Friday 15 December 2017

निवेदिता - एक समर्पित जीवन - 7

यतो धर्म: ततो जय:

 स्वामी जी का प्रभाव

स्वामी विवेकनन्द ने अप्रेल 1896 में न्यूयॉर्क से लन्दन के लिए प्रस्थान किया। लंदन में उनका आवास बेलग्रेविया में लेडी ईसाबेल मार्गेसन के घर पर था।

लन्दन प्रवास की अन्य बातों के आलावा उल्लेखनीय उपलब्धि स्वामीजी द्वारा कुमारी मार्गरेट नॉबल की खोज थी जिसकी उच्च बौद्धिक क्षेत्रों में युवा बुद्धिजीवी के रूप में विशिष्ट पहिचान बन चुकी थी। कुमारी नॉबल स्वामीजी के आवास एवं सार्वजनिक स्थानों पर होने वाले सभी व्याख्यानों में उपस्थित रहती थी और इनसे वह अत्याधिक प्रभावित हुई| लेडी मार्गेसन के घर पर आयोजित पहली विचार गोष्ठी का विषय था -  'ईश्वर और उसकी उपासना के मार्ग '। स्वामीजी ने कहा...... हमारा सारा संघर्ष मुक्ति के लिए है | हम न सुख चाहते है न दुःख, अपितु केवल मोक्ष ही हमारे   जीवन का लक्ष्य है। ....... ।'

एक अन्य गोष्ठी में मार्गेरेट ने स्वामीजी से सुना  '.....  जो अनंत है, असीम है वही अभूत है। वही शाश्वत है। उसे छोड़कर संसार की सभी वस्तुऍ नाशवान है। ...... ।'  उनके इस कथन कि  'ईश्वर वास्तव में निर्वैयक्तिक है किन्तु इंद्रियों के कुहासे के के भीतर से देखने पर वह वैयक्तिक लगता है ' मार्गेरेट के मर्म को छू लिया।

स्वामीजी के शब्दों ने इस युवती के मस्तिष्क में ;झंझावात पैदा कर दिया था। ईसाई धर्म के कई सिद्धान्तों व मान्यताओं में मार्गेरेट का सहज विश्वास इस समय तक समाप्त हो चुका था; किन्तु अभी भी कुछ बातों के प्रति वे निष्ठावान थीं जिनके बारे में उनका विश्वास था कि अच्छा जीवन बिताने  इच्छुक हर व्यक्ति को  उनका पालन करना ही चाहिए। धीरे-धीरे उन पर इन  बातों की भी पकड़ समाप्त प्रायः हो गई|  कुछ का पूर्ण विलोपन हो गया। फलतः उन्हें पुनः शिक्षण की दीर्घ व कठिन प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। यह मार्ग काँटों भरा था; किन्तु वह उस पर चलने को कृतसंकल्प थीं। भले ही पैर लहूलुहान हो जाए, ह्रदय विदीर्ण हो जाए। इस संम्बंध में कई वर्षों बाद उन्होंने ' द मास्टर एज आई सॉ हिम ' में लिखा, ' स्वामीजी के व्याख्यानों से कम से यह बात हमारी समझ में आयी कि दूसरो की भलाई स्वयं में साध्य है। मुझे सुरुचिपूर्ण वह पूर्वी सिद्धान्त विस्मयजनक प्रतीत हुआ कि तमाम ईश्वरीय उपहारों में आध्यात्मिकता सर्वोच्च उपहार है। बौद्धिक ज्ञान उससे इक सीढ़ी नीचे और सभी प्रक्रार की भौतिक व् शारीरिक सहायता का स्थान सबसे बाद है।''

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हमें कर्म की प्रतिष्ठा बढ़ानी होंगी। कर्म देवो भव: यह आज हमारा जीवन-सूत्र बनना चाहिए। - भगिनी निवेदिता {पथ और पाथेय : पृ. क्र.१९ }
Sister Nivedita 150th Birth Anniversary : http://www.sisternivedita.org
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