Monday, 22 April 2013

स्वामी विवेकानंद: स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रेरणा-स्रोत

   ॐ वीरेश्वराय विद्महे विवेकानन्दाय धीमहि । तन्नो वीर: प्रचोदयात् ।
 
                           स्वामी विवेकानंद: स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रेरणा-स्रोत
 
सन १८९२ में अपने भारत-भ्रमण के दौरान स्वामी विवेकानंद ने देखा कि ब्रिटिश शासन की शोषक नीतियों के कारण हमारे देश के किसानों और व्यापारियों की दशा दयनीय हो गई थी। जब वे पश्चिमी विश्व में गए, तो उन्हें यह अनुभव  हुआ कि भारत को ही पश्चिमी जगत का मार्गदर्शन करना है, क्योंकि, भले ही पश्चिम समृद्ध प्रतीत होता हो, किन्तु आध्यात्मिकता के अभाव में वह बिखरकर नष्ट हो जाएगा। स्वदेश लौटने पर उन्होंने भारत का आह्वान करते हुए कहा, “भारत जागो! विश्व जगाओ!!”

स्वामी विवेकानंद जानते थे कि कोई भी राष्ट्र किसी गुलाम देश से शिक्षा ग्रहण नहीं करेगा। इसलिए नियति द्वारा भारत के लिए निर्धारित, मानवतावादी भूमिका को निभाने के लिए, ‘भारत की स्वतंत्रता’ एक आवश्यक चरण थी। भारत का राष्ट्रवाद ‘आध्यात्मिकता और सनातन धर्म’ ही है, जहां मनुष्य को संभावित दिव्य स्वरूप से युक्त माना जाता है। इस बोध के कारण, भारत के कुछ अन्य महापुरुषों के समान स्वामी विवेकानंद ने मानवतावाद की तुलना में, एक आदर्श के रूप में राष्ट्रवाद की निंदा नहीं की, बल्कि उन्होंने इन दोनों को एक-दूसरे का पूरक, अथवा आवश्यक रूप से एक ही सिक्के के दो पहलू माना। मानवता के कल्याण के लिए वे एक शक्तिशाली और जागृत भारत का निर्माण करना चाहते थे। विकास की पहली शर्त स्वतंत्रता है, किन्तु भारत तो ब्रिटिश शासन में जकड़ा हुआ और सुप्त था। इसीलिए वापस लौटने पर उन्होंने इस महान राष्ट्र को जागृत  करने के लिए सभी स्तरों पर कार्य किया।


राष्ट्रीय बोध जागृत किया
यदि हम स्वयं को उस काल-खंड में ले जाएं और भारत का निरीक्षण करें, तो हम यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि दासता, अज्ञान, दरिद्रता, आत्म-बोध के अभाव, ब्रिटिश शासन का गुणगान करने की दासतापूर्ण मानसिकता के बीच भी स्वामी विवेकानंद को भारत पर विश्वास था और उन्होंने इस राष्ट्र को अपनी विस्मृत अवस्था से बाहर निकलने और पुनः जागृत होने की प्रेरणा दी। स्वतंत्रता की मांग करने और इसकी प्राप्ति के लिए कार्य करने हेतु, इस बात का बोध होना आवश्यक है कि ‘हम एक विशिष्ट सांस्कृतिक इकाई हैं’ और ‘हम अपने शासकों के विरुद्ध संगठित हैं’। हिन्दुओं के विभिन्न संप्रदायों में भेद-भाव निराशाजनक रूप से परस्पर-विरोधी प्रतीत होते थे। ऐसा लगता था मानो ‘हिन्दू’ नाम के अतिरिक्त ऐसा कुछ भी न दिखाई देता हो, जिसे हिन्दू धर्म के सभी संप्रदायों का साझा आधार कहा जा सके। यहाँ तक कि हिन्दू नाम की भी कोई पहचान, सम्मान अथवा योग्य स्थिति नहीं थी। कई लोग तो  हिन्दू कहलाना भी पसंद नहीं करते थे। उनकी पहचान हिंदुत्व से नहीं, वरन उनकी जाति और संप्रदाय से होती थी। किन्तु इन भेदों से परे देखने के कारण स्वामी विवेकानंद हिन्दू चेतना को महान अद्वैत दर्शन के आधार पर संगठित कर सके। अनेक शताब्दियों बाद वे पहले भारतीय थे, जिन्हें पूरे विश्व में ख्याति मिली। एक विश्व-प्रसिद्ध शिक्षक के रूप में उन्होंने पूरे विश्व में गर्व से यह घोषणा की कि वे एक हिन्दू हैं और इस प्रकार उन्होंने हिन्दुओं का आत्म-सम्मान बढ़ाया।
 
व्यापक राष्ट्रीय बोध की पृष्ठभूमि के बिना कोई भी स्वतंत्रता आंदोलन संभव नहीं है। सभी समकालीन स्रोतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में राष्ट्रीय बोध जागृत करने में स्वामी विवेकानंद का प्रभाव सबसे शक्तिशाली था। प्राचीन इतिहास यह दर्शाता है कि, भारत में धार्मिक आन्दोलनो ने सदैव राष्ट्रीय पुनर्जागरण का नेतृत्व किया है। भारत में हिंदुत्व के पुनरुद्धार के बिना कोई राष्ट्रीय आंदोलन संभव नहीं था। स्वामी विवेकानंद ने ठीक यही किया, उन्होंने हिंदुत्व का पुनरुद्धार किया। उन्होंने कहा,

“प्रत्येक राष्ट्र के जीवन की एक मुख्य-धारा होती है; भारत में धर्म ही वह धारा है। इसे शक्तिशाली बनाइये और दोनों ओर का जल स्वतः ही इसके साथ प्रवाहित होने लगेगा।” (खंड IV 372) सच्चा धर्म मनुष्यों की शिक्षाओं से या पुस्तकों के अध्ययन से नहीं आता; यह तो हमारे भीतर स्थित आत्मा को जागृत करने से आता है, जिसके परिणामस्वरूप शुद्ध और वीरतापूर्ण कार्य किए जा सकते हैं। इस विश्व में जन्म लेने वाला प्रत्येक शिशु अपने साथ पूर्व जन्मों के संचित अनुभव भी लेकर आता है; और इन अनुभवों की झलक उसके मन और शरीर की संरचना में दिखाई देती है। किन्तु, हम सभी में मौजूद स्वतंत्रता की भावना यह दर्शाती है कि मन व शरीर से परे भी कुछ है। हम पर शासन करने वाली आत्मा स्वतंत्र है और वही हमारे भीतर स्वतंत्रता की इच्छा जगाती है। यदि हम स्वतंत्र न हों, तो हम इस विश्व को बेहतर बनाने की आशा कैसे कर सकते हैं? हम यह मानते हैं कि मनुष्य की प्रगति उसकी आत्मा के कार्यों का परिणाम है। विश्व जैसा भी है और हम आज जो भी हैं, वह आत्मा की स्वतंत्रता के कारण है।” (IV-190)

स्वामी विवेकानंद ने देश के नागरिकों को सभी स्तरों पर स्वतंत्रता प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित किया। उन्होंने वह सब-कुछ त्यागने का उपदेश दिया, जो उन्हें कमज़ोर बनाता हो।

“इसलिए, मेरे मित्रों, आपके ही रक्त में से एक के रूप में, आपके साथ जीने और मरने वाले के रूप में, मैं आपको बता दूँ कि हमें शक्ति चाहिए और हर समय शक्ति चाहिए। और उपनिषद शक्ति के विशाल भंडार हैं। उनकी शक्ति संपूर्ण विश्व को बलशाली बनाने में सक्षम है; उनके द्वारा संपूर्ण विश्व को पुनर्जीवित किया जा सकता है, शक्तिशाली बनाया जा सकता है, क्रियाशील किया जा सकता है। वे तूर्य-स्वर में सभी जातियों, सभी पन्थों व सभी संप्रदायों के कमज़ोर, दुःखी व शोषित मनुष्यों को अपने पैरों पर खड़ा होने और स्वतंत्र होने के लिए पुकारेंगे। स्वतंत्रता, शारीरिक स्वतंत्रता, मानसिक स्वतंत्रता और आध्यात्मिक स्वतंत्रता उपनिषदों के संकेत शब्द हैं।” (खंड III – 238)

भारत के लिए प्रेम संचारित किया
यदि किसी व्यक्ति को अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए कार्य करना हो, तो उसे बलिदान के लिए तैयार रहना होगा और व्यक्ति तब तक बलिदान नहीं दे सकता, जब तक उसके मन में मातृभूमि के लिए प्रेम न हो। जब तक असीम प्रेम न हो, तब तक बलिदान संभव नहीं है। अपने स्वयं के उदाहरण से स्वामी विवेकानंद ने अनेकों हृदयों में भारत के लिए गहन प्रेम के बीज बोये।

महान क्रांतिकारी हेमचन्द्र घोष ने स्वामी पूर्णात्मानंद को बताया कि “भगिनी निवेदिता हमें बताया करतीं थीं: “भारत के प्रति स्वामीजी के मन में सर्वाधिक उत्कंठा थी। मानो भारत का ही विचार करने की एक धुन उन पर सवार थी। उनके ह्रदय  में भारत ही धड़कता था। भारत उनकी रगों में दौड़ता था। ...इतना ही नहीं। वे स्वयं भी भारत से एकाकार हो गए थे। वे मनुष्य के रूप में भारत का ही अवतार थे। वे भारत ही थे। वे भारत थे – उसकी आध्यात्मिकता, उसकी पवित्रता, उसकी बुद्धि, उसकी शक्ति, उसकी दृष्टि और उसके भाग्य के  प्रतीक”।

जोसफाइन मैक्लीड कहा करती थी कि स्वामीजी का ‘भारत’ का उच्चारण कुछ इस प्रकार का था कि इससे उनके विदेशी शिष्यों के मन में भी गहराई तक इसकी गूंज निर्मित होती थी। स्वामी विवेकानंद के मुख से ‘भारत’ शब्द का उच्चारण सुनकर ही इन शिष्यों के मन में भारत के प्रति प्रेम उत्पन्न हुआ। उनके मन में कितना अधिक आवेग, कितनी करुणा रही होगी जिससे ऐसा प्रभाव प्राप्त हो सका!


बलिदान की भावना उत्पन्न की
सतत होने वाले विदेशी आक्रमणों ने हमारे देश के लोगों को आत्म-रक्षा के लिए कार्य करने पर मजबूर कर दिया। किन्तु आत्म-रक्षा की इस सतत चिंता से वे स्वार्थी बन गए। स्वामी विवेकानंद ने, भारत माता और उसके महान आदर्शों का व्यापक दृष्टिकोण लोगों के सामने रखा। उन्होंने कहा,

“हे भारत! मत भूल कि तेरे  स्त्रीत्व का आदर्श सीता, सावित्री, दमयंती हैं; मत भूल कि तू जिस ईश्वर को पूजता है, वह तपस्वियों में सबसे महान तपस्वी, उमानाथ, परमत्यागी भगवान शिव हैं; मत भूल कि तेरा विवाह, तेरा धन, तेरा जीवन इन्द्रिय-सुख के लिए नहीं है, तेरे व्यक्तिगत आनंद के लिए नहीं है; मत भूल कि तेरा जन्म माता की वेदी पर बलिदान होने के लिए हुआ है; मत भूल कि तेरी समाज-व्यवस्था अनंत असीमित मातृत्व का ही प्रतिबिंब है; मत भूल कि निम्न वर्ग के लोग, अज्ञानी, दरिद्र, अशिक्षित, मोची, भंगी, तेरे ही मांस और रक्त हैं, तेरे ही भाई हैं। हे वीर! निडर बन, साहसी बन, गर्व कर कि तू भारतीय है और गर्व से यह घोषणा कर कि “मैं एक भारतीय हूँ, सभी भारतीय मेरे भाई हैं”। कह कि  "अज्ञानी भारतीय, दरिद्र और अभावग्रस्त भारतीय, ब्राह्मण भारतीय, परित्यक्त भारतीय, मेरे भाई है।" कमर पर चिथड़ा लपेटने वाले, तू भी अपने उच्चतम स्वर में गर्व से यह घोषणा कर कि ? “प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है, प्रत्येक भारतवासी मेरा जीवन है, भारत के देवता और देवियाँ मेरे ईश्वर हैं। भारतीय समाज मेरे शैशव का पालना है, मेरी युवावस्था का आनंद-उद्यान है, मेरी वृद्धावस्था का पवित्र स्वर्ग, काशी, है। बोलो भाई, “भारत की मिट्टी मेरा सर्वोच्च स्वर्ग है, भारत का उत्कर्ष ही मेरा उत्कर्ष है” और दिन-रात यह दोहराओ और प्रार्थना करो, “हे गौरीनाथ, हे जगन्माता, मुझे साहस प्रदान करो! हे शक्ति की देवी, मेरी दुर्बलता दूर करो, मेरी कायरता दूर करो और मुझे मनुष्य  बना दो!” (खंड IV 479)

ऐसे शब्दों का युवाओं पर जादुई प्रभाव हुआ । मातृभूमि के लिए आत्म-बलिदान करने हेतु कई लोग आगे आए। आज भी ये शब्द युवाओं का प्रभावित करते हैं।

स्वतंत्रता आंदोलन का प्रारंभ
सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि स्वामी विवेकानंद ने ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए कभी भी प्रत्यक्ष रूप से प्रयास नहीं किए या यहाँ तक कि उस बारे में कभी बात भी नहीं की; यद्यपि यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि भारत के प्रति जो अगाध प्रेम स्वामी जी ने अन्य व्यक्तियों में संचारित किया था, वही स्वतंत्रता आन्दोलन की मुख्य प्रेरणा थी। किन्तु इस बात के प्रमाण भी हैं, जिनसे यह विश्वास हो जाता है कि स्वामी जी ने लोगों को भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने हेतु प्रेरित करने के प्रत्यक्ष प्रयास भी किए थे। उन्होंने रियासतों को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संगठित करने का प्रयास किया था, किन्तु इसमें सफलता नहीं मिली।

अंग्रेज़ पहले ही आशंकित हो चुके थे। अल्मोड़ा में पुलिस स्वामी जी की गतिविधियों पर दृष्टि रख रही थी। २२ मई को श्रीमती एरिक हैमंड को भेजे अपने पत्र में भगिनी निवेदिता ने लिखा, “आज सुबह एक भिक्षु को यह चेतावनी मिली थी कि पुलिस अपने जासूसों के द्वारा स्वामी जी पर दृष्टि रख रही है –निसंदेह, हम सामान्य रूप से इस बारे में जानते हैं—किन्तु अब यह और स्पष्ट हो गया है और मैं इसे अनदेखा नहीं कर सकती, यद्यपि स्वामी जी इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। सरकार अवश्य ही मूर्खता कर रही है – या कम से कम तब ऐसा स्पष्ट हो जाएगा, यदि वह उनसे उलझेगी—वह पूरे देश को जगाने वाली मशाल होगी – और मैं इस देश में जीने वाली अब तक कि सबसे निष्ठावान अंग्रेज़ महिला...उस मशाल से जागने वाली पहली महिला होऊँगी”।
छोटे-छोटे समूहों के साथ अनौपचारिक वार्तालाप के दौरान स्वामीजी ने राजनैतिक स्वतंत्रता का आदर्श अपने देशवासियों, विशेषतः युवाओं के सामने, उनके तात्कालिक लक्ष्य के रूप में रखा। क्रांतिकारी ब्रह्मबांधव उपाध्याय ने बताया कि, “सन १९०१ में उनकी ढाका यात्रा के दौरान जब युवाओं का एक समूह उनसे मिला और परामर्श लिया, तो उन्होंने कहा, “बंकिमचन्द्र को पढ़ो और देशभक्ति व सनातन धर्म का अनुकरण करो। सबसे पहले भारत को राजनैतिक रूप से स्वतंत्र कराया जाना चाहिए”।


इसके बाद स्वामी जी ने कहा, “भारत का अतीत गौरवशाली था, निश्चित रूप से भारत का भविष्य और भी गौरवशाली  होगा ....... !  आत्मा को झकझोरने वाले, मृत्यु को चुनौती देने वाले मन्त्र, “अभिः” (निर्भयता) से, गुलाम मानसिकता, अंधविश्वास और हीनभावना के सदियों पुराने अवशेष त्याग दो। विश्व के भौतिक रूप से विकसित अन्य राष्ट्रों के समकक्ष आने के लिए –हे युवा बंगाल, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का अनेक प्रकार से अनुकरण करो, ...और फिर मनोबल और दक्षता का आधुनिक मानक प्राप्त करके, विदेशी आक्रमणकर्ताओं को, उन्हीं की भाषा में उत्तर देकर अपने देश को विदेशी पंजों से मुक्त करो- पूर्वी संस्कृति के गढ़ की शरण लो। किन्तु यह निश्चित रूप से जान लो ; कि केवल नकल करके तुम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते”।

प्रसिद्ध देशभक्त-क्रांतिकारी ब्रह्मबांधव उपाध्याय और अश्विनी कुमार दत्त से चर्चा के दौरान हेमचन्द्र घोष ने सन १९०६ में टिप्पणी की: “मुझे अच्छी तरह याद है कि स्वामीजी ने मुझे बंगाली युवाओं की अस्थियों से एक ऐसा शक्तिशाली हथियार बनाने को कहा था, जो भारत को स्वतंत्र करा सके”।

हम स्वामी जी के शब्दों का प्रभाव कुख्यात ‘विद्रोह कमिटी’ की रिपोर्ट में देख सकते हैं। यह कहती है: उसके (स्वामी विवेकानंद के) लेखों और शिक्षाओं ने अनेक सुशिक्षित हिन्दुओं पर गहरी छाप छोड़ी है”। ब्रिटिश सीआईडी जहाँ भी किसी क्रांतिकारी के घर की तलाशी लेने जाया करती थी, वहां उन्हें विवेकानंद जी की पुस्तकें मिलतीं थीं।

अपनी प्रेरणादायी रचना, ‘द रोल ऑफ़ ऑनर: एनेक्डोट ऑफ़ इंडियन मार्टियर्स’ में कालीचरण घोष बंगाल के युवा क्रांतिकारियों के मन पर स्वामी जी के प्रभाव के बारे में लिखते हैं, “स्वामी जी के सन्देश ने बंगाली युवायों के मनों को ज्वलंत राष्ट्र-भक्ति की भावना से भर दिया और उनमें से कुछ में कठोर राजनैतिक गतिविधि की प्रवृत्ति उत्पन्न की। स्वामी विवेकानंद के देहांत से पूर्व, ? देश उन संगठनों के महत्व के प्रति जागरुक हो गया था जो बड़े पैमाने पर शारीरिक उन्नति, खेल, तलवारबाज़ी, कृपाण और लाठी के खेल, समाज-सेवा, राहत कार्य आदि करते थे। सन १९०२ तक ऐसे संगठन उभर आए थे, जिनमें प्रखर राष्ट्रवाद के साथ ही ‘एक आध्यात्मिक भावना’ भी थी, जैसे सतीश मुखर्जी और पी.मित्रा के नेतृत्व में अनुशीलन समिति।“

यह कोई संयोग नहीं है कि स्वामी विवेकानंद की समाधि के तीन वर्षों बाद ही उनके द्वारा प्रज्वलित अग्नि ने बंगाल के विभाजन के विरुद्ध एक विशाल आंदोलन भड़का दिया जो कि अपने आप में एक महान स्वतंत्रता आंदोलन बन गया। स्वामी विवेकानंद जी के ऐसे योगदान के कारण ही तिलक जी की पत्रिका “मराठा” ने विवेकानंद को भारतीय राष्ट्रवाद का जनक माना। १४ जनवरी १९१२ को इसने कहा, “स्वामी विवेकानंद भारतीय राष्ट्रवाद के वास्तविक जनक हैं...प्रत्येक भारतीय को आधुनिक भारत के इस पिता पर गर्व है”। आज भारत को सभी प्रकार की नकल, निर्भरताओं और विदेशी शक्तियों के नियंत्रण से मुक्ति पाने के लिए अपनी समस्त शक्ति एकत्र करने की आवश्यकता है, स्वामी विवेकानंद जी की १५०वीं जयंती, उनके इस ओजस्वी सन्देश का सर्वत्र प्रसार करने का उपयुक्त अवसर है।



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