को उन्होंने पीछे खींचने की चेष्टा नहीं की। बल्कि वे बोलीं, 'मैं क्यों तुम्हारे धर्मपथ में बाधक होऊँगी, बेटा? मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं।' इस मायामय संसार में ऐसी माताएँ भला कितनी मिलेंगी? पति के देहावसान के बाद निषादकाली देवी भी गृहस्थी से पूर्ण रूप से अलग होकर वृन्दावन-धाम चली गईं और वहीं अपने जीवन के अन्तिम दिन साधन- भजन करते हुए बिताए।

कालीकृष्ण एक बड़े ही परिश्रमी छात्र थे, परन्तु उनकी शिक्षा केवल विद्यालय की चहारदीवारी तक ही सीमित न थी, उसकी परिधि में चारों ओर विस्तार होता जा रहा था। वे अति अल्पायु में ही अनेक प्रकार के हाथ के काम, शिल्पकला, रसोई, उद्यानिकी आदि में निपुण हो गए थे। परवर्ती काल में प्रसंग उठने पर वे कभी-कभी कहते 'मैं सर्वदा ही बड़ा व्यावहारिक था जब जिस कार्य को पकड़ता, उसे करके ही छोड़ता।'

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Sunday, 13 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 1

'परन्तु मैं जानता ही क्या हूँ, जो बोलूंगा?'

गम्भीर स्वर में उत्तर मिला, 'ठीक है, खड़े होकर यही कहना कि मैं कुछ नहीं जानता। "मैं कुछ नहीं जानता" - यह कहना भी तो एक बहुत बड़ी शिक्षा है। "मैं सब कुछ जानता हूँ" - यह भाव अज्ञान है।'

तब भी तरुण शिष्य के मन में गुरु का निर्देश मानने के लिए दृढ़ता नही आ रही थी।

आचार्य ने आगे कहा, 'देख, यदि तू अपनी मुक्ति के लिए चेष्टा करेगा, तो निश्चित रूप से नरक में जाएगा, और यदि दूसरों की मुक्ति के लिए कार्य करेगा, तो तत्काल मुक्त हो जाएगा।'

अब शिष्य के सारे संशय दूर हो गए। उसने 'आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च' अपनी मुक्ति तथा विश्व के कल्याणार्थ अपना जीवन बलिदान कर देने का संकल्प कर लिया। 

श्रीगुरु के मुख से उच्चरित यह सन्देश शिष्य के परवर्ती जीवन में साकार हो गया। इसीलिए लोकगुरु स्वामी विवेकानन्द के संन्यासी शिष्य स्वामी विरजानन्द का वैराग्य-दीप्त जीवन, त्याग और सेवा के इतिहास में एक अविस्मरणीय प्रेरणा-दीप और तपस्या एवं कर्म के समन्वय का एक अपूर्व आदर्श हो उठा था।


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Saturday, 12 October 2024

WOMEN OF INDIA -I

या देवी सर्वभूतेषु  वैराग्य -रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

If one becomes a monk, his father will have to salute him first because he has become a monk and is therefore superior to him. But to his mother he—monk or no monk—will have to go down on his knees and prostrate himself before her. He will then put a little cup of water before her feet, she will dip her toe in it, and he will have to drink of it. A Hindu son gladly does this a thousand times over again.
Where the Vedas teach morality, the first words are, "Let the mother be your God [Taittiriya Upanishad 1.11] "  —and that she is. When we talk of woman in India, our idea of woman is mother. The value of women consists in their being mothers of the human race. That is the idea of the Hindu.
I have seen my old master taking little girls by the hands, placing them in a chair and actually worshipping them—placing flowers at their feet and prostrating himself before these little children—because they represented the mother God.

The mother is the God in our family. The idea is that the only real love that we see in the world, the most unselfish love, is in the mother—always suffering, always loving. And what love can represent the love of God more than the love which we see in the mother? Thus the mother is the incarnation of God on earth to the Hindu.

"That boy alone can understand God who has been first taught by his mother." I have heard wild stories about the illiteracy of our women. Till I was a boy of ten, I was taught by my mother. I saw my grandmother living and my great-grandmother living, and I assure you that there never was in my line a female ancestor who could not read or write, or who had to put "her mark" on a paper. If there was a woman who could not read or write, my birth would have been impossible. Caste laws make it imperative.

So these are wild stories which I sometimes hear—such as the statement that in the Middle Ages reading and writing were taken away from Hindu women. I refer you to Sir William Hunter's History of the English People, where he cited Indian women who could calculate a solar eclipse.

I have been told that either too much worship of the mother makes the mother selfish or too much love of the children for the mother makes them selfish. But I do not believe that. The love which my mother gave to me has made me what I am, and I owe a debt to her that I can never repay.

Why should the Hindu mother be worshipped? Our philosophers try to find a reason and they come to this definition: We call ourselves the Aryan race. What is an Aryan? He is a man whose birth is through religion. This is a peculiar subject, perhaps, in this country; but the idea is that a man must be born through religion, through prayers. If you take up our law books you will find chapters devoted to this—the prenatal influence of a mother on the child.

I know that before I was born, my mother would fast and pray and do hundreds of things which I could not even do for five minutes. She did that for two years. I believe that whatever religious culture I have, I owe to that. It was consciously that my mother brought me into the world to be what I am. Whatever good impulse I have was given to me by my mother—and consciously, not unconsciously.

"A child materially born is not an Aryan; the child born in spirituality is an Aryan." For all this trouble—because she has to make herself so pure and holy in order to have pure children—she has a peculiar claim on the Hindu child. And the rest [of her traits] is the same with all other nations: she is so unselfish. But the mother has to suffer most in our families.

The mother has to eat last. I have been asked many times in your country why the [Hindu] husband does not sit with his wife to eat—if the idea is, perhaps, that the husband thinks she is too low a being. This explanation is not at all right. You know, a hog's hair is thought to be very unclean. A Hindu cannot brush his teeth with the brushes made of it, so he uses the fibre of plants. Some traveller saw one Hindu brushing his teeth with that and then wrote that "a Hindu gets up early in the morning and gets a plant and chews it and swallows it!" Similarly, some have seen the husband and wife not eating together and have made their own explanation. There are so many explainers in this world, and so few observers—as if the world is dying for their explanations! That is why I sometimes think the invention of printing was not an unmixed blessing. The real fact is: just as in your country many things must not be done by ladies before men, so in our country the fact is that it is very indecorous to munch and munch before men. If a lady is eating, she may eat before her brothers. But if the husband comes in, she stops immediately and the husband walks out quickly. We have no tables to sit at, and whenever a man is hungry he comes in and takes his meal and goes out. Do not believe that a Hindu husband does not allow his wife to sit at the table with him. He has no table at all.

The first part of the food—when it is ready—belongs to the guests and the poor, the second to the lower animals, the third to the children, the fourth to the husband, and last comes the mother. How many times I have seen my mother going to take her first meal when it was two o'clock. We took ours at ten and she at two because she had so many things to attend to. [For example], someone knocks at the door and says, "Guest", and there is no food except what was for my mother. She would give that to him willingly and then wait for her own. That was her life and she liked it. And that is why we worship mothers as gods.

I wish you would like less to be merely petted and patronized and more to be worshipped! [You], a member of the human race!—the poor Hindu does not understand that [inclination of yours]. But when you say, "We are mothers and we command", he bows down. This is the side then that the Hindus have developed.

Going back to our theories—people in the West came about one hundred years ago to the point that they must tolerate other religions. But we know now that toleration is not sufficient toward another religion; we must accept it. Thus it is not a question of subtraction, it is a question of addition. The truth is the result of all these different sides added together. Each of all these religions represents one side, the fullness being the addition of all these. And so in every science, it is addition that is the law.

Now the Hindu has developed this side. But will this side be enough? Let the Hindu woman who is the mother become the worthy wife also, but do not try to destroy the mother. That is the best thing you can do. Thus you get a better view of the universe instead of going about all over the world, rushing into different nations and criticizing them and saying, "The horrid wretches—all fit to be barbecued for eternity!"

If we take our stand on this position—that each nation under the Lord's will is developing one part of human nature—no nation is a failure. So far they have done well, now they must do better! [Applause]

Instead of calling the Hindus "heathens", "wretches", "slaves", go to India and say, "So far your work is wonderful, but that is not all. You have much more to do. God bless you that you have developed this side of woman as a mother. Now help the other side—the wife of men".

And similarly, I think (I tell it with the best spirit) that you had better add to your national character a little more of the mother side of the Hindu nature! This was the first verse that I was taught in my life, the first day I went to school: "He indeed is a learned man who looks upon all women as his mother, who looks upon every man's property as so much dust, and looks upon every being as his own soul".

There is the other idea of the woman working with the man. It is not that the Hindus had not those ideals, but they could not develop them.

It is alone in the Sanskrit language that we find four words meaning husband and wife together. It is only in our marriage that they [both] promise, "What has been my heart now may be thine". It is there that we see that the husband is made to look at the Pole-star, touching the hand of his wife and saying, "As the Pole-star is fixed in the heavens, so may I be fixed in my affection to thee". And the wife does the same.

Even a woman who is vile enough to go into the streets can sue her husband and have a maintenance. We find the germs of these ideas in all our books throughout our nation, but we were not able to develop that side of the character.

We must go far beyond sentiment when we want to judge. We know it is not emotion alone that governs the world, but there is something behind emotion. Economic causes, surrounding circumstances and other considerations enter into the development of nations. (It is not in my present plan to go into the causes that develop woman as wife.)

So in this world, as each nation is placed under peculiar circumstances and is developing its own type, the day is coming when all these different types will be mixed up—when that vile sort of patriotism which means "rob everybody and give to me" will vanish. Then there will be no more one-sided development in the whole world, and each one of these [nations] will see that they had done right.

Let us now go to work and mix the nations up together and let the new nation come.

Will you let me tell you my conviction? Much of the civilisation that comprises the world today has come from that one peculiar race of mankind—the Aryans.

 civilisation has been of three types: the Roman, the Greek, the Hindu. The Roman type is the type of organisation, conquest, steadiness—but lacking in emotional nature, appreciation of beauty and the higher emotions. Its defect is cruelty. The Greek is essentially enthusiastic for the beautiful, but frivolous and has a tendency to become immoral. The Hindu type is essentially metaphysical and religious, but lacking in all the elements of organisation and work.

The Roman type is now represented by the Anglo-Saxon; the Greek type more by the French than by any other nation; and the old Hindus do not die! Each type has its advantage in this new land of promise. They have the Roman's organisation, the power of the Greek's wonderful love for the beautiful, and the Hindu's backbone of religion and love of God. Mix these up together and bring in the new civilisation.

And let me tell you, this should be done by women. There are some of our books which say that the next incarnation, and the last (we believe in ten), is to come in the form of a woman.

We see resources in the world yet remaining because all the forces that are in the world have not come into use. The hand was acting all this time while other parts of the body were remaining silent. Let the other parts of the body be awakened and perhaps in harmonious action all the misery will be cured. Perhaps, in this new land, with this new blood in your veins, you may bring in that new civilisation—and, perhaps, through American women.

As to that ever blessed land which gave me this body, I look back with great veneration and bless the merciful being who permitted me to take birth in that holiest spot on earth. When the whole world is trying to trace its ancestry from men distinguished in arms or wealth, the Hindus alone are proud to trace their descent from saints.

That wonderful vessel which has been carrying for ages men and women across this ocean of life may have sprung small leaks here and there. And of that, too, the Lord alone knows how much is owing to themselves and how much to those who look down with contempt upon the Hindus.

- Swami Vivekananda (New Discoveries, Vol. 2, pp. 411–26)
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

Friday, 11 October 2024

WOMEN OF INDIA -I

या देवी सर्वभूतेषु भक्ति-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

A man whom I know lost three of his sons in that war. When he talks of them he is calm, but when he talks of this woman his voice becomes animated. He used to say that she was a goddess—she was not a human being. This old veteran thinks he never saw better generalship.

The story of Chānd Bibi, or Chānd Sultana [1546–1599], is well known in India. She was the Queen of Golconda, where the diamond mines were. For months she defended herself. At last, a breach was made in the walls. When the imperial army tried to rush in there, she was in full armour, and she forced the troops to go back [1].

In still later times, perhaps you will be astonished to know that a great English general had once to face a Hindu girl of sixteen.

Women in statesmanship, managing territories, governing countries, even making war, have proved themselves equal to men—if not superior. In India I have no doubt of that. Whenever they have had the opportunity, they have proved that they have as much ability as men, with this advantage—that they seldom degenerate. They keep to the moral standard, which is innate in their nature. And thus as governors and rulers of their state, they prove—at least in India—far superior to men. John Stuart Mill mentions this fact.

Even at the present day, we see women in India managing vast estates with great ability. There were two ladies where I was born who were the proprietors of large estates and patronesses of learning and art and who managed these estates with their own brains and looked to every detail of the business.

Each nation, beyond a general humanity, develops a certain peculiarity of character—so in religion, so in politics, so in the physical body, so in mental habitude, so in men and women, so in character. One nation develops one peculiarity of character, another takes another peculiarity. Within the last few years the world has begun to recognise this.

The very peculiarity of Hindu women, which they have developed and which is the idea of their life, is that of the mother. If you enter a Hindu's home, you will not find the wife to be the same equal companion of the husband as you find her here. But when you find the mother, she is the very pillar of the Hindu home. The wife must wait to become the mother, and then she will be everything.

To Be Continued..
- Swami Vivekananda (New Discoveries, Vol. 2, pp. 411–26)
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

Thursday, 10 October 2024

WOMEN OF INDIA -I

या देवी सर्वभूतेषु ज्ञान-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

During the reign of the last of the Mogul emperors—the cruel man who destroyed that most brilliant empire of India—he similarly heard of the beauty of a Rajput chieftain's daughter. Orders were sent that she should be brought to the Mogul harem.

Then a messenger came from the emperor to her with his picture, and he showed it to her. In derision she stamped upon it with her feet and said, "Thus the Rajput girl treats your Mogul emperor". As a result, the imperial army was marched into Rajputana.

In despair the chieftain's daughter thought of a device. She took a number of these bracelets and sent them to the Rajput princes with a message: "Come and help us". All the Rajputs assembled, and so the imperial forces had to go back again.

I will tell you a peculiar proverb in Rajputana. There is a caste in India called the shop class, the traders. They are very intelligent—some of them—but the Hindus think they are rather sharp. But it is a peculiar fact that the women of that caste are not as intelligent as the men. On the other hand, the Rajput man is not half as intelligent as the Rajput woman.

The common proverb in Rajputana is: "The intelligent woman begets the dull son, and the dull woman begets the sharp son". The fact is, whenever any state or kingdom in Rajputana has been managed by a woman, it has been managed wonderfully well.

We come to another class of women. This mild Hindu race produces fighting women from time to time. Some of you may have heard of the woman [Lakshmi Bāi, Queen of Jhansi] who, during the Mutiny of 1857, fought against the English soldiers and held her own ground for two years—leading modern armies, managing batteries and always charging at the head of her army. This queen was a Brahmin girl.

To Be Continued..
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