Friday 20 May 2016

धर्मं भाग १

भाऊसाहब भुस्कुटे व्याख्यान माला में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का भाषण

मुझे 19 वर्ष पूर्व भी इस आयोजन में आने का अवसर मिला था। अच्छी चीजों को जानना मानव जीवन को उन्नत करता है। इस दृष्टि से आयोजित होनेवाले इस कार्यक्रम के आयोजक व वर्धिष्णु श्रोतागणों का मैं अभिनन्दन करता हूं। इस सद्प्रवृत्ति को नमस्कार। आप सब जानते हैं कि पारदर्शिता, प्रामाणिकता व अध्ययनशीलता भाऊ साहब की विशेषता थी। ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिवेणी के साथ सत्यनिष्ठा को जीवन आधार बनाकर लोकसेवा को समर्पित वह जीवन एक प्रकाश पुंज है। जब मैं पढता था तो एक  विषय था, - "जनरल प्रोपर्टीज ऑफ़ मेटर" -सामान्य वस्तु धर्म। विद्युत, ध्वनि, अग्नि, वायु आदि के गुणधर्म अर्थात स्वभाव की उसमें चर्चा थी। पानी का धर्म है - 'बहना', अग्नि का धर्म है - जलाना। तो धर्म का पहला अर्थ हम अनजाने में ही स्वभाव को मानते हैं।

सामान्यतः धर्म का अर्थ कर्तव्यपालन को माना जाता है। माता-पिता की सेवा हमारा कर्तव्य है,  प्रजा का पालन करना राजा का कर्तव्य है, पढ़ाई करना छात्र का धर्म है। धर्म का अर्थ ढूंढने जाएं तो ग्रंथों में बहुत सी बातें मिलती हैं। अभ्युदय अर्थात भौतिक जीवन की उन्नति, जिसे आजकल की भाषा में विकास कहते हैं- जन्म से लेकर मृत्यु तक सुख-सुविधा, सम्पन्नता, इसे अभ्युदय कहा गया है। बहुत से लोग मानते हैं कि इस जीवन के साथ परलोक भी है। वहां भी शान्ति की कामना को नि:श्रेयस कहा गया। अतः कहा गया कि अभ्युदय के साथ नि:श्रेयस की सिद्धि धर्म है। धर्म जो सबको टिकाए रखता है। धारणात धर्म इत्याहू, धर्मों धारयते प्रजा। सृष्टि में जीवन चल रहा है, उसका कारण धर्म है।

सामान्य लोगों की भाषा में जो शब्द आते हैं वे अनुभव से आते हैं, अतः परंपरा से स्वभाव व कर्तव्य को धर्म माना जाता है, वह भी गलत नहीं हो सकता। शास्त्र जो कहते हैं, वह भी सत्य ही है। इहलोक और परलोक में सबको उन्नति और सुख मिले, उस हेतु कर्तव्य पालन धर्म है। इस्लाम, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिक्ख, शैव्य, वैष्णव, शाक्त ये सब धर्म के विशेषण हैं, जो पूजा पद्धति का निर्देश करते हैं। इस्लाम अर्थात कुरआन के अनुसार चलना, मोहम्मद साहब को आख़िरी पैगम्बर मानना। इसी प्रकार ईसाई अर्थात बाईबिल को ही मानना और सातवें आसमां में बैठे गॉड में आस्था रखना। इसी प्रकार शैव्य हैं तो केवल शिव को ही मानना, वैष्णव हैं तो केवल विष्णू को ही मानना। महाराष्ट्र के पंढरपुर में एक शिवभक्त सुनार रहा करता था। शैव्य था तो विष्णू का नाम भी सुनना गंवारा नहीं, उनकी मूर्ति को भी नहीं देखना। उसकी दृष्टि में शिव की भक्ति अर्थात विष्णु की भक्ति नहीं करना। एक बार बिट्ठल की मूर्ति के लिए सोने का कमरपट्टा बनवाने की बात हुई, तो अच्छे सुनार के नाते इन्हें बुलाया गया। अब इनका तो निश्चय था कि विष्णु की मूर्ति को नहीं देखना, तो आंखों पर पट्टी बांधकर गए। जब कमर पट्टे का नाप लेने को हाथ रखा तो लगा वहां तो शिव की कमर में जैसे नाग रहता है, वैसा है। उन्हें लगा कि यह तो शिव की ही मूर्ति है। पट्टी हटाई और देखा तो सामने विष्णु की ही मूर्ति दिखाई दी। ऐसा कई बार हुआ। आंखें बंद करके देखा तो शिव मालूम पड़े और आंख खोलकर देखें तो विट्ठल अर्थात विष्णु। उनको समझ में आ गया कि दोनों में कोई अंतर नहीं है।


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