Thursday, 24 October 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 12

महासचिव के रूप में स्वामी विरजानन्द की उपस्थिति संघ के इतिहास में चिर काल तक अक्षुण्ण बनी रहेगी। नए या पुराने, प्रत्येक साधु तथा ब्रह्मचारी को वे जिस स्नेह तथा प्रीति की दृष्टि से देखते थे, सबके प्रति उनका जो असाधारण उत्तरदायित्व का बोध था, वह इस बृहत् धर्मसंघ के प्रशासनिक क्षेत्र में भी सदा आदर्श बना रहेगा। मठ के वर्तमान वरिष्ठ सदस्यों के व्यक्तिगत संस्मरणों में यह व्यक्त हो उठता है। यथा, एक वरिष्ठ संन्यासी का कहना है -

'पूजनीय कालीकृष्ण महाराज ने मेरी जिस प्रकार रक्षा की थी, उसे मैं आजीवन नहीं भूल सकता। अब भी उसकी याद आने पर आँखें नम हो जाती हैं। उनका क्या प्रेम-भाव था छोटे-बड़े सबके प्रति उनकी कैसी सहानुभूति थी! अब तो ऐसा देखने में नहीं आता और न ही कल्पना की जा सकती है। तब वे मठ व मिशन के महासचिव थे। मैं काशी-सेवाश्रम का ब्रह्मचारी था। एक-एक कर तीन टेलिग्रामों में पिता की बीमारी की सूचना आई कि वे एक बार मुझे देखना चाहते थे। मेरे पिता भी पूजनीय शिवानन्दजी महाराज के शिष्य तथा ठाकुर के भक्त थे। खैर, काशी से मुझे छुट्टी तो मिली, परन्तु एक विकट समस्या सामने आ पड़ी। उन दिनों स्वदेशी आन्दोलन चल रहा था। हमारा घर जिस अंचल में था, वहाँ पुलिस द्वारा कारण-अकारण खूब धर-पकड़ चल रही थी। उन दिनों उस अंचल में स्वदेशी आन्दोलन की हवा ज़ोरों से चल रही थी। विशेषकर मुझे जहाँ जाना था, वहाँ के युवकों पर पुलिस का खुफिया विभाग कड़ी निगाह रखे हुए थे। मैंने बेलूड़ मठ जाकर कालीकृष्ण महाराज को पिता का समाचार दिया और बताया कि वे मुझे एक बार देखना चाहते हैं। यह सुनते ही उन्होंने मुझे जाने की अनुमति दे दी। मैंने पुलिस आदि के आतंक की बातें उनके सामने नहीं कीं। मेरे मन का भय मन में ही छिपा रहा। परन्तु उनकी कैसी अहैतुकी करुणा तथा अन्तर्दृष्टि थी! वे मेरे मुख की ओर देखते ही बोले, "भय की कोई बात नहीं है। मैं एक पत्र लिखकर तुम्हारे हाथ में दे देता हूँ। कहीं कोई असुविधा होने पर वह पत्र दिखा देना। पुलिस तुम्हें कुछ भी नहीं कहेगी। तुम्हारा सारा उत्तरदायित्व मेरे ऊपर है।" यह कहने के बाद उन्होंने अपने हाथ से एक ऐसा सुन्दर पत्र लिखकर मेरे हाथ में दे दिया जिसे पढ़कर मैं अवाक् रह गया। उन्होंने लिखा था, "इस बालक के बारे में यदि किसी को किसी तरह की शिकायत हो, तो बेलूड़ मठ में सीधे मुझे सूचित किया जाए। इस बालक के विषय में सारी ज़िम्मेदारी मेरी है। लड़के को कहीं भी, किसी तरह की असुविधा में न डाला जाय।" इत्यादि। वस्तुतः महाराज के उस पत्र ने ही मेरी रक्षा की थी। खुफिया पुलिस तीन-चार बार मेरे पीछे लगी थी। बाद में उन्होंने हमारे घर पर भी छापा मारा था। परन्तु उन लोगों को महाराज का वह पत्र दिखाने पर मेरे ऊपर कोई भी संकट नहीं आया।'

एक अन्य वरिष्ठ संन्यासी ने लिखा है- 'कालीकृष्ण महाराज की लोगों के साथ व्यवहार की एक विशिष्ट रीति थी। वे किसी को सीधे "यह करो" या "यह मत करना" नहीं कहते थे। वे बड़े मधुर शब्दों में केवल समस्या के बारे में अवगत करा देते थे। पत्रों के द्वारा भी वे ऐसा ही करते।'

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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

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