स्वामी तुरीयानन्द (हरि महाराज) बड़े स्नेहपूर्वक विरजानन्द को शास्त्र आदि पढ़ाया करते थे। आलमबाज़ार मठ-भवन में ऊपर चढ़ने की सीड़ी के नीचे एक कोने में बैठकर वे एकाकी शास्त्र-पाठ करते हरि महाराज सीड़ी से उतरते-चढ़ते समय उनके पास आकर बैठते और पाठ समझा देते। इन दिनों हरि महाराज के साथ उनका इतना घनिष्ठ सम्बन्ध जुड़ गया था कि उनके परवतीं जीवन पर भी इसका बहुत प्रभाव पड़ा।
मन में इस काल की स्मृति जागने पर वे हरि महाराज के बारे में कहते, 'आलमबाज़ार मठ में आकर हरि महाराज बड़े अन्तर्मुखी भाव में रहते थे। परिव्राजक जीवन समाप्त करके वे मठ में आनेवाले थे, इसी प्रसंग में शशि महाराज ने मुझसे कहा, "देखना, वे कैसे सिद्ध महापुरुष है"। पहले में हरि महाराज से बहुत संकोच करता था, परन्तु उन्होंने अपने स्नेह से मुझे ऐसा बाँध लिया कि अब मैं उनके साथ घनिष्ठ रूप से मिलता और अपने अवकाश का सारा समय उनके साथ बातें करने में बिता देता।'
उन दिनों मठ में नियमित रूप से चर्चा, व्याख्यान, लेखों के पाठ आदि के माध्यम से शास्त्र-व्याख्या हुआ करती थी। स्वामीजी के निर्देशानुसार प्रति रविवार बारी-बारी से प्रत्येक व्यक्ति को एक-एक विषय पर समवेत साधु-मण्डली के समक्ष व्याख्यान देना अथवा प्रबन्ध-पाठ करना पड़ता था। विरजानन्द का व्याख्यान हरि महाराज को विशेष प्रिय था; उनकी पठन-शैली की वे खूब प्रशंसा किया करते थे। एक बार बलराम मन्दिर में आयोजित ऐसी ही एक गोष्ठी में बिना किसी तैयारी के विरजानन्द द्वारा दिए गए एक सुन्दर, संक्षिप्त भाषण को सुनकर स्वामीजी भी बड़े आनन्दित हुए थे।
उन दिनों मठ में नियमित रूप से चर्चा, व्याख्यान, लेखों के पाठ आदि के माध्यम से शास्त्र-व्याख्या हुआ करती थी। स्वामीजी के निर्देशानुसार प्रति रविवार बारी-बारी से प्रत्येक व्यक्ति को एक-एक विषय पर समवेत साधु-मण्डली के समक्ष व्याख्यान देना अथवा प्रबन्ध-पाठ करना पड़ता था। विरजानन्द का व्याख्यान हरि महाराज को विशेष प्रिय था; उनकी पठन-शैली की वे खूब प्रशंसा किया करते थे। एक बार बलराम मन्दिर में आयोजित ऐसी ही एक गोष्ठी में बिना किसी तैयारी के विरजानन्द द्वारा दिए गए एक सुन्दर, संक्षिप्त भाषण को सुनकर स्वामीजी भी बड़े आनन्दित हुए थे।
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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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