Tuesday, 12 November 2019

A great Monument

6 Oct 1975 – Sri Ali, The Aljamchi, Ambassador of Oman - I visited much revered historical monument of Swami Vivekananda & I was amazed by the architectural magnificence which of course is indicative of the great skill of the architect. Swami Vivekananda certainly deserves to be perpetuated in this monument.

 

6 Oct 1976 - My  wife & I have the privilege of visiting the temple to-day. It indeed a fitting memorial to Swami Vivekanandaji. I particularly liked the idea of the 'DHYAN MANDAP' which is in  consonance with our tradition, is also modern in its get up. I am sure this temple would spread the message of Swami Vivekananda throughout the world, and would provide solace to the suffering humanity. – Sri C B Jain, Director General of Tourism

 

It's an inspiration for all. For spiritualist & secularists a like, for saint and scholars, for poet and politicians, for the one in need it has a purposeful message. Be Men ,man with a 'capital M'. – Sri Lal Krishna Advani 7 Oct 1971

 

स्वामी विवेकानन्द जी के इस स्मारक के कारण भारत वर्ष की परिक्रमा पूर्ण करने वालों को आत्मिक संतोष सुख का लाभ मिलेगा | अखंड भारत की सेवा का व्रत दृढीभूत होगा | विवेकानंदपुरम की व्यवस्था से आत्मियता का वातावरण निर्माण होता है | निश्चिंत होकर आराधना में लीन होने का आनंद मिलता है | - Sri Sundar Singh Bhandari, 7 Oct 1971

 

The message the heart carries imprinted on it.  AFTER SITTING IN MEDITATION IN Dhyan Mandapam, after reverentially drinking in the heavenly ( e.g.spirit) of the foot print of mother Parvati, after salutation to the statue of Swami Vivekananda & the inspiring paintings of Sri Ramakrishana & Sharada Mata ,is that true meditation must flower into dedicated action - service of millions of our countrymen.   Thanks to Ekthanth Ranade ,who has been inspired to give shape to Swami Vivekananda in  great vision in the shape of this magnificent memorial. – Prof K N Vaswani, Editor of Complete Works of Mahatma Gandhi, later Vice-President of Vivekananda Kendra – 8 Oct 1973

 

Monday, 11 November 2019

Inspires to Dedicate

Sri G. J. Rao, Chairman, Tuticorin Port Trust – 3 Oct 2009 - I am extremely happy and impressed the manner in which the memorial is maintained. My wife and daughter join me in extending their happiness for kind support and guidance given to us to look around the memorial. I wish the trust all the best for the best maintanence. I should again visit the memorial as and when the goddess Kanyakumari give me an opportunity and blessings. With best regards.

Sri J.S.Bhanco I.A.S., MANAGING DIRECTOR TWAD Board – 1 Oct 1973 - It is not the tradition as history which should be the end all of a mission.  It is the inspiration & dynamism which both generate, which is the treasure of nation to make it rich. I am glad that this monument is not a temple of worship but a source of inspiration & experience.

Sri M. M. Rajendran, Governor of Orissa -4 Oct 2000 - It is a great experience to have visited this Swami Vivekananda Rock Memorial. The spot has been maintained clean and inspires one to achieve great heights of spiritualization. Let the ideals of Swamiji of humanity and oneness of God imbue our people to have in peace and acuity.

Sri Nanaji Deshmkukh -7 Oct 1971 - स्वामीजी का यह भव्य स्मारक इस युग का एक आश्चर्य है| इसे देखकर मन मुग्ध होता है और भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा ढृढ़ होकर भारत की सेवा मे समर्पित भावना को बल मिलता है|

Sri H.G.Linga Reddy, Minister for Fisheries and Ports- 7 Oct 1970 - The Vivekananda memorial committee deserves happy congratulations as this memorial adulatory of giving a concrete shape to the erection of the statue of  Swami Vivekananda whose very singlet, I am sure will be a prince of inspiration of real teachings of Sri Ramakrishna Paramhansa.  May His teachings inspire the people in the glory so as to lead us to a happiness and more Dharmic LIFE.

 

Sunday, 10 November 2019

Swami Vivekananda and Rock at Kanyakumari

स्वामी विवेकानन्द ने पूरे देश का परिव्राजक के रूप में भ्रमण करने के बाद सन 1892 को कन्याकुमारी में, हिन्द महासागर के मध्य स्थित श्रीपाद शिला पर ध्यान किया था। 25 दिसम्बर को ही इस ध्यान का प्रारम्भ हुआ था। उसी स्थान पर आज भव्य विवेकानन्द शिला स्मारक की स्थापना हुई है। स्मारक के प्रणेता माननीय एकनाथजी रानडे कहा करते थे कि स्वामीजी के जीवन में इस शिला का वही महत्व है जो गौतम बुद्ध के जीवन में गया के बोधिवृक्ष का।  

18वीं सदी में अंग्रेजों के शासनकाल में भारतीय लोग अपनेआप को 'भारतीय' कहलाने में हीनता का अनुभव करते थे। एक तरफ अंग्रेज जनसामान्य पर अत्याचार करते थे, तो दूसरी ओर ईसाई मिशनरियों के द्वारा भारत के ऋषिमुनियों, संतों, देवी-देवताओं और सब धर्मग्रंथों को झूठा कहकर उसकी निंदा की जाती थी। अंग्रेजों के अत्याचारों और शैक्षिक षड्यंत्रों के कारण भारतीय जनमानस अपने 'हिन्दू' कहलाए जाने पर ग्लानि का अनुभव करते थे। भारत की आत्मा 'धर्म' का अपमान इस तरह किया जाने लगा कि उससे उबरना असंभव सा प्रतीत होने लगा। विदेशी शासन, प्रशासन, शैक्षिक और मानसिक गुलामी से ग्रस्त भारत की स्थिति आज से भी विकट थी। ऐसे में भारतीय समाज के इस आत्माग्लानि को दूर करने के लिए एक 29 वर्षीय युवा संन्यासी भारत की आत्मा को टटोलने के लिए भारत-भ्रमण के लिए निकल पड़ा। यह संन्यासी संस्कृत के साथ ही अंग्रेजी भाषा भी अच्छी तरह जानता था। भारतीय संस्कृति, इतिहास, धर्म, पुराण, संगीत का ज्ञाता तो था ही, वह पाश्चात्य दर्शनशास्त्र का भी प्रकांड पंडित था। ऐसे बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न संन्यासी को पाकर भारतवर्ष धन्य हो गया। ऐसा लगता है जैसे, इतिहास उस महापुरुष की बेसब्री से प्रतिक्षा कर रहा था। भारतमाता अपने इस सुपुत्र की बाट निहार रही थी जो भारतीय समाज के स्वाभिमान का जागरण कर उनमें आत्मविश्वास का अलख जगा सके। यह वही युवा संन्यासी है जिन्होंने मात्र 39 वर्ष की आयु में अपने ज्ञान, सामर्थ्य और कार्य योजना से सम्पूर्ण विश्व को 'एकात्मता' के सामूहिक चिंतन के लिए बाध्य कर दिया।

अपने 29 वर्ष की आयु में सम्पूर्ण भारत का भ्रमण स्वामी विवेकानन्द ने भारत की स्थिति को जाना। भारत भ्रमण के दौरान वे गरीब से गरीब तथा बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं से मिले। उन्होंने देखा कि भारत में एक तरफ धनवानों की टोली है, तो दूसरी ओर दुखी, असहाय और बेबस जनता मुट्ठीभर अन्न के लिए तरस रहे हैं। विभिन्न जाति, समुदाय और मतों के बीच व्याप्त वैमनस्य को देखकर स्वामीजी का हृदय द्रवित हो गया। भारत में व्याप्त दरिद्रता, विषमता, भेदभाव तथा आत्मग्लानि से उनका मन पीड़ा से भर उठा। भारत की इस दयनीय परिस्थिति को दूर करने के लिए उनका मन छटपटाने लगा। अंत में वे भारत के अंतिम छोर कन्याकुमारी पहुंचे। देवी कन्याकुमारी के मंदिर में माँ के चरणों से वे लिपट गए। माँ को उन्होंने साष्टांग प्रणाम किया और भारत की व्यथा को दूर करने की प्रार्थना के साथ वे फफक-फफक कर रोने लगे।

भारत के पुनरुत्थान के लिए व्याकुल इस संन्यासी ने हिंद महासागर में छलांग लगाई और पहुंच गए उस श्रीपाद शिला पर जहां देवी कन्याकुमारी ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तप किया था। 25 दिसम्बर, 1892 को इसी शिला पर बैठकर स्वामी विवेकानन्द ध्यानस्थ हो गए। 25, 26 और 27 दिसम्बर ऐसे तीन दिन-तीन रात बिना खाए-पिए वे अपने ध्यान में लीन रहे। यह ध्यान व्यक्तिगत मुक्ति या सिद्धियों की प्राप्ति के लिए नहीं था, वरन भारत के गौरवशाली अतीत, तत्कालीन दयनीय परिस्थिति और भारत के उज्जवल भविष्य के लिए किया गया तप था। इस राष्ट्रचिंतन में स्वामीजी ने भारत के गौरवशाली अतीत, चिंताजनक वर्तमान व स्वर्णीम भविष्य का साक्षात्कार किया था। भारत के खोए हुए आत्मविश्वास और खोई हुई आत्मश्रद्धा को दूर करने की व्यापक योजना स्वामी विवेकानन्द ने इसी समय बनाई थी। यह वही राष्ट्रध्यान था जिसके प्रताप से स्वामीजी ने विश्व का मार्गदर्शन किया। स्वामी विवेकानन्द ने बाद में बताया कि माँ भारती के अंतिम छोर पर मुझे मेरे जीवन की कार्ययोजना प्राप्त हुई। उन्हें इस ध्यान के द्वारा उनके जीवन का ध्येय प्राप्त हुआ।

भारत के ध्येय को अपना जीवन ध्येय बनाकर स्वामीजी ने आजीवन कार्य किया।