Friday 27 June 2014

आत्मा और विश्व



    प्रत्येक विकास (evolution) के पहले एक अन्तर्भाव या संकोच रहता है, प्रत्येक व्यक्त दशा के पहले उसकी अव्यक्त दशा रहती है। समूचा वृक्ष सूक्ष्म रूप से अपने कारण बीज में निहित रहता है। समूचा मनुष्य सूक्ष्म रूप से उस एक जीविसार (protoplasm) में विद्यमान रहता है।

    यह समूचा विश्व मूल अव्याकृत प्रकृत में निहित रहता है। प्रत्येक वस्तु सूक्ष्म रूप से अपने कारण में उपस्थित रहती है। यह विकास अर्थात् स्थूल से स्थूलतर रूपों की क्रमिक अभिव्यक्ति सत्य है, पर साथ ही यह भी सत्य है कि इसके प्रत्येक स्तर के पूर्व उसका संकोच विद्यमान है।

    यह समग्र व्यक्त जगत् पहले अपनी अन्तर्भूत अवस्था में विद्यमान था जो इन विविध रूपों में अभिव्यक्त हुआ; और फिर से वह अपनी उसी अन्तर्भूत दशा को प्राप्त हो जायगा। उदाहरणार्थ, एक छोटे पौधे का जीवन लो। हम देखते हैं कि उसकी एकता दो वस्तुओं से मिलकर बनी है-उसका विकास या वृद्धि और हृास या मृत्यु। इनसे एक इकाई बनती है-पौधे का जीवन।

    जीवन की श्रंखला में पौधे के जीवन को एक कडी समझकर हम पूरी जीवन-श्रंखला पर विचार कर सकते हैं। जीविसार से प्रारंभ वही एक जीवन 'पूर्ण' मनुष्य में परिणत होता है। मनुष्य इस श्रृंखला की एक कडी है, और विविध जीव-जन्तु तथा पेड-पौधे इसकी अन्य कडियाँ हैं। अब इनके मूल अथवा उद्गम की ओर चलो उन सूक्ष्माणुओं की ओर जिनसे इनका प्रारंभ हुआ है, और पूरी श्रृंखला को एक जीवन मानोगे तो देखोगे कि यहाँ प्रत्येक विकास किसी न किसी पहले से अवस्थित किसी वस्तु का ही विकास है।

    जहाँ से यह प्रारंभ होता है, वहीं इसका अन्त भी होता है। इस जगत की परिसमाप्ति कहाँ है? - बुद्धि में। सोचो, क्या ऐसा नहीं है? विकासवादियों के मतानुसार सृष्टि क्रम में बुद्धि का ही विकास सबसे अन्त में हुआ। अतएव सृष्टि का प्रारंभ या कारण भी बुद्धि ही होना चाहिए।

    प्रारंभ में यह बुद्धि अव्यक्त अवस्था में रहती है और क्रमशः वही व्यक्त रूप में प्रकट होती है। अतः विश्व में पायी जाने वाली समस्त बुद्धियों की समष्टि ही वह अव्यक्त विश्व-बुद्धि है, जो उन विभिन्न रूपों में प्रकाशित हो रही है, और जिसे शास्त्रों ने 'ईश्वर' की संज्ञा दी है। शास्त्र कहते हैं कि हम ईश्वर से ही आते हैं फिर वहीं लौट जाते हैं। उसे चाहे किसी भी नाम से पुकारो, पर यह तुम अस्वीकार नहीं कर सकते कि प्रारंभ में वह अनन्त विश्व बुद्धि ही कारणरूप में विद्यमान रहती है।                   
 (VIII, ८०-८१)
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

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